राजनैतिक पार्टियां हमेशा की तरह जाति और संप्रदाय की रणनीति भी अपना सकती हैं, लेकिन वे जनता को प्रभावित करने वाली नीतियों पर ध्यान नहीं देते। भावनात्मक मसलों को भुनाना वे अच्छी तरह जानते हैं। आज बढ़ती महंगाई, मुद्रास्फीति, गिरती रुपया और धीमी आर्थिक विकास दर आम लोगों की जिंदगी को तबाह कर रही है, लेकिन इन मसलों पर उनका ध्यान कहां है? उधर कांग्रेस उम्मीद कर रही है कि इन तमाम मुश्किलों के बावजूद जनता उन्हें वोट देगी, क्योकि वह खाद्य सुरक्षा कानून बनाने जा रही है और उसने पहले से ही मनरेगा जैसे लोकप्रिय कार्यक्रमों को चला रखा है। अन्य पार्टियां भी लोगों के मूल मुद्दों को छोड़कर लोकलुभावन नारों को अपनाने की रणनीति बना रही हैं। इन पार्टियों में क्षेत्रीय पार्टियां भी शामिल हैं। वे यह भूल रही हैं कि आज आम व्यक्ति एक सम्मानजनक जिंदगी चाहता है और इतनी आय चाहता है, जिससे उसका गुजर बसर हो सके।

इस समय भारी आर्थिक संकट चल रहा है। हालांकि प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि देश 1991 की अवस्था में फिर नहीं पहुंचेगा और वे वहां उसे पहुंचने नहीं देंगे। गौरतलब है कि उस समय देश अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