पंचायत चुनावों की प्रक्रिया के एक महीने के दौरान बंगाल का ग्रामीण इलाका अराजकता का शिकार बना रहा। प्रशासन पूरी तरह से नदारद दिखाई दे रहा था। परिवहन व्यवस्था भी ठप पड़ गई थी, क्योंकि वाहनों को चुनाव के काम पर लगा दिया गया था। पुलिस व अन्य सरकारी कर्मचारी भी चुनाव काम पर लगा दिए गए थे और उनके द्वारा किया जाने वाला सामान्य काम काज भी ठप था।
पंचायत चुनाव को अराजक बनाने में राजनैतिक पार्टियों, चुनाव आयोग और न्यायपालिका ने भूमिका निभाई। पुलिस के अपने सामान्य काम से गायब रहने और प्रशासन के अनुपस्थित हो जाने के कारण राज्य भर में गोलीबारी, लूट, डकैती, आगजनी, अपहरण और बलात्कार की घटनाएं होती रहीं और उन पर किसी प्रकार का नियंत्रण करने वाला कोई कहीं दिखाई नहीं दे रहा था। प्रशासन के लोगों को तो निष्पक्ष और शांतिपूर्ण चुनाव को संभव बनाने में लगा दिया गया था। लेकिन चुनाव न तो शांतिपूर्ण हो सके और न ही निष्पक्ष रह सके। वे तो अबतक के सबसे ज्यादा हिंसक चुनाव थे, जिनमें अबतक की सबसे ज्यादा धांधलियां हुई।
राज्य निर्वाचन आयोग को असली चिंता राज्य सरकार के ऊपर अपनी वरिष्ठता सावित करनी थी। उसे यह दिखाना था कि चुनाव कराने के मामले में उसकी चलेगी न कि राज्य सरकार की। इसके लिए वह राज्य सरकार से लगातार लड़ता रहा और हाई कोर्ट व सुप्रीम कोर्ट में भी अपनी लड़ाई लड़ी। वहां से वह जीत भी गया, लेकिन जब चुनाव कराने की बारी आई, तो वह पराजित हो गया। निष्पक्ष और शांतिपूर्ण चुनाव सुनिश्चित करने में राज्य निर्वाचन आयोग बुरी तरह विफल रहा। इसका कारण यह है कि उसे प्रशासन से वांछित सहयोग नहीं मिल सका और सत्तारूढ़ पार्टी के गुंडों से वह निबटने में विफल रहा। जरूरत से ज्यादा सक्रिय न्यायपालिका की भी एक नहीं चली। उसने जो आदेश जारी किए वे जमीनी स्तर पर नहीं उतारे जा सके। अदालती आदेशों की अनदेखी करते हुए राजनैतिक पार्टियों के गुंडों ने लोगों को डराने का काम जारी रखा। बोगस मतदान और बूथ कैप्चरिंग का सिलसिला मतदान के सभी दौरों में जारी रहा और न तो न्यायपालिका कुछ कर पाई और न ही राज्य का निर्वाचन आयोग कुछ कर पाया।
मुसलमानों के रमजान महीने में चुनाव करवाने का सुप्रीम कोर्ट का दिया गया आदेश आश्चर्यजनक था। इसका फायदा ही लंपटों ने उठाया। इसके कारण गुंडे एक जिले से दूसरे जिलों का चक्कर लगाते रहे और मतदाताओ ंपर अत्याचार करते रहे। ऐसा करने में उन्हें प्रशासन की भी सहायता मिलती रही। अनेक बूथों पर तो आधी रात तक मतदान होते रहे। कहा गया कि मुसलमान रोजा तोड़ने के बाद ही मतदान करने घरों से निकले हैं।
केन्द्रीय अर्धसैनिक बलों की भी तैनाती की गई थी, लेकिन उनकी तैनाती का कोई असर नहीं हुआ। अपराधियों को उनकी उपस्थिति का कोई भय नहीं था। वे न तो मतदान एजेंटों को सुरक्षा दे सके और न ही मतदान अधिकारियों को। अर्धसैनिक बल के जवान गुंडों की फौज से डरे हुए थे और स्थानीय पुलिस से भी वे भय खाते दिखाई पड़ रहे थे। स्थानीय पुलिस ने उन्हें कह रखा था कि वे चुपचाप सबकुछ देखते रहें और सुरक्षा प्रबंधन का जिम्मा उनके ऊपर छोड़ दें। कुछ ही मामलों में अर्ध सैनिक बलों के जवानों ने आत्मरक्षा में गोलियां चलाईं। वह भी उन्हें इसलिए करना पड़ा, क्योंकि वे वहां की स्थानीय भाषा नहीं समझ पा रहे थे। इसके कारण अनेक स्थानों पर ओर भी मामला बिगड़ गया। फायरिंग करने वाले जवान भाषा ज्ञान की कमी के कारण स्थानीय गुंडो की कृपा पर निर्भर हो गए।
इसके लिए बाहर से बुलाए गए उन जवानों को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। वे उन लोगों के खिलाफ कर ही क्या सकते थे, जिनकी भाषा तक वे नहीं जानते थे। उन्हें यह भी पता नहीं होता था कि उनका सामने चीख रहे लोग क्या बोल रहे हैं। उन्हें यह भी नहीं पता था कि वे उन गुंडों से जो कुछ कह रहे हैं, वह उन्हें समझ में भी आ रहा है या नहीं। इसलिए बाहर से आए उन जवानों को यही लगा कि वे जल्द से जल्द अपना सामान बांध कर अपने बैरक में वापस चले जायं। उनमें से कई तो भीड़ की हिंसा का शिकार भी हो गए।
यह हिंसा हमें यह सोचने को मजबूर कर रही है कि क्या हमारे यहां लोकतंत्र सुरिक्षत है। तिल तिल कर लोकतंत्र की जिस तरह से बंगाल के पंचायत चुनावों में हत्या की गई है, वह हमारे लिए एक भयावह संकेत है। (संवाद)
लोकतंत्र की तिल तिल कर हत्या
पश्चिम बंगाल की पंचायत चुनाव की हिंसा
नन्तू बनर्जी - 2013-07-30 13:36
पंचायतों को भारत के जमीनी लोकतंत्र का प्रतीक कहा जाता है, लेकिन पश्चिम बंगाल के पंचायत चुनाव में इसमें अभूतपूर्व हिंसा हुई। देश के किसी भी राज्य के किसी भी पंचायत चुनाव में इतनी हिंसा अब तक नहीं हुई है। पश्चिम बंगाल के पंचायत चुनावों में हुई हिंसा में अब तक 30 लोग मारे जा चुके हैं। सैंकड़ों लोग घायल हुए हैं। हजारों लोग बेघर हो गए हैं। घायल लोगों में अनेक की हालत बहुत खराब है और इसलिए मरने वालों की संख्या 50 तक पहुंच सकती है।