नरेन्द्र मोदी के बारे में कहा जाता है कि वे एक विभाजित करने वाली ताकत हैं। वे जहां भी जाते हैं, विभाजन पैदा करते हैं। उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती यही है कि वे विभाजन की ताकत न बनें, बल्कि वे एकीकरण की ताकत बनकर दिखाएं। उनकी सबसे पहली चुनौती तो यही है कि वे लाल पीले हो रहे लालकृष्ण आडवाणी को शांत करके दिखाएं। उन्हें अपने पक्ष में लाकर दुनिया को दिखाएं कि वे रूठे हुए को मना सकते हैं। फिलहाल आडवाणी ने अपना इस्तीफा वापस ले लिया है, लेकिन यदि वे पार्टी के अंदर अपने को अपमानित महसूस करते रहे, तो वे कभी भी पार्टी के लिए बड़े नुकसान का कारण बन सकते हैं।
उनके सामने दूसरी बाधा पार्टी के वे नेता पैदा कर रहे हैं, जो खुद भी प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा पाल रहे हैं। उन नेताओं में उमा भारती, यशवंत सिन्हा और जसवंत सिंह जैसे नेता हैं। इन तीनों ने भी गोवा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में हिस्सा नहीं लिया था। वे इस मौके की तलाश में हैं कि क्या उनमें से कोई कभी प्रधानमंत्री पद तक पहुंच सकते हैं। वे नरेन्द्र मोदी पर लगातार नजर बनाए रखेंगे। मोदी को कोशिश करनी होगी, वे इन नेताओं को भी अपने साथ लेकर चलें और उनका भी समर्थन हासिल करने की कोशिश करें। हालांकि मोदी के समर्थक दावा करते हैं कि इन नेताओं के समर्थन के बिना भी मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी चमत्कार करने की क्षमता रखती है। लेकिन ऐसा सोचना गलत है।
मोदी की तीसरी चुनौती राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के घटकों की तरफ से है। उन्हें राजग के सभी घटकों को अपने साथ लेकर चलना होगा। सबसे बड़ी चुनौती तो जनता दल (यू) को अपने साथ लेकर चलने की है, क्योंकि दल कह रहा है कि मोदी के मुद्दे पर वह राजग ही छोड़ देगा। राजग के चेयरमैन लालकृष्ण आडवाणी हैं और उनमें इतनी क्षमता है कि इसका इस्तेमाल कर वे नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के सपने को धराशाई कर दें। यही कारण है कि राजग को अपने अनुकूल रखने के लिए भी मोदी को आडवाणी को अपने अनुूकूल रखना होगा।
जद(यू) तो राजग से निकलता ही दिखाई दे रहा है। ऐसी हालत में नरेन्द्र मोदी की चैथी बड़ी चुनौती राजग में नई पार्टियों को लाने की है। फिलहाल उनकी राजनीति गुजरात तक ही सीमित है। प्रदेश के बाहर की पार्टियों के नेताओं से बातचीत कर उन्हें अपने साथ लाना उनके लिए बड़ी चुनौती होगी। फिलहाल तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता से उनकी नजदीकी दिखाई पड़ रही है, पर ममता बनर्जी, नवीन पटनायक और अन्य क्षेत्रीय नेताओं को भी अपने साथ लाना मोदी के लिए निश्चय ही बहुत मुश्किलों भरा काम होगा। उनकी पार्टी को अपने बूते बहुमत मिलता दिखाई नहीं पड़ता। उनकी पार्टी के नेताओं की समझ है कि यदि भाजपा को 180 सीटें भी मिल गईं, तो अन्य पार्टियां सत्ता पाने के लिए उनके साथ आ जुड़ेंगी और बहुमत का समर्थन हासिल हो जाएगा। लेकिन सोचने और होने में बहुत फर्क होता है।
मोदी की पांचवी चुनौती सही रणनीति का निर्माण होगा। आखिर पार्टी की चुनावी रणनीति क्या होगी? विचित्र बात तो यह है कि भाजपा के कार्यकत्र्ता मोदी को इसलिए पसंद करते क्योंकि उनकी छवि एक कट्टर हिंदुत्ववादी नेता की है, पर वे खुद उस छवि को ज्यादा महत्व नहीं देना चाहते। वे विकास के नारे पर लोगों को अपने साथ जोड़ना चाहते हैं। वे विकास और हिंदुत्व की मिली जुली रणनीति अपना सकते हैं। सोशल मीडिया का इस्तेमाल करके वे शिक्षित वर्ग तक तो पहंुच चुके हैं, लेकिन क्या वे अशिक्षित लोगों तक भी पहंुच पाएंगे?
सबसे आश्चर्य की बात यह है कि जिस मीडिया ने गोघरा बाद के दंगे के लिए नरेन्द्र मोदी की खूब आलोचना की, वही मीडिया अब उन्हें एक बड़े राष्ट्रीय नेता के रूप में प्रोजेक्ट करने में लगा हुआ है। वे मीडिया की सहायता से ही अपने आपको प्रोजेक्ट करने मे ंलगे हुए हैं। पर क्या वे कहीं उसी रास्ते पर तो नहीं चल रहे हैं, जिस रास्ते पर कभी उनके अपनी पार्टी के नेता प्रमोद महाजन 2004 के लोकसभा चुनाव के दौरान चल रहे थे?(संवाद)
नरेन्द्र मोदी की बाधा दौड़ तो अब शुरू हुई है
उन्हें दिखाना होगा कि उनमें लोगों को एक करने की क्षमता है
कल्याणी शंकर - 2013-06-14 11:33
गुजरात के मुख्यमंत्री ने प्रधानमंत्री बनने की दिशा में अभी पहली बाधा पार की है। वह बाधा उन्होंने अपनी पार्टी के चुनाव अभियान समिति का प्रमुख बनकर पार की है। अभी तक तो सबकुछ श्री मोदी के अनुरूप ही हुआ है। विरोधों को सामना करने के बाद भी वे अभियान समिति के अध्यक्ष बन गए। लेकिन आडवाणी द्वारा पार्टी की तीन समितियों से इस्तीफा देने के बाद उनकी स्थिति थोड़ी गंभीर लगनी लगी थी। फिलहाल वह संकट भी टल गया है। इसके बावजूद यही कहा जा सकता है कि उन्हें आने वाले समय में अन्य अनेक बाधाओं को पार करना है। सच कहा जाय, तो उनकी बाधा दौड़ अभी शुरू ही हुई है।