वैसे इस विधेयक पर तो बहस विधानसभा में भी होनी चाहिए थी, पर विधानसभा ढंग से चली नहीं। या यों कहिए कि चलने नहीं दी गई। और हंगामे के बीच ही इस विवादास्पद विधेयक को विधानसभा से पारित करा दिया गया। यह 11 जुलाई की घटना है।
इस प्रस्तावित कानून का नाम है मध्यप्रदेश धर्म स्वातं़त्र्य (संशोधन) विधेयक। 45 साल पहले इससे संबंधित एक कानून बना था। उसी कानून को इस नये विधेयक द्वारा संशोधित करने का प्रयास हो रहा है। इस विधेयक के तहत एक धर्म से दूसरे धर्म में शामिल होने वाले लोगों के लिए कड़े दंड का प्रावधान किया गया है। इस विधेयक के तहत उस पुजारी अथवा धार्मिक नेता को भी सजा दी जाएगी, जो धर्मांतरण के काम में शामिल पाया जाएगा। यह सजा तभी होगी जब यह पाया जाएगा कि धर्मांतरण जोर जबर्दस्ती के द्वारा अथवा लोभ देकर कराया गया था। संशोधन करके इस कानून के तहत सजा की अवधि और दंड की रकम दोनों को बढ़ाया जा रहा है। सबसे आपत्तिजनक बात यह है कि धर्मांतरण के पहले जिला अधिकारी से इजाजत लेनी पड़ेगी।
मूल कानून 1968 में पारित कराया गया था। उस समय मध्यप्रदेश मंे एक संयुक्त विधायक दल की सरकार थी। उस समय कांग्रेस के कुछ दलबदलुओं ने जनसंघ और समाजवादी सदस्यों के साथ मिलकर मिलीजुली सरकार बनाई थी। उस समय नियोगी आयोग को आधार बनाकर वह कानून बनाया गया था।
नियोगी आयोग का गठन मध्यप्रदेश के गठन के पहले ही तत्कालीन मध्य प्रांत और बेरार के मुख्यमंत्री रवि शंकर शुक्ल ने किया था। उस आयोग को कहा गया था कि धर्मांतरण से संबंधित मसलों की वह जांच करे। उसकी रिपोर्ट आने के बाद मध्यप्रदेश का गठन 1956 में हुआ और उसके बाद कई सरकारें बनीं, पर किसी ने उस रिपोर्ट पर ध्यान नहीं दिया।
लेकिन संविद सरकार में शामिल जनसंघ के सदस्यों ने उस नियोगी आयोग को आधार बनाकर कानून बनाने की ठान ली। उस सरकार में वीरेन्द्र कुमार सखलेचा उपमुख्यमंत्री थे और गृहमंत्रालय भी उनके पास ही था। उनके प्रयासों से यह कानून 1968 में बन सका। उस समय कांग्रेस उस कानून का विरोध कर रही थी, लेकिन जब उस पर मतदान का समय आया, तो कांग्रेसी विधायकों ने मतदान में हिस्सा ही नहीं लिया। कांग्रेसी विधायकों ने विधानसभा में उस कानून का विरोध नहीं किया और सदन में उपस्थित रहकर उस कानून को बनने में सहायता ही कर दी।
उस कानून में स्पष्ट प्रावधान थे कि भय, लोभ अथवा जालसाजी के द्वारा यदि किसी का धर्म बदलवाया जाता है, तो ऐसा करने वालों को सजा मिलेगी और दंड भी उन्हें देना पड़ सकता है। लेकिन यह कानून सिर्फ कागजी कानून बनकर रह गया।
बाद में जब शिवराज सिंह चैहान की सरकार बनी, तो उन्हें 2006 में इस कानून का संशोधन करते हुए एक विधेयक विधानसभा से पास करा दिया। तब उस विधेयक का जमकर विरोध हुआ। ईसाई और बौद्ध संगठन उसका डटकर विरोध कर रहे थे। उन लोगों ने राज्यपाल से आग्रह किया कि वे उस विधेयक पर दस्तखत नहीं करें और विधानसभा को उसे वापस कर दें। राज्यपाल बलराम जाखर ने उस विधेयक को राष्ट्रपति के पास भेज दिया और उनकी राय मांगी। राष्ट्रपति ने सोलिसीटर जनरल के पास उस विधेयक को भेजा और उनसे इस पर कानूनी सलाह मांगी।
सोलिसीटर जनरल ने कानूनी सलाह देते हुए राष्ट्रपति को बताया कि उसके कुछ प्रावधान गलत हैं। उसके पांचवें सेक्शन के तीसरे सब सेक्शन में कहा गया था कि यदि धर्मांतरण का कोई विरोध कर रहा हो, तो उसे अंजाम देना गैर कानूनी है। भारत के महा न्यायवादी ने कहा कि यह प्रावधान गलत है, क्योंकि किसी और के द्वारा व्यक्त की गई आपत्ति को दरकिनार करने पर धर्मांतरण को भय या लोभ से कराया गया नहीं माना जा सकता है।
संशोधन के द्वारा यह प्रावधान किया गया था कि पुलिस अधीक्षक यदि पाते हैं कि धर्मांतरण का यदि किसी भी व्यक्ति ने उस समय विरोध किया था, तो उस धर्मांतरण के खिलाफ वे रिपोर्ट दे। जाहिर है, पुलिस अधीक्षक को अपने विवेक से जांच की इजाजत वह कानून देता ही नहीं है।
जाहिर है उस विधेयक पर दस्तखत नहीं किया गया और राज्यपाल ने उसे विधानसभा को वापस भेज दिया। अब वही विधेयक कुछ और कठोर संशोधनों के साथ पारित कर दिया गया है। अब यह भी बता दिया गया है कि जिलाधिकारी की पूर्व अनुमति के बिना धर्मांतरण हो ही नहीं सकता। अब अनेक संगठन राज्यपाल से अनुरोध कर रहे हैं कि वे इस विधेयक को अपनी सहमति नहीं दें। (संवाद)
मध्यप्रदेश में धर्मांतरण पर बहस
एक नया कानून बनने बस बनने ही वाला है
एल एस हरदेनिया - 2013-07-25 13:35
भोपालः मध्यप्रदेश में इस समय बहस का एक बहुत बड़ा मुद्दा धर्मांतरण से संबंधित एक विधेयक है, जिसे विधानसभा द्वारा पारित भी किया जा चुका है। उसे कानून बनने में मात्र राज्यपाल के एक दस्तखत की जरूरत है। फिलहाल उस दस्तखत का इंतजार किया जा रहा है और उस पर प्रदेश में एक तीखी बहस हो रही है।