कर्नाटक के चुनाव के पहले जिन राज्यों मंे चुनाव हुए, उनमें उत्तर प्रदेश और पंजाब भी शामिल थे। लंबे अरसे तक उत्तर प्रदेश में गठबंधन और जोडतोड़ की राजनीति चलती रही। अनेक बार वहां राष्ट्रपति शासन लगाने पड़े थे। पर 2007 की तरह 2012 में भी उत्तर प्रदेश की जनता ने वहां एक बहुमत वाली सरकार बना दी। पंजाब में भी गठबंधन सरकार है। पिछले साल वहां जो चुनाव हुए, उसकी खासियत यह रही कि गठबंधन के नेता अकाली दल का अपनी सहयोगी भाजपा की अपेक्षा काफी ज्यादा सीटें मिलीं और वहां वह अपने बूते ही करीब करीब बहुमत के पास है। जाहिर है, वहां भी जनता का झुकाल एक पार्टी की सरकार की ओर ही है।

उत्तर प्रदेश और पंजाब के पहले बिहार में विधानसभा का चुनाव हुआ था। वहां भी पहले एक गठबंधन सरकार थी और आज भी एक गठबंधन सरकार ही है, लेकिन गठबंधन की सबसे बड़ी पार्टी का इतनी सीटें मिल चुकी हैं कि यदि वह चाहे तो अपने गठबंधन सहयोगी भाजपा को छोड़कर अपने बूते ही सरकार चला ले। उड़ीसा में भी वैसा ही हो चुका है। कभी नवीन पटनायक ने भारतीय जनता पार्टी के साथ मिलकर सरकार बनाई थी, पर वह आज अकेले अपनी पार्टी के बूते ही सत्ता में हैं। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था, पर अकेले उनकी पार्टी को इतनी सीटें मिल गई थीं कि बिना कांग्रेस के समर्थन के ह ीवह सरकार का गठन कर सकती थीं। सरकार तो उन्होंने कांग्रेस के साथ ही बनाई, लेकिन आज वह अपनी अकेली पार्टी की सरकार चला रही है और कंाग्रेस उस सरकार से बाहर हो गई है।

तो गठबंधन की राजनीति भले ही केन्द्र की विवशता हो, लेकिन कम से कम राज्यों में लोगों की कोशिश यह है कि वहां एक ही पार्टी की सरकार बने। इस बार कर्नाटक में भी यही देखने को मिला है। वहां कांग्रेस को बहुमत प्राप्त हो गया है। ऐसा दो चुनावों के बाद हुआ। पिछले चुनाव में हालांकि भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी, लेकिन उसे बहुमत हासिल नहीं हुआ था। उसने निर्दलीय और विपक्षी उम्मीदवारों के जोड़तोड़ से ही बहुमत का समर्थन हासिल किया था और उस जोड़तोड़ के कारण बीच बीच में भाजपा सरकार की अच्छी खासी फजीहत होती रहती थी। उसके कारण मनी पावर का महत्व बढ़ गया था और पैसे जुटाने के लिए सरकार उन लोगो के समर्थन पर आश्रित हो गई थी, जिनके पास पैसे थे। 2008 के पहले हुए चुनाव में भी कर्नाटक में एक त्रिशंकु विधानसभा ही अस्तित्व में आई थी और सरकार बनाने और बिगाड़ने में अनेक प्रकार के गंदे खेल खेले जा रहे थे।

इस बार कांग्रेस को पूर्ण बहुमत मिला है और भारतीय जनता पार्टी सत्ता खो चुकी है। 2008 में जब वहां भाजपा की सरकार बनी थी, तो कहा जा रहा था कि उत्तर भारत की यह पार्टी अब दक्षिण में प्रवेश कर चुकी है और यह महज उसकी शुरुआत है। दावा किया जा रहा था कि कर्नाटक के बाद भाजपा दक्षिण के अन्य राज्यों में भी अपने पांव फैलाएगी। पर ऐसा हो नहीं सका। अन्य राज्यों में अपना पांव फैलाना तो दूर वह कर्नाटक में भी पिट चुकी है और वह एक बार फिर उत्तर भारत तक ही सिमट चुकी है।

भाजपा की वह हार जिन कारणों से हुई, वह कांग्रेस के लिए भी चेतावनी है। भ्रष्टाचार और कुशासन के कारण ही भाजपा को वहां हार का मुह देखना पड़ा। यदि गुजरात और छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकारों की तरह वहां भी भाजपा सरकार चलाती तो उसकी यह दुर्गति नहीं होती। आज वह वहां तीसरे नंबर की पार्टी है। विधानसभा में सदस्य संख्या के लिहाज से जनता दल(एस) की तरह ही उसे भी 40 सीटें मिली हैं, पर उसे पूरे कर्नाटक में जनता दल(एस) की अपेक्षा कम वोट मिले हैं। जाहिर है, वहां अब तीसरे नंबर की पार्टी बन गई है, जो आने वाले चुनावों में भी उसकी परेशानी का सबब बनेगा।

भाजपा की करारी हार का अर्थ यह है कि आने वाले चुनावों मे भी भ्रष्टाचार एक बड़ा मसला रहेगा और इसका खामियाजा कांग्रेस को कई राज्यों मंे भुगतना पड़ सकता है, क्योंकि उसके खिलाफ भी भ्रष्टाचार के एक से बढ़कर एक आरोप लग रहे हैं।(संवाद)