2009 के लोकसभा चुनाव में अरुण जेटली इस समिति के अध्यक्ष थे। उनकी पार्टी के नेताओं क अलावा शायद ही इस तथ्य को कोई जानता होगा। उसके पहले 2004 के लोकसभा चुनाव के समय प्रमोद महाजन इस पद पर थे। प्रमोद महाजन को तो पूरा देश जानता था, लेकिन उनकी पहचान वाजपेयी सरकार के एक मंत्री के रूप में थी, न कि भाजपा के चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष के रूप में।

पर आज नरेन्द्र मोदी की पहचान गुजरात के मुख्यमंत्री के अलावा भाजपा के चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष के रूप मंे हो गई है, तो इसका कारण है। और वह यह है कि पार्टी के वरिष्ठतम नेता लालकृष्ण आडवाणी ने इसका अंत अंत तक विरोध किया। श्री मोदी को इस पद पर बैठने से रोकने के लिए उन्होंने गोवा की बैठक तक का बहिष्कार कर डाला। कहा गया कि उनका स्वास्थ्य खराब था। खराब रहा भी होगा, लेकिन उन्होंने अपनी अनुपस्थिति के लिए अपनी खराब सेहत का हवाला बैठक के समाप्त होने के पहले कभी भी नहीं दिया। खराब तबीयत के बावजूद, वे पत्र लिखकर कार्यकारिणी में भेज सकते थे। विडियो कान्फ्रंेसिंग के द्वारा उसमें शिरकत कर सकते थे, लेकिन उन्होंनंे वैसा कुछ भी नहीं किया। उनकी कोशिश यही रही कि उनकी अनुपस्थिति का हवाला देते हुए बैठक में अभियान समिति के चेयरमैन की नियुक्ति का मामला टाल दिया जाय। पर वैसा हुआ नहीं। नरेन्द्र मोदी अंततः इस पद पर नियुक्त कर ही दिए गए।

चेयरमैन के पद पर श्री मोदी की नियुक्ति प्रधानमंत्री की उम्मीदवारी की ओर बढ़ा उनका एक पहला और बड़ा कदम है। यदि इस पद पर उनकी ताजपोशी बिना किसी विरोध के हो जाती, तो यह अलग मामला होता। तब फिर उन्हें प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी के लिए बाद में काफी जद्दोजहद करना होता। पर वह जद्दोजहद तो वे इस समिति के चेयरमैन के पद के लिए ही करते दिखाई दिए। लालकृष्ण आडवाणी के जिस विरोध का सामना उन्हें बाद में करना पड़ता, वे अब पहले ही कर चुके हैं। जाहिर है, जब उनका नाम भाजपा के प्रधानमंत्री के रूप में विचार के लिए लाया जाएगा, तो श्री आडवाणी उनका विरोध करने की स्थिति में ही नहीं रह पाएंगे।

नरेन्द्र मोदी ने जब 2011 में सद्भावना उपवास किया था, उस समय से ही वे लालकृष्ण आडवाणी के निशाने पर आ गए थे। उन्हें लगा था कि श्री मोदी प्रधानमंत्री की उम्मीदवारी पाने की तैयारी कर रहे हैं और अपनी कट्टर हिंदूवादी छवि को मिटाने की कोशिश कर रहे हैं। श्री आडवाणी ने खुद अपनी ऐसी छवि को समाप्त करने के लिए पाकिस्तान जाकर जिन्ना को सेकुलर होने का प्रमाणपत्र दे दिया था और बाबरी मस्जिद विघ्वंस के दिन को अपनी जिंदगी का सबसे उदास दिन कहा था। पर मोदी द्वारा अपनी छवि बदलना उनको रास नहीं आया। फिर उन्होंने नीतीश कुमार की सहायता से मोदी के उस दावे को कमजोर करने की रणनीति अपनाई। अपनी चेतना यात्रा के प्रस्थान बिंदु को गुजरात से बदलकर बिहार कर दिया और जब जब नीतीश कुमार की प्रशंसा करते रहे।

अब नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री उम्मीदवार के रूप में पेश किया जाना महज एक औपचारिकता रह गई है। यदि लोकसभा चुनाव अपने तय समय पर मई 2014 में हुए, तो दिसंबर महीने तक मोदी की प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित हो जाएगी। अक्टूबर में बिहार में भाजपा की हुंकार रैली होने वाली है। उस रैली में ही मोदी को प्रधानमंत्री उम्मीदवार के रूप में पेश कर दिए जाने की पूरी संभावना है, भले ही उस औपचारिक मुहर और बाद में लगे। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपने मोदी विरोध को उस हद तक ले गए हैं कि उससे वापस आना उनके लिए लगभग असंभव है। वे कह चुके हैं कि यदि भाजपा ने नरेन्द्र मोदी को अपना प्रधानमंत्री उम्मीदवार बनाया, तो वे राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन से अलग हो जाएंगे।

नीतीश की पार्टी तो नरेन्द्र मोदी को भाजपा की केन्द्रीय राजनीति में लाने के ही खिलाफ थी। बिहार के स्वास्थ्य मंत्री अश्विनी चैबे ने जब गुजरात में जाकर कहा था कि बिहार के लोग नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं, तो जनता दल(यू) के प्रवक्ताओं ने बहुत हंगामा मचाया था। वे पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व से मांग कर रहे थे कि श्री चैबे के उस बयान से पार्टी अपने आपको अलग करे। पर आज जब नरेन्द्र मोदी न केवल भाजपा की केन्द्रीय राजनीति में आ गए हैं, बल्कि खुद ही उसका केन्द्र भी बन गए हैं, तो जद(यू) कह रहा है कि यह उसका अंदरूनी मामला है। अभियान समिति का चेयरमैन होना किसी पार्टी का अंदरूनी मामला तभी हो सकता है, जब वह बिना किसी गठबंधन के चुनाव लड़े। जब चुनाव गठबंघन के साथ लड़ा जा रहा हो, तो सहयोगी पार्टियों के साथ तालमेल करके ही अभियान चलाता जाता है। सवाल उठता है कि बिना इस तालमेल के जद(यू) भाजपा के साथ गठबंधन में कैसे रहेगा?

जद(यू) के लिए भाजपा का साथ छोड़ना आत्मघाती कदम होगा, यह बात महाराजगंज लोकसभा में हुए उपचुनाव के नतीजों से साबित हो गई है। पहले जद(यू) गठबंधन छोड़ने की घमकी दिया करता था, अब तो भाजपा ही चाहती है कि वह उससे अलग हो जाय। नरेन्द्र मोदी को चेयरमैन बनाए जाने के बाद बिहार भाजपा के अध्यक्ष मंगल पांडे ने साफ साफ कह भी दिया है कि यदि जद(यू) उसका साथ छोड़ना चाहता है, तो छोड़ दे, पर उसकी पार्टी अपने हिसाब से चलेगी और नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में ही आगामी लोकसभा का चुनाव लड़ेगी। भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव राजीव प्रताप रूड़ी भी कह चुके हैं कि जद(यू) को भी अपनी जीत के लिए नरेन्द्र मोदी की जरूरत है। यानी भाजपा अब कभी इशारों में तो कभी स्पष्ट रूप से नीतीश को कह रही है कि वह भी नरेन्द्र मोदी का नेतृत्व स्वीकार करें अन्यथा अपना रास्ता अलग कर लें।

पर जद(यू) भाजपा को खुद छोड़ना ही नहीं चाहेगा। वह एक राज्य की क्षेत्रीय पार्टी है और भाजपा के साथ मिलकर ही चुनाव जीत सकती है। इसलिए मोदी को प्रधानमंत्री उम्मीदवार बनने के बाद भी वह एजेंडे के नाम पर गठबंधन मंे बना रहना चाहेगा और भाजपा की सहायता से 20 से ज्यादा लोकसभा सीटों पर जीत हासिल कर चुनाव के बाद फिर अपनी राह अलग करने की कोशिश करेगा। पर भाजपा शायद उसे इस तरह का मौका ही नहीं दे। इसलिए नीतीश कुमार को लोकसभा चुनाव के पहले ही अपने लिए अलग रास्ता चुनना पड़ेगा।(संवाद)