गलती चाहे संस्थान की हो या फिर व्यक्तिगत कर्मचारी की उसकी गलतियों की सजा उसे अवश्य मिलनी चाहिए। भारतीय संविधान की धारा 300 का कड़ाई से लागू होना ही ऐसे काहिल कर्मचारियों-अधिकारियों से निपटने का उचित तरीका हो सकता है। टोर्ट कानून के रूप में जाने जाना वाला यह कानून उन कर्मचारियों व अधिकारियों का उचित उपचार करेगा जो जमीनी स्तर पर गलत कार्य करते हैं, संविदात्मक दायित्वों का निर्वहन नहीं करते, गलत कार्य करते हैं जो जानबूझकर या संयोगवश भी हो सकता है, के लिए सख्त कानून लागू करना जरूरी है। अभी तक कोई भी सरकारी अधिकारी या इंजीनियर, डाक्टर गलत कार्य करते हैं तो उसके लिए उसे दंडित करने का प्रावधान नहीं है। इसे संयोगवश हुई दुर्घटना मानकर छोड़ दिया जाता है।

जब हम कानून की किताबों में लिखी इबारतों की बात करते हैं तो वहां उन गैरजिम्मेदार अधिकारियों-कर्मचारियों के लिए ऐसे छिद्र छोड़े गए हैं जिससे वे जानबूझकर गलतियां करके भी आसानी से बच निकलते हैं। सरकार मुकदमेबाजी के डर से उनके खिलाफ कार्रवाई करने से बचती है। जैसा कि हमारे संविधान की प्रस्तावना कहता है .....हम भारत के लोग.... जिसमें हमारे मौलिक अधिकारों की रक्षा का वचन दिया गया है। इसी की आड़ में जघन्य कार्यों को अंजाम देकर भी सरकारी अधिकारी-कर्मचारी बच निकलते हैं। ..... हम भारत के लोग .... प्रस्तावना परम सत्ता का मालिक है। भारतीय गणतंत्र के लिए संविधान में इस तरह की व्यवस्था ही कार्रवाई कानूनों के विपरीत बैठती हैं। हमारे संविधान में यह व्यवस्था जिसमें ऐसे अपराधियों के लिए सुरक्षा के प्रबंध भी हैं, के कारण देशवासियों के मौलिक अधिकारों का हनन हो रहा है। इस तरह के बचाव वाले कानूनों के कारण देश की व्यवस्था के संचालकों की नैतिकता और निष्पक्षता को प्रभावित करता है।

सरकारी कर्मचारियों के पूर्वाग्रह, व्यवस्था का घमंड, आम जन के प्रति असंवेदनशीलता, सत्ता के संभाव्य व्यायाम, जाति के प्रति आग्रह, संकीर्ण मानसिकता, सांप्रदायिकता की भावना, पाशविकता सा व्यवहार, दमनकारी व क्रूर मानसिकता आदि दुर्गुणों से भरे सरकारी कर्मचारियों व पुलिस तथा सुरक्षा बलों के व्यवहार पर आम भारतीय के मन में लोकतंत्र के प्रति कितनी श्रद्धा है। इसकी कल्पना की जा सकती है। ऐसे ही कर्मचारी और अधिकारियों के कारण लोकतंत्र की गरिमा को भी ठेस लग रही है। सरकार द्वारा अधिनियमित कुछ अधिनियम की बात करें तो यह मानवाधिकार की दृष्टि से कतई सुटेबल नहीं है। जिसमें सेक्शन 84 का सूचना तकनीकी अधिनियम, 2000, सेक्शन 37 का मादक पदार्थ और सौंदर्य प्रसाधन अधिनियम, 1940, सेक्शन 88 का चिट फंड अधिनियम 1982, सेक्शन 22 का बीमा अधिनियम 1999, सेक्शन 88 का नारकोटिक्स ड्रग्स एवं मादक द्रव्य अधिनियम 1985, सेक्शन 18 का राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, 1980, सेक्शन 38 का मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993, टेलीग्राफ अधिनियम 1885, भारतीय डाक अधिनियम 1898 आदि कुछ ऐसे उदाहरण हैं जिसके लागू होने के बाद संविधान की मूल भावना का ही उल्लंघन होता है। इन अधिनियमों के कारण आम आदमी के मौलिक अधिकारों के साथ उसकी निजी स्वतंत्रता का भी हनन होता है। इस तरह के सुरक्षात्मक कानूनी धाराएं अंग्रेजों द्वारा अपने साम्राज्य की रक्षा के लिए लागू की गई थीं लेकिन अब जब हम 21वीं सदी में जी रहे हैं तो आखिर उस लोकतंत्र की परिभाषा का कहां सम्मान मिल पा रहा है। जनता द्वारा, जनता पर, जनता का शासन का जुमला कहां तक फिट बैठता है। #