1996 में आर्थिक सुधार कार्यक्रमों को उन्होंने जहां छोड़ा था, यदि वे वहीं से शुरू करते और बाजार को बढ़ावा देने वाली अपनी नीतियों को आगे बढ़ाते, तो देश की दशा आज जैसी नहीं होती। तब उन्हें यह कहने की जरूरत नहीं पड़ती कि देश के 1991 के आर्थिक संकट के दौर में जाने खतरे नहीं हैं।
इसके मनमोहन सिंह अपनी ईमानदारी के लिए जाने जाते थे, लेकिन आज उन पर कोई विश्वास करने को तैयार नहीं है। भ्रष्टाचार के आरोपों ने उनकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़े कर दिए हैं। वे आज आर्थिक और राजनैतिक शक्तियों के सामने लाचार दिखाई दे रहे हैं। देश की सीमा पर भी समस्या खड़ी है वहां भी वे लाचार ही दिखाई पड़ रहे हैं।
उनकी लाचारी की शुरुआत उसी दिन से होती है, जिस दिन 2004 में वे प्रधानमंत्री बने। उन्होंने एक बाद कहा था कि उनका प्रधानमंत्री बनना एक दुर्घटना थी, जिसकी उन्होंने उम्मीद नहीं की थी। वे राजनैतिक रूप से एक हल्के नेता रहे थे। प्रधानमंत्री बनने के बाद भी वे अपने अधिकार का पूरा उपयोग नहीं कर पाए। उन्हें अपने दक्षिणपंथी सुधारों के प्रति दृढ़ रहना चाहिए था, पर कांग्रेस के समाजवादियों के सामने वे झुके से दिखते रहे। उन कांग्रेसियों का नेतृत्व सोनिया गांधी कर रही थीं। इसके कारण उनका मनोबल और भी बढ़ा रहा।
यदि मनमोहन सिंह अपनी बात पर अड़ जाते, तब भी वे सुधार की दिशा में कुछ कर सकते थे। लेकिन वे वैसा नहीं कर सके। उन्हें यह बात समझ में नहीं आई कि जब एक बार प्रधानमंत्री के रूप में उनका शपथग्रहण हो गया है, तो उन्हें हटाना पार्टी के लिए भी आसान नहीं। उन्हें यह समझना चाहिए था कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी चाहकर भी उन्हें हटा नहीं सकती थी।
लेकिन उन्होने आसान रास्ता चुना। इसका एक कारण यह है कि वह स्वभाव से ही रिस्क नहीं लेना चाहने वाले नौकरशाही से राजनीति की दुनिया में आए थे। 1969 में वे विदेश व्यापार मंत्रालय के सलाहकार नियुक्त किए गए थे। उसके बाद स्रकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार नियुक्त किए गए। फिर भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर बने। बाद में योजना आयोग के उपाध्यक्ष भी बने। 1991 में वे भारत सरकार में वित्त मंत्री बनकर पूरी तरह राजनीति में आ चुके थे।
दिल्ली स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स के प्रोफेसर से भारत के प्रधानमंत्री बनने तक का उनका सफर शानदार रहा है, लेकिन फिर भी इतिहास में उन्हें सम्मान के साथ याद नहीं किया जाएगा। इसका कारण यह है कि आर्थिक सुधार कार्यक्रमों को आगे बढ़ाने का जो उनको सुनहरा मौका मिला था, उसे उन्हें बेकार में ही गंवा दिया। यदि वे इस मौके को नहीं गंवाते तो आगामी लोकसभा के चुनाव में भी उनकी पाटी्र का इसका लाभ मिलता।
2004 से 2008 तक सुधार कार्यक्रमों में अड़ंगा लगाने के लिए वामपंथी नेताओं को जिम्मेदार ठहराने का कोई मतलब नहीं है। इसका कारण यह है कि आर्थिक नीतियों और कार्यक्रमों को लागू करने का काम प्रधानमंत्री और उनकी सरकार का है, न कि सहयोगियों का। यदि उनको वैसा करने नहीं दिया जा रहा था, तो उन्हें अपने पद से इस्तीफे की ही पेशकश कर देनी चाहिए थी। दुर्भाग्यवश मनमोहन सिंह ने वैसा नहीं किया और पद पर बने रहना जरूरी समझा।
आश्चर्य की बात है कि उन्होंने अमेरिका के साथ परमाणु करार के मसले पर दृढ़ता दिखाई। हालांकि जब सोनिया गांधी ने हस्तक्षेप किया था, तो वे वहां भी पीछे हट गए थे और बहुत ही दार्शनिक अंदाज में कहा था कि बिना परमाणु करार के भी जीवन है। वह तो बाद में राहुल गांधी के समर्थन के कारण उन्होंने अपनी सरकार के अस्तित्व को ही दांव पर लगा दिया था। आर्थिक नीतियों के मसले पर भी, यदि वे चाहते तो ऐसा ही कर सकते थे। (संवाद)
मनमोहन ने बर्बाद किए 10 साल
राजनैतिक नपुंसकता का एक दशक
अमूल्य गांगुली - 2013-08-22 13:19
जब मनमोहन सिंह 15 अगस्त को लाल किले पर भाषण देने के लिए खड़े हुए थे, तो शायद उनके दिमाग में यह बात जरूर उनके आई होगी कि वह उस स्थान से अंतिम बार देश को संबोधित कर रहे हैं। शायद यह भी उनके दिमाग में आया होगा कि यदि उन्होंने पिछले 10 सालों में अपनी चाह के अनुरूप आर्थिक सुधार कार्यक्रमांे को आगे बढ़ाया होता तो आज देश में स्थिति कुछ और ही होती। अपने से अलग विचार रखने वाले पार्टी नेताओं के दबाव में आने का अफसोस भी उन्हें जरूर हुआ होगा।