सच कहा जाय, तो लालू का साथ छोड़ने के बाद उनकी राजनैतिक मौत हो गई थी और भारतीय जनता पार्टी ने उनका बिहार और देश की राजनीति में एक नया जन्म दिया था। 1995 के विधानसभा चुनाव में उनकी समता पार्टी को मात्र 7 सीटें मिली थीं, जबकि भाजपा के पास 17 सीटें थीं। यदि 1996 के लोकसभा चुनाव में नीतीश को भाजपा का समर्थन नहीं मिलता, तो नीतीश की राजनीति आगे बढ़ ही नहीं पाती। जाहिर हे, 1996 के लोकसभा चुनाव में उन्हें एक नई जिंदगी मिली और वह जिंदगी भारतीय जनता पार्टी ने उन्हें दी थी। उसके बाद सारे चुनाव नीतीश भाजपा के सहयोग से ही लड़ते और उसके कारण ही बिहार के मुख्यमंत्री भी बन पाए। कहने को तो कहा जा सकता है कि भाजपा को भी नीतीश के साथ का फायदा हुआ, लेकिन उसके पास नीतीश के अलावा अन्य विकल्प भी थे। भाजपा ने नीतीश को लालू विरोधी हो रहे पिछड़े वर्गों को तोड़ने के लिए अपनाया था। यदि वह चाहती तो खुद किसी पिछड़े वर्ग के नेता को बढ़ाकर वह काम कर सकती थी, जैसा कि वह उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह को बढ़ाकर उस समय कर रही थी। लेकिन भाजपा के नेता उत्तर प्रदेश की तरह बिहार में भी एक कल्याण सिंह पैदा नहीं करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने अपनी पार्टी के अंदर किसी पिछड़े वर्ग के नेता को नहीं बढ़ाया, बल्कि नीतीश को बढ़ाया। 1995 के विधानसभा चुनाव के बाद यदि बिहार में विपक्ष के नेता के रूप में सुशील कुमार मोदी को बैठाया जाता, तो वे भी लालू से नाराज हो रहे पिछड़े वर्गों को भाजपा की ओर खींच सकते थे। पर सुशील मोदी की जगह यशवंत सिन्हा को बिहार विधानसभा में विपक्ष का नेता बना दिया गया। जब यशवंत सिन्हा केन्द्र में मंत्री बने, उसके बाद ही सुशील कुमार मोदी को वहां भाजपा ने अपने विधायक दल का नेता बनाया, पर तबतक नीतीश कुमार को अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी गोद ले चुके थे और बिहार की राजनीति में सुशील कुमार मोदी को नीतीश कुमार के सहयोगी की भूमिका में खड़ा कर दिया गया।
अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी का पूरा लाड़ प्यार नीतीश कुमार को मिला। 2000 के विधानसभा चुनाव के बाद बिहार में त्रिशंकु विधानसभा अस्तित्व में आ गई थी। भाजपा के विधायकों की संख्या में उसमें 67 थी और नीतीश कुमार की समता पार्टी के विधायकों की संख्या मात्र 36। कायदे से तो भाजपा विधायक दल के नेता सुशील कुमार मोदी को मुख्यमंत्री बनना चाहिए था, पर अटल आडवाणी के भाजपा नेतृत्व ने नीतीश को मुख्यमंत्री बनवा दिया। वे अपनी सरकार को बचा नहीं सके। फिर उन्हें तत्काल केन्द्र सरकार में ले लिया गया। अटल आडवाणी के अतिशय दुलार ने नीतीश कुमार को जिद्दी बना डाला।
जिद्दी होने के साथ साथ वे महत्वकांक्षी भी हो गए। उन्हें लगा कि उनकी पार्टी में कम विधायक होने के बाद भी यदि वे 2000 में बिहार के मुख्यमंत्री बन गए, तो भाजपा से कम सीटें पाकर भी वे 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद देश के प्रधानमंत्री क्यों नहीं बन सकते। इसलिए वे इस तरह की महत्वाकांक्षा पालते रहे और जब उन्हें लगा कि उनकी महत्वाकाक्षा को नरेन्द्र मोदी से चुनौती मिल रही है, तो वे मोदी के खिलाफ ही आग उगलने लगे और हर संभव कोशिश करने लगे कि भाजपा के अंदर नरेन्द्र मोदी का उभार नहीं हो। लेकिन नीतीश का दुर्भाग्य था कि भाजपा के अंदर उनकी जिद