कांग्रेस गठबंधन की राजनीति की पक्षधर नहीं रही है, लेकिन इसे भी हकीकत को स्वीकार करना पड़ा है और आज वह यूपीए नाम के एक गठबंधन का नेतृत्व कर रही है, जिसमें फिलहाल 8 दल शामिल हैं। वे हैं- कांग्रेस, एनसीपी, नेशनल कान्फ्रेंस, राष्ट्रीय लोकदल, इंडियन यूनियम मुस्लिम लीग, केरल कांग्रेस (मणि), सिक्किम डेमाक्रेटिक फ्रंट) और आॅल इंडिया डेमोक्रेटिक फ्रंट। पिछले 5 साल में इसने आधे दर्जन से ज्यादा सहयोगियों से अपना हाथ भी धोया है। डीएमके और टीएमसी तो हाल ही में इससे बाहर निकले हैं।
कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी गठबंधन राजनीति के पक्ष में नहीं थे। पिछले लोकसभा चुनाव में बिहार और उत्तर प्रदेश में उन्होंने पार्टी को अकेले मैदान में उतारने का फैसला किया था। उत्तर प्रदेश की सफलता से उत्साहित होकर वे देश भर में कांग्रेस को मजबूत बनाने के लिए इसके साथ युवाओं के जोड़ने के अभियान में लग गए थे। पर इस अभियान से कोई सफनता नहीं मिली। बाद के चुनावों से पेता चला कि उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में पार्टी अपने बूते कुछ नहीं कर सकती। इसलिए अब राहुल भी गठबंधन राजनीति की विवशता को स्वीकार कर चुके हैं। कांग्रेस अब उनके नेतृत्व में यूपीए को और भी विस्तार देने की रणनीति बनाने में जुटी हुई है। एके अंटोनी की अध्यक्षता मे एक उपसमिति का गठन किया गया है, कजसका काम यूपीए के लिए नये घटक की तलाश करना है।
कांग्रेस आंध्र प्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेश और पूर्वोत्तर के कुछ अन्य राज्यों में अपने सहयोगियों की तलाश कर रही है।
पूर्वी भारत में कांग्रेस चाहती है कि कुछ राज्य इसके कब्जे में आ जाएं। फिलहाल इस समय देश भर मे ंऐसे 14 प्रदेश हैं, जहां कांग्रेस अकेली या अपने सहयोगियों के साथ शासन कर रही है। कांग्रेस झारखंड में भी झारखंड मुक्ति मोर्चा की सरकार बना रही है। वह सरकार में उसके साथ तो होगी ही, वहां की 14 लोकसभा सीटों में से अधिकांश पर वह झामुमो के समर्थन से चुनाव लड़ेगी।
बिहार में कांग्रेस जनता दल(यू) के साथ बेहतर संबंध बना रही है। वह राज्य को बेहतर वित्तीय पैकेज दे रही है। खुद प्रधानमंत्री ने नीतीश कुमार को सेकुलर होने का प्रमाण पत्र दे दिया है। विधानसभा में विश्वासमत पाने के दौरान कांग्रेस ने नीतीश सरकार के पक्ष में मतदान किया था। यदि जद(यू) उसका चुनाव पूर्व सहयोगी नहीं भी बना, तो चुनाव बाद सहयोगी के रूप में मोर्चे में उसके आने की संभावना बनी रहेगी। लालू यादव यूपीए सरकार का बिना शर्त समर्थन दे रहे हैं और वह आने वाले लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस के साथ गठबंधन करना चाहते हैं, पर कांग्रेस इसके लिए बहुत उत्साहित नहीं है। कांग्रेस रामविलास पासवान से तो गठबंधन करना चाहती है, लालू यादव को लेकर उसके मन में संदेह है।
उत्तर प्रदेश में सपा अथवा बसपा से चुनाव पूर्ण गठबंधन की कोई संभावना नहीं है, क्योंकि दोनों दल सभी सीटो पर चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे हैं। लेकिन चुनाव के बाद दोनो का समर्थन कांग्रेस उसी तरह ले सकती है, जिस तरह वह आज ले रही है।
पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस पहले कांग्रेस के साथ थी। चुनाव के पहले उसके साथ गठबंधन की इस समय तो कोई संभावना नहीं दिखाई दे रही है, पर चुनाव के बाद वह फिर कांग्रेस के साथ आ सकती है। असम में कांग्रेस और भी मजबूत होकर उभर रही है, क्योंकि वहां की मुख्य विपक्षी पार्टी असम गण परिषद अपनी समाप्ति की ओर बढ़ रही है।
उड़ीसा में कांग्रेस का नवीन पटनायक के बीजू जनता दल से सीधा मुकाबला है। श्री पटनायक के स्तर का कोई नेता आज कांग्रेस के पास नहीं है। फिर भी वहां कांग्रेस ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतने की कोशिश कर रही है।
आंध्र प्रदेश कांग्रेस के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है। पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को यहां से 42 में से 33 सीटों पर जीत मिली थी। आज कांग्रेस की स्थिति अच्छी नहीं है। तेलंगाना आंदोलन और जगनमोहन रेड्डी फैक्टर ने कांग्रेस की स्थिति डांवाडोल कर दी है। यदि तेलंगाना का गठन कर दिया जाता है, तो टीआरएस का कांग्रेस में विलय हो जाएगा और उस क्षेत्र की सभी लोकसभा सीटें कांग्रेस को मिल सकती हैं। उसी तरह जगनमोहन रेड्डी के साथ कांग्रेस का बेहतर संबंध चुनावी दृष्टि से कांग्रेस के लिए फायदेमंद हो सकता है। (संवाद)
गठबंधन की राजनीति पर बन रही है रणनीति
अपने खेमे को बढ़ाने पर जोर
कल्याणी शंकर - 2013-07-05 12:54
देश की राष्ट्रीय राजनीति में एक पार्टी के शासन का युग समाप्त हो गया है और गठबंधन की सरकार का जमाना चल रहा है। ऐसे माहौल में आगामी लोकसभा चुनाव के मद्दे नजर राजनैतिक पार्टियों के बीच मोर्चेबंदी का दौर चल रहा है। चुनाव के पहले मोर्चेबंदी की बात तो चल ही रही है, इसके साथ ही नजर चुनाव के बाद होने वाली मोर्चेबंदी पर भी टिकी हुई है।