दूसरे कार्यकाल में केन्द्र सरकार के मुख्य आर्थिक मंत्रालयों का जिम्मा संभाल रहे मंत्री बुरी तरह विफल दिखाई दे रहे थे। वे सही ढंग से सरकार चलाता तक नहीं दिखाई पड़ रहे थे। इसके कारण अर्थव्यवस्था के विकास की दर लगातार गिरती रही और यह अब तो 5 फीसदी तक आ गई है। प्रधानमंत्री तथा उनके सरकार के अन्य लोगों ने देश की इस दशा के लिए विश्व आर्थिक संकट को जिम्मेदार बताया है और एंसा करते समय वह यह भूल गए हैं कि घरेलू अर्थव्यवस्था के सही प्रबंधन के लिए आवश्यक नीतियों का माहौल पैदा करने में वे विफल रहे हैं।
घरेलू मोर्चे पर हुई विफलता को बहुत बाद में स्वीकार किया गया। अंत में यह महसूस किया गया कि आधारभूत संरचना की कुछ मुख्य परियोजनाओं को समय पर पूरा नहीं किया जा सका और इसके लिए सरकार द्वारा सही वातावरण तैयार करने में की गई देरी जिम्मेदार थी। अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों द्वारा ने भारत की अर्थव्यवस्था की गई समीक्षा में इस पर विस्तार से चर्चा की है, लेकिन अपने देश के विद्वान इसे नजरअंदाज करते रहे।
मुद्रास्फीति के मामले को ही लें। सत्ता में दूसरी बार आने के साथ ही महंगाई बढ़ने लगी थी। महंगाई का स्तर लगातार ऊंचा बना रहा और तीन साल के बाद सरकार की नींद टूटी। उसके पहले वह इंतजार कर रही थी कि महंगाई खुद ब खुद समाप्त हो जाए। तीन साल के बाद जब ऐसा होने लगा, तो सरकार इसका श्रेय लेने लगी, जबकि सच्चाई यह है कि महंगाई कम करने के लिए उसने कुछ किया ही नहीं। सच तो यह है कि आवश्यक उपभोग की अनेक वस्तुओं की कीमतें अभी भी लगातार बढ़ती जा रही हैं और करोड़ों लोग इस महंगाई के शिकार हो रहे हैं।
थोक मूल्य सूचकांकों के आधार पर तैयार मुद्रास्फीति की दर भले ही 9 फीसदी से घटकर 5 फीसदी पर आ गई हो और इसके कारण मुद्रा नीति को ढीला करने का बहाना मिल गया हो, लेकिन सच्चाई यह भी है कि खुदरा मूल्य सूचकांकों के आधार पर तैयार मुद्रास्फीति की दर अभी भी दहाई अंकों में है। सरकार गर्व करती है कि साल दर साल अनाज का उत्पादन बढ़ता जा रहा है, लेकिन वह यह भूल जाती है कि इसके बावजूद अनाजों की कीमतें बाजार में लगातर बढ़ती जा रही हैं।
इसके अलावा उपभेक्ता के अनेक आवश्यक सामानों और उद्योगों के इनपुट की आपूर्ति में आई कमी पर भी ध्यान नहीं दिया गया। आर्थिक मोर्चे पर लिए जा रहे फैसलों मंे विलंब तो समस्या थी ही, एक के बाद एक सामने आ रहे घोटालों ने तो यूपीए 2 की छवि को ऐसा बिगाड़ दिया है कि वह शायद ही पहले जैसी हो सके। खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के ईमानदार होने की छवि तार तार हो गई है। उनकी ईमानदारी उपहास का विषय बन गई है।
भ्रष्टाचार के अधिकांश मामले कैग जैसे संवैधानिक संस्थाओं ने ही उजागर किए। उसके कारण सरकार की ऐसी स्थिति बन गई कि उसकी निर्णय लेने की शक्ति को ही लकवा मार गया। भ्रष्टाचार के मामलों का विरोध करते हुए विपक्षी दलों ने लंबे समय तक संसद का सदन ही नहीं चलने दिया। नौकरशाह भी इन मामलों के प्रकाश में आने के कारण सहम से गए और वे निर्णय लेने का काम ही स्थगित करने लगे। इसके कारण सरकार ही पंगु होती दिखाई देने लगी।
केन्द्र सरकार के आर्थिक सुधार के एजेंडे की एक लंबी सूची थी। उसे आगे बढ़ाया जाना था, पर सरकार भ्रष्टाचार के मामले में ही उलझ कर रह गई। भ्रष्टाचार के मामले की जांच किस तरह हो, इसकी मसले पर वह विपक्ष से लड़ती झगड़ती रही। उसके अपने घटक दल भी सुधार के अनेक मामलों के खिलाफ थे। सरकार उनको ही मनाने में लगी रही। सरकार के पास संसद में बहुमत ही नहीं है। किसी तरह वह बहुमत को बनाए रखने में ही उसकी शक्ति का एक बड़ा हिस्सा खर्च होने लगा। ऐसी हालत में उसके पास न तो आर्थिक सुधार कार्यक्रमों को आगे बढ़ाने की मोहलत थी और न ही शक्ति।
अब आगामी लोकसभा चुनाव सिर पर गया है। एक साल से भी कम का समय बचा है। क्या पता तय समय से पहले ही लोकसभा का चुनाव हो जाय। चुनाव समय पर हो या पहले- अब कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है, क्योंकि चुनाव की विवशता के कारण केन्द सरकार ऐसी नीति नहीं अपना सकती, जिसके कारण मतदाताओं में असंतोष पैदा होता हो। जाहिर है कांग्रेस के पास यूपीए 2 के कार्यकाल में उपलब्धि दिखाने के लिए शायद ही कुछ हो।(संवाद)
खराब रिकार्ड के साथ यूपीए मांगेगा जनादेश
चुनावी विवशताएं अब सुधार एजेंडे को बढ़ने नहीं देंगी
एस सेतुरमन - 2013-05-31 11:17
यूपीए सरकार के दूसरे कार्यकाल की उपलब्धियां पहले कार्यकाल की उपलब्धियों के आगे कहीं नहीं ठहरतीं। इसमें कोई शक नहीं है कि दूसरे कार्यकाल की शुरुआत जब यूपीए सरकार ने की थी, तो उस समय भारत भी विश्वव्यापी आर्थिक संकट के आगोश में आ गया था। इसके कारण दुनिया के अन्य देशों की तरह यह भी अपने राजकोषीय असंतुलन को संतुलित करने के लिए संघर्ष कर रहा था।