को पूरा करने वाले दोनों नेता अब उनके काम नहीं आ रहे थे। अटल बिहारी वाजपेयी अपने खराब स्वास्थ्य के कारण राजनीति से बाहर हो चुके थे और लालकृष्ण आडवाणी खुद पार्टी के अंदर कमजोर हो गए थे। इतना ही नहीं खुद आडवाणी भी प्रधानमंत्री बनने की अपनी इच्छा को त्याग नहीं सके थे। इसलिए आडवाणी नीतीश का पूरा साथ तो नहीं दे सकते थे, लेकिन वे नीतीश का अपने हित में इस्तेमाल करने लगे। इस तरह से नीतीश और आडवाणी के बीच में एक समझ बन गई और दोनों मिलकर नरेन्द्र मोदी को कमजोर करने लगे।
पर नरेन्द्र मोदी का विरोध नीतीश कुमार ने जरूरत से ज्यादा ही कर दिया। अबतक तो यह स्पष्ट हो गया है कि गुजरात के दंगों के बाद भी नीतीश नरेन्द्र कुमार मोदी के प्रशंसक थे और उन दंगों को ज्यादा अहमियत नहीं देना चाहते थे, पर वे एकाएक गुजरात दंगों की टीस उनमें उभरने लगी। वे उसे आधार बनाकर मोदी का विरोध करने लगे। वे भूल गए कि 2003 में उन्होंने खुद नरेन्द्र मोदी को देश की राजनीति में आने की सलाह दी थी। वे यह भी भूल गए कि उन्होंने 2005 के चुनाव में लालू जब गुजरात दंगों को चुनावी मुद्दा बना रहे थे, तो कहा था कि वह अब चुनावी मुद्दा बन ही नहीं सकता है, क्योंकि काठ की हांड़ी दो बार चूल्हे पर नहीं चढ़ती।
नीतीश को यह पता है कि भाजपा ने उन्हें क्यों बिहार की राजनीति में 1996 में एक नई जिंदगी दी थी। उन्हें यह भी पता है कि बिना भाजपा के उनका राजनैतिक भविष्य काला हो सकता है। भाजपा से अलग होते समय उन्होंने यह कहा कि अंजाम चाहे जो हो, वे उसका साथ छोड़ रहे हैं। यानी नीतीश जी को अंजाम का पता है। फिर भी यदि उन्होंने भाजपा का साथ छोड़ा तो इसका कोई ठोस कारण होना चाहिए। गुजरात दगा और नरेन्द्र मोदी तो इसका कारण हो ही नहीं सकता। लोग कह रहे हैं कि मुस्लिम वोट पाना इसका कारण है। यह एक छोटा कारण हो सकता है, क्योंकि उन्हें पता है कि मुसलमाना बिहार मे ंलालू से जुड़े हुए हैं और ज्यादा से ज्यादा मुसलमानों के एक छोटे हिस्से को ही वे अपनी ओर खींच सकते है और उस हिस्से से उनको जीत नहीं मिल सकती। मुस्लिम मतों के छलावे में आकर रामविलास पासवान की राजनीति किस कदर चैपट हुई है, इसे भी नीतीश देख रहे हैं। फिर भी उन्होंने भाजपा छोड़ा, तो इसका कारण यह है कि उन्हें डर था कि लोकसभा चुनाव के ठीक पहले भाजपा उनको छोड़ देगी, क्योंकि नरेन्द्र मोदी को अपना नेता बनाकर चुनाव लड़ रही भाजपा को बिहार के पिछड़े वर्गो के वोटों के एक बड़े हिस्से को अपने साथ करने के लिए नीतीश की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। खुद ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतने के लिए बेकरार भाजपा नीतीश की पार्टी को 25 सीटें देने के लिए तैयार नहीं होती। इस तरह का संदेश भाजपा के अंदर से नीतीश कुमार को मिल गया था। और भाजपा उन्हें अपने लिए सही मौका देकर गठबंघन से बाहर करती, उसके पहले ही नीतीश ने अपना सही समय देखकर अपने को गठबंधन से बाहर कर लिया है। (संवाद)
यदि नीतीश नहीं छोड़ते, तो भाजपा उन्हें छोड़ देती
जद(यू) के दिन राजग में लद चुके थे
उपेन्द्र प्रसाद - 2013-06-17 09:51
बिहार की जातिवादी राजनीति को जो समझते हैं, उन्हें इस बात पर आश्चर्य हो रहा है कि नीतीश ने भाजपा का साथ छोड़ दिया। इसका कारण यह है कि लालू के जनता दल से 1994 में निकलने के बाद नीतीश ने एक भी चुनाव भाजपा के समर्थन के बिना नहीं जीता है।