फर्क यह है कि बिहार में जहां लालू की जाति की आबादी कुल आबादी का 12 फीसदी है, तो नीतीश की जाति की आबादी मात्र दो फीसदी है। इसी जाति समर्थन के बूते लालू यादव पटना में बहुत बड़ी रैली करने की क्षमता रखते हैं और इसके कारण ही वे नीतीश पर भारी पड़ते हैं। नीतीश यदि आज मुख्यमंत्री हैं, तो इसका कारण यह है कि उन्हें भाजपा का समर्थन हासिल है और लालू की गलतियों के कारण पिछड़े वर्गों का कमजोर तबका भाजपा- जद(यू) गठबंधन के साथ आ खड़ा हुआ है।

लालू ने रैली तो आयोजित कर ली और यह साबित भी कर दिया कि पटना में भीड़ जुटाने में उनका कोई सानी नहीं, पर सवाल यह उठता है कि क्या इस रैली को दिखाकर वह फिर से सत्ता में आने का अपना ख्वाब पूरा कर सकते हैं? एक समय थ, जब पूरे बिहार में लालू की तूती बोलती थी। चुनाव दर चुनाव उनकी जीत होती थी, भले ही उनके विरोधी चाहे उनके खिलाफ जितना जोर लगा लें। नीतीश खुद उनकी पार्टी से अलग होकर उन्हें हटाने की कोशिश कर रहे थे, पर एक समय वह खुद अपने आपको राजनीति के हाशिए पर खड़ा देख रहे थे। सच कहा जाय, तो 1995 के विधानसभा चुनाव के बाद तो नीतीश कुमार का एक तरह से राजनैतिक खात्मा ही हो गया था, पर भारतीय जनता पार्टी ने उन्हें दुबारा जन्म दिया।

भाजपा की गोद में पलकर ही नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री बन सके और इसमें लालू यादव की राजनैतिक गलतियों ने उनका काम आसान कर दिया। दरअसल लालू यादव पिछड़े वर्ग के नेता हुआ करते थे और इन वर्गों के लगभग सभी तबकों का उन्हें समर्थन हासिल हुआ करता था, पर सत्ता के नशे में वे यह भूल गए कि जिल पिछड़े वर्गों के लोगों के समर्थन से वे सत्ता में आए हैं, उनके प्रति भी उनकी कोई जिम्मेदारी बनती है। अपनी जिम्मेदारियों से बचने के लिए वे मुस्लिम यादव (माय) की जातिवादी सांप्रदायिक राजनीति के मकड़जाल में फंस गए। उनकी इस जातिवादी- सांप्रदायिक राजनीति के कारण ही सबसे पहले नीतीश कुमार ने जनता दल छोड़ा। नीतीश को उस समय लगा था कि सभी गैर यादव पिछडी जातियां लालू को छोड़कर उनके साथ आ जाएंगी, क्योंकि लालू उन सबकी उपेक्षा कर रहे थे। पर उन पिछड़ी जातियों का लालू से मोहभंग एक साथ नहीं हुआ। वह धीरे धीरे हुआ और इस बीच भाजपा के साथ जाकर नीतीश ने उन्हें अपनी ओर मोड़ने में सफलता पाई।

इसके बाद लालू यादव अपनी जाति और मुसलमानों के समर्थन पर ही आश्रित रह गए। उन्हें पता था कि पिछड़े वर्गों की अन्य जातियां उनका साथ छोड़ रही हैं, लेकिन उसकी भरपाई करने के लिए उन्होंने अगड़ी जातियों को अपनी ओर खींचने का प्रयास करना शुरू किया। राजपूतों को अपने साथ मिलाने के लिए एमवाई को उन्होंने एमवाईआर बना दिया। भूमिहारों का समर्थन हासिल करने के लिए उनकी जाति सभाओं में शिरकत करने लगे और यादवों व भूमिहारों के बीच शादी विवाह के संबंधों की भी वकालत करने लगे। दिलचस्प बात तो यह है कि अपनी सत्ता के शुरुआती दिनों में उन्होंने इन जातियों के लोगों के खिलाफ ही आग उगलने का काम किया था, पर अब वे उन्हें अपना बनाने की कोशिश कर रहे थे। पर उनकी यह जातिवादी कोशिश विफल हो गई। उनके साथ से गैर यादव पिछड़ा वर्ग भी निकल गया और अगड़े वर्गों के लोग भी उनके साथ नहीं हुए। इसका फल यह निकला की चुनावों में उनका दल हारने लगे। एक बार तो वे खुछ मधेपुरा से अपना चुनाव हार गए। फिर पाटलीपुत्र से भी वे अपना चुनाव हारे। उनका सबसे बुरा दिन वह था जब उनकी पत्नी राबड़ी देवी 2013 के विधानसभा चुनावों में दोनों क्षेत्रों से भारी मतों से पराजित हो गई।

खुद अपने जनाधार को संकुचित कर राजनीति में अपने को कमजोर करने का जो काम लालू ने किया, उसका आज उन्हें खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। उनकी जाति की संख्या बिहार की आबादी का 12 फीसदी है, तो मुसलमानों की आबादी साढ़े 16 फीसदी। दोनों मिलाकर साढ़े 28 फीसदी होता है। उनका पूरा मत तो उन्हें मिलने से रहा, इसलिए उनके बूते वे कभी भी जीतने की उम्मीद नहीं पाल सकते। हां, उनकी सहायता से पटना के गांधी मैदान को लोगों से भर सकते हैं। गांधी मैदान के आसपास की सड़कों को भी लोगों से भर सकते हैं, लेकिन जब मतगणना केन्द्र पर मतों की गिनती होगी, तो इनके बूते वे अपने उम्मीदवारों को जीत नहीं दिला सकते।

दरअसल लालू यादव ने कमजोर वर्गों के पिछड़े वर्गों को नाराज करने की जो गलती की थी, उसे सुधारकर ही वे बिहार की राजनीति में फिर से वापसी की उम्मीद कर सकते हैं। आज वह वर्ग नीतीश कुमार से भी अपना मोह भंग होता देख रहा हैं, क्योंकि लालू यादव पर यदि अपनी जाति के लोगांे के ही सशक्तिकरण का आरोप लगता था, तो आज नीतीश कुमार पर भी वैसा ही आरोप लग रहा है और उन आरोपों में सच्चाई भी है। पर सवाल उठता है कि क्या लालू यादव ऐसा करने को तैयार हैं? यदि इसका जवाब नहीं में है, तो फिर बिहार की सत्ता में दुबारा आना उनके लिए असंभव होगा। इसका एक कारण यह भी है कि भाजपा ने सुशील कुमार मोदी के रूप में पिछड़े वर्गो का अपना एक नेता वहां तैयार कर रखा है, जो एक साथ ही लालू और नीतीश का विकल्प होने के लिए तैयार बैठे हैं। वे पिछड़े वर्गो के कमजोर तबको से आते हैं और इन तबकों की संख्या ही सबसे ज्यादा है। यदि आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा ने नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट कर दिया, तो फिर भाजपा के दोनों मोदी नीतीश और लालू पर भारी पड़ने लगेंगे। लालू अपने राजनैतिक अस्तित्व के लिए आज वहां मुस्लिम मतदाताओं पर निर्भर हैं। यदि नीतीश ने कांग्रेस के साथ गठबंधन कर लिया, तो रामविलास भी लालू को छोड़कर उनके साथ हो जाएंगे और फिर मुस्लिम मतों को दोतरफा विभाजन हो जाएगा। इस तरह लालू का जनाधार और भी सिकुड़ जाएगा।

यही कारण है कि लालू द्वारा आयोजित की गई यह बड़ी रैली बिहार में उनकी सत्ता की वापसी का संकेत नहीं माना जा सकता। सत्ता में वे वापस तभी आ सकते हैं, जब उनका खोया हुआ पिछड़ा आधार फिर वापस मिले।(संवाद)