आंध्र प्रदेश नाम का राज्य सबसे पहले 1953 में अस्तित्व में आया था। मद्रास प्रेसिडेंसी के एक हिस्से को बाहर करके इसका गठन किया गया था। उस समय उसकी राजधानी कुरनूल रखी गई थी। 1956 के राज्य पुनर्गठन अधिनियम के तहत हैदराबाद स्टेट और आंध्र प्रदेश को मिलाकर एक कर दिया गया। प्रदेश का नाम तो आंध्र प्रदेश ही रहा, पर इसकी राजधानी हैदराबाद को बना दिया गया। अब इस आंध्र प्रदेश को दो टुकड़ों में बांटकर एक टुकड़े का नाम तेलंगाना रखा जा रहा है। प्रदेश के शेष हिस्से को पहले की तरह ही आंध्र प्रदेश ही कहा जाएगा।

तेलंगाना का निर्माण एक ऐसा जुआ साबित हो सकता है, जिसके नतीजे खराब भी हो सकते हैं। यह एक अदूरदर्शितापूर्ण निर्णय साबित हो सकता है। अलग राज्य के गठन में कांग्रेस की यह मान्यता काम कर रही है कि उस आगामी लोकसभा चुनाव में होने वाले नुकसान की भरपाई अलग राज्य के निर्माण से कुछ हद तक हो जाएगी। इस समय कांग्रेस के पास प्रदेश की 42 लोकसभा सीटों में से 33 है। पिछले दिनों हुए उपचुनावों से पता चल रहा है कि कांग्रेस की हालत प्रदेश के सभी इलाकों में पतली है। तेलंगाना राज्य में लोकसभा की 17 सीटें होंगी। कांग्रेस को लगता है कि अलग राज्य के गठन के कारण उसे कम से कम वहां की 15 सीटों पर सफलता मिल जाएगी, क्योंकि अलग तेलंगाना राज्य के लिए आंदोलन कर रहे चन्द्रशेखर राव ने घोषणा की रखी है कि यदि अलग राज्य का निर्माण केन्द्र सरकार करती है, तो वे अपनी पार्टी का विलय कांग्रेस में कर देंगे।

लेकिन इस निर्णय के कारण कांग्रेस को शेष आंध्र प्रदेश की 25 लोकसभा सीटों पर भारी नुकसान होगा। शेष आंध्र प्रदेश की विधानसभा भी उसके हाथ से निकल जाएगी। इसलिए कांग्रेस के लिए यह नुकसान का सौदा भी साबित हो सकता है। इसके अलावा कांग्रेस के पास तेलंगाना क्षेत्र में अपना कोई बड़ा नेता भी नहीं है। इसलिए वह वहां चन्द्रशेखर राव और उनके परिवार पर आश्रित हो जाएगी।

तेलंगाना के निर्माण की घोषणा पर वहां खुशियां मनाई जा रही हैं, लेकिन इस निर्माण के साथ कांग्रेस, यूपीए सरकार, खुद तेलंगाना और शेष बचे आंध्र प्रदेश के सामने अनेक चुनौतियां आएंगी, जो राजनैतिक और आर्थिक होंगी।

तेलंगाना की घोषणा के बाद शेष आंध्र प्रदेश में इसकी भारी प्रतिक्रिया होगी। वहां का माहौल हिंसक हो सकता है। हिंसा की आशंका को देखते हुए केन्द्र सरकार ने वहां अद्र्धसैनिक बलों की भारी पैमाने पर तैनाती भी कर दी है। किसी को नहीं पता कि वहां होने वाला आंदोलन कौन सा रूप कब अख्तियार कर ले। निहित स्वार्थ वहां अपनी रोटी सेंकने की कोशिश करेंगे। राजधानी हैदराबाद आंध्र प्रदेश के पास नहीं होगा, इस डर से निवेशक तेलंगाना विरोधी आंदोलन का समर्थन करना भी शुरू कर सकते हैं। हिंसा के बाद वहां राष्ट्रपति शासन भी लगाना पड़ सकता है।

तेलंगाना राज्य के गठन के निर्णय का असर देश के अन्य भागों पर भी पड़ेगा। अन्य इलाकों में भी अलग राज्य के लिए मांग तेज हो जाएगी। आंध्र प्रदेश के अंदर ही रायलसीमा राज्य के लिए अभी से आवाज उठने लगी है। गोरखालैंड राज्य के लिए आंदोलन पहले से ही पश्चिम बंगाल में तेज हो रहा है। यह निर्णय आग में घी का काम करेगा। बोडोलैंड की मांग भी असम में तेज हो जाएगी। कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्य मुकुल वासनिक ने महाराष्ट्र को बांटकर अलग विदर्भ राज्य के गठन की मांग अभी से शुरू कर दी है। अजित सिंह पश्चिम उत्तर प्रदेश को अलग हर हरित प्रदेश की मांग फिर से जिंदा कर सकते हैं। बसपा प्रमुख मायावती उत्तर प्रदेश को 4 हिस्सों में बांटने की मांग करने भी लगी है। गुजरात में सौराष्ट्र और कच्छ राज्यों की मांग के लिए भी आंदोलन हो सकते हैं। लद्दाख के लिए भी इसी तरह के आंदोलन हो सकते हैं।

तेलंगाना के गठन के बाद वहां की माओवादी समस्या और भी गंभीर हो सकती है। उस इलाके में माओवादी पहले से ही मजबूत हैं। छोटे राज्य में उनका दबदबा और भी बढ़ जाएगी। उनकी वहां मजबूती देश के अन्य राज्यों के लिए भी नुकसानदेह हो सकती है, क्योंकि वह इलाका ही माओवादियों का सबसे बड़ा केन्द्र है। यदि माओवादी हिंसा छोड़कर वहां चुनाव लड़ते हैं, तो यह अच्छा भी हो सकता है। (संवाद)