लालकृष्ण आडवाणी के मामले को हम याद करें। 1998 में वे केन्द्र में गृहमंत्री बने थे। उस समय अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार थी। बाद मे लालकृष्ण आडवाणी उपप्रधानमंत्री भी बनाए गए थे। सीबीआई पहले गृहमंत्रालय के अधीन हुआ करता था, पर बाद में यह प्रधानमंत्री कार्यालय के अधीन हो गया था। लालकृष्ण आडवाणी गृहमंत्री के अपने कार्यकाल में चाहते थे कि सीबीआई फिर से गृहमंत्रालय के अधीन आ जाय, ताकि वे उसका बाॅस बन सकें। लेकिन अटलबिहारी वाजपेयी भी इतने होशियार थे कि वे इस एजेंसी को अपने हाथों से किसी और के हाथ में नहीं जाने देना चाहते थे। लिहाजा, लालकृष्ण आडवाणी की इच्छा पूरी नहीं हो सकी और सीबीआई प्रधानमंत्री के अधीन ही बनी रही।
सवाल उठता है कि सीबीआई को दोनों अपने अधीन ही क्यों रखना चाहते थे? इसका कारण यह है कि इस एजेंसी के द्वारा राजनेता अपने विरोधी राजनीतिज्ञों पर लगाम लगाते हैं। वे दूसरी पार्टी के अपने विरोधियों की ही नहीं, बल्कि अपनी पार्टी के अपने विरोधियों पर ही इसके द्वारा नियंत्रित करते हैं। सच तो यह है कि कोई भी प्रधानमंत्री यह नहीं चाहेगा कि उसका कोई प्रतिद्वंद्वी राजनीतिज्ञ या मंत्री इस एजेंसी पर नियंत्रण रखे।
पीवी नरसिंहराव ने अपने प्रधानमंत्रित्व काल में सीबीआई का इस्तेमाल पार्टी के अंदर के अपने विरोधियों के खिलाफ किया था। ऐसा उन्होंने हवाला केस में किया था। उस केस के बाद से ही सुप्रीम कोर्ट के जज कहते रहे हैं कि सीबीआई को क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए। हवाला केस के कारण ही केन्द्रीय सतर्कता आयोग को नई जिम्मेदारी मिली, जिसे तहत उसे सीबीआई के मालिक के रूप में देखा जाने लगा था। तब लगने लगा था कि अब भ्रष्टाचार को एक बड़ा झटका लगने वाला है और सीबीआई वास्तव में राजनैतिक नियंत्रण से निकल चुकी है। लेकिन वैसा कुछ हो नहीं सका। अभी भी सीबीआई प्रभावी रूप से केन्द्र सरकार के राजनैतिक नियंत्रण में ही है।
इस बीच केन्द्र सरकार की कार्यकारी शक्तियों में न्यायपालिका का हस्तक्षेप लगातार बढ़ता जा रहा है। 1990 के दशक से कोई भी प्रधानमंत्री इतना मजबूत होकर नहीं उभरा है कि वह न्यायपालिका के दखल को रोक सके, क्योंकि किसी एक पार्टी की बहुमत वाली सरकार 1989 के बाद से अभी तक बनी ही नहीं है। और किसी भी प्रधानमंत्री और सरकार के पास इतनी ताकत ही नहीं है कि वह न्यायपालिका के दखल को रोक सके। न्यायिक दखल से स्थितियां और विकट हुई हैं। जनहित याचिकाएं सत्ता को प्रभावित करने के लिए न्यायालय में दायर की जाती हैं।
अब सुप्रीम कोर्ट के दबाव में आकर केन्द्र सरकार ने एक कानून बनाने की प्रक्रिया शुरू कर दी है, जिसके अंदर सीबीआई को आजादी दी जानी है। सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया था कि वह ऐसा करने के लिए एक कानून बनाए। इसके लिए कसरतंे जारी हैं। कुछ ऐसे कानूनी प्रावधान की कोशिश की जा रही है जिससे सीबीआई राजनैतिक नियंत्रण से मुक्त होकर काम कर सके। आजादी चाहे जो मिले, लेकिन सीबीआई अधिकारियों की पोस्टिंग, ट्रांस्फर और प्रोमोशन का जिम्मा केन्द्र सरकार का ही होगा। सीबीआई के काम काज के लिए सांसदों के सामने केन्द्र सरकार ही संसद में जिम्मेदार होगी। सुप्रीम कोर्ट का निर्देश चाहे जो भी हो नियम विनियम बनाने की अधिकार तो सरकार के पास ही होगा।
सीबीआई का मूल उस स्पेशल पुलिस इस्टैबलिसमेंट में है, जिसकी स्थापना 1941 में भारत सरकार द्वारा की गई थी। उसका उद्देश्य युद्ध और आपूर्ति से संबंधित विभाग में होने वाले भ्रष्टाचार की जांच करना था। सच तो यह है कि उसका गठन ही दूसरे महायुद्ध के कारण हुआ था। इस स्पेशल पुलिस इस्टैबलिसमेंट का मुख्य कार्यालय लाहौर में था। युद्ध के बाद भी यह महसूस किया गया कि केन्द्र सरकार के अपने विभागों में किए जा रहे भ्रष्टाचार की जांच के लिए एक केन्द्रीय जांच एजेंसी की जरूरत है। उसके बाद स्पेशल पुलिस इस्टैबलिसमेंट के अधिकार का दायरा बढ़ा दिया गया और इसके अंतर्गत केन्द्र सरकार के सारे विभाग आ गए। प्रथम उपप्रधानमंत्री सरदार बल्लभ भाई पटेल, जो उस समय गृहमंत्री भी थे, इस एजेंसी की मदद से पूर्ववर्ती प्रिंसली स्टेट में हो रहे भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने मे कुछ हद तक सफल रहे थे।
बाद में सीबीआई के काम काज का स्कोप बढ़ता गया। इसके द्वारा आम अपराधों और आतंकवादी घटनाओं की जांच भी होने लगी। इसके पास पर्याप्त संसाधन आ गए थे और यह अपहरण तक के मामलों की जांच करने लग गई। जब किसी प्रदेश में किसी घटना को लेकर मामला गर्म होता है, तो उसकी सीबीआई जांच की मांग तेज होने लगती है। इसके अतिरिक्त उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय भी कभी भी सीबीआई को किसी मामले विशेष जांच का निर्देश दे देता है। अब तो अदालतें कुछ जांच अपनी देखरेख मे भी करवाने लगी है।(संवाद)
सीबीआई को स्वायत्तता के पीछे
ब्यूरो हमेशा सरकार के अधीन ही रही है
हरिहर स्वरूप - 2013-05-20 15:02
क्या सीबीआइ्र को वास्तव में स्वतंत्र बनाया जा सकता है और इसे पूरी स्वायत्ता दी जा सकती है? शायद कभी नहीं, क्योंकि राजनीतिज्ञ इसका इस्तेमाल अपने प्रतिद्वंद्वियों से हिसाब चुकता करने के लिए करते रहे हैं और आगे भी करता रहना चाहेंगे। जब तक कोई राजनीतिज्ञ सत्ता में है, वह सीबीआई के इस्तेमाल के खिलाफ हंगामा करता है और जब वह खुद सत्ता में चला आता है, तो फिर वह खुशी से उसी एजेंसी का बॉस बनना चाहता है।