लोकसभा के बाद हुए विधानसभा चुनावों मंे तो नीतीश के दल और भाजपा गठबंधन ने तो वहां के विधानसभा क्षेत्रों में जबर्दस्त सफलता हासिल की थी। यदि उस सफलता को दुहराया जाता, तो नीतीश के उम्मीदवार पी के शाही को भी शानदार सफलता मिलनी चाहिए थी, पर उन्हें मिली एक करारी हार। मतगणना के मात्र तीन दौर की गिनती के बाद ही श्री शाही अपनी हार स्वीकार करते हुए मतगणना केन्द्र से चलते बने थे। यदि एक भाजपा नेता की मानी जाय, तो श्री शाही ने मतदान के पहले ही अपनी हार स्वीकार ली थी और उसके कारण अनेक मतदान केन्द्रों पर उनके दल के एजेंट तक नहीं पहुंच सके थे।

नीतीश का उम्मीदवार कोई साधारण उम्मीदवार नहीं था। अपने मंत्रिमंडल के एक कदावर सदस्य को उन्होंने वहां का उम्मीदवार बनाया था और जाति समीकरण का भी ध्यान रखा था। नीतीश को महाराजगंज के मुस्लिम मतदाताओं पर भी काफी भरोसा था और उन्हें लग रहा था कि नरेन्द्र मोदी की आलोचना करने के कारण उन्होंनंे उनका विश्वास जीत लिया है और वे भारी संख्या में उनके दल के उम्मीदवार को ही मत देंगे। यही कारण है कि वहां चुनाव प्रचार में वे खुद तो तीन दिनों तक डेरा डाले रहे, पर भाजपा के प्रदेश नेताओं को अपने उम्मीदवार के पक्ष में प्रचार के लिए नहीं बुलाया था। उन्हें पूरी उम्मीद थी कि उनका उम्मीदवार बिना भाजपा के प्रचार के ही जीत जाएगा और उसके बाद वे अपनी सहयोगी पार्टी पद नरेन्द्र मोदी को लोकसभा के चुनावी परिदृश्य से बाहर रखने के लिए दबाव बना सकेंगे। उनके द्वारा आमंत्रित नहीं किए जाने के बावजूद अश्विनी कुमार चैबे व कुछ अन्य प्रदेश भाजपा नेताओं ने श्री शाही के पक्ष मंे प्रचार किया, लेकिन सच यह भी है कि वे भाजपा के कार्यकत्र्ताओं में वह उत्साह नहीं भर सके, जिससे वे श्री शाही के लिए अपनी पूरी ऊर्जा लगा सकें।

भाजपा के कुछ प्रदेश नेता दावा कर रहे हैं कि उनकी पार्टी के कार्यकत्र्ताओं ने तो श्री शाही के लिए पूरी तरह काम किया, लेकिन खुद जद(यू) के कार्यकत्र्ताओं में ही जोश का अभाव था, पर सच्चाई यही है कि भाजपा के कार्यकत्र्ताओं ने उत्साह नहीं दिखाया और नीतीश के उम्मीदवार श्री शाही ने हार स्वीकार करने के बाद इस तथ्य को रेखांकित भी किया।

भाजपा के कार्यकत्र्ताओं ने जोश क्यों नहीं दिखाया, इसके बारे में किसी प्रकार के अनुमान की कोई जरूरत ही नहीं है, क्योंकि यह शीशे की तरह साफ है कि नीतीश कुमार द्वारा नरेन्द्र मोदी की की जा रही निंदा को पसंद नहीं कर रहे थे और महाराज गंज लोकसभा चुनाव मंे बिहार के मुख्यमंत्री को सबक सीखाना चाहते थे। उन्होंने उदासीन रहकर क्राॅसवोटिंग के द्वारा पी के शाही की शर्मनाक हार सुनिश्चित कर दी।

इस हार के बाद नीतीश कुमार को स्पष्ट हो गया होगा कि भारतीय जनता पार्टी से हटकर वे बिहार की राजनीति कर ही नहीं पाएंगे। बिहार की राजनीति में उनकी जो वर्तमान हैसियत है, वह भारतीय जनता पार्टी के कारण है। इससे अलग होने के बाद उनकी वही स्थिति हो सकती है, जो महाराज गंज में उनके उम्मीदवार पी के शाही की हुई, जो मतगणना शुरू होने के साथ ही अपनी हार स्वीकार कर चुके थे। महाराज गंज की वह स्थिति तो तब थी, जब भाजपा के साथ अभी भी नीतीश का औपचारिक संबंध विच्छेद नहीं हुआ है। यदि भाजपा का भी उम्मीदवार महाराज गंज में होता, तो क्या पता वहां मुख्य मुकाबला ही भाजपा और राजद के उम्मीदवारों के बीच होता और जद(यू) के उम्मीदवार को शायद सिर्फ अपनी जाति के मतदाताओं पर ही निर्भर रहने के लिए अभिशप्त हो जाना पड़ता।

सवाल उठता है कि नीतीश कुमार के पास नरेन्द्र मोदी को लेकर अब क्या क्या विकल्प बचे हैं? उन्होंने अपनी पूरी ताकत लगा दी कि भाजपा मोदी के अलावा किसी अन्य नेता को अपना अगला प्रधानमंत्री उम्मीदवार के रूप में पेश कर दे। भाजपा ने उनकी एक नहीं सुनी और अभी भी नरेन्द्र मोदी के भाजपा प्रधानमंत्री उम्मीदवार बनने का विकल्प खुला हुआ है। लालकृष्ण आडवाणी भी नीतीश की तरह ही मोदी के लिए समस्या खड़ी कर रहे हैं, पर उनका भी पासा एक के बाद एक उलटा पड़ता जा रहा है। पहले तो आडवाणी खुद नीतीश का इस्तेमाल करके ही मोदी के रास्ते में रोड़ा डाल रहे थे, लेकिन अब बिहार की राजनीति का हवाला देकर मोदी को आडवाणी नहीं रोक सकते, क्योंकि वहां भी नरेन्द्र मोदी ने अपनी लोकप्रियता का झंडा गाड़ दिया है और बिहार भाजपा यही चाहती है कि नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री उम्मीदवार के रूप में प्रोजेक्ट किया जाय और नीतीश कुमार का साथ छोड़ दिया जाय।

नीतीश कुमार के बाद आडवाणी ने नितिन गडकरी का इस्तेमाल करना चाहा, पर श्री गडकरी ने भी श्री आडवाणी के चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष बनने के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। उसके बाद मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान की महत्वाकांक्षा जगाकर आडवाणी ने मोदी को रोकना चाहा, लेकिन श्री चैहान ने भी यह मान लिया कि नरेन्द्र मोदी से वे जूनियर ही नहीं, बल्कि बहुत जूनियर हैं। गुजरात में हुए दो लोकसभा और चार विधानसभाओं के उपचुनाव में भाजपा को मिली शतप्रतिशत सफलता ने भी आडवाणी को काफी कमजोर कर दिया है। गौरतलब है कि इन सभी 6 सीटों पर कांग्रेस का कब्जा था और भाजपा ने ये उससे छीन ली। इस तरह मोदी ने यह साबित कर दिया कि यदि उन्हें नेतृत्व दिया जाय, तो गुजरात में शतप्रतिशत सफलता सुनिश्चित की जा सकती है।

आडवाणी द्वारा मोदी को नीचा दिखाने के ताजा प्रयासों के कारण भाजपा के वरिष्ठतम नेता की स्थिति पार्टी के अंदर भी कमजोर हो गई है। अब पार्टी के अनेक नेता दबे स्वर में उनका मजाक भी उड़ा रहे हैं। जाहिर है भाजपा के लिए अब मोदी को प्रधानमंत्री के प्रत्याशी बनने से रोक पाना लगभग असंभव हो गया है।

ऐसी स्थिति में नीतीश के पास दो ही विकल्प रह जाते हैं। पहला विकल्प है कि वे भाजपा से अलग होकर बिहार की राजनीति मंे अप्रासंगिक हो जाएं और दूसरा विकल्प है कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व का वह स्वीकार कर लें। दोनों विकल्प उनके लिए बहुत कठिन है। मोदी के विरोध में वे बहुत आगे बढ़ चुके हैं और यदि वे मोदी को स्वकार कर भी लें, तो शायद मोदी उन्हें स्वीकार नहीं कर पाएं। (संवाद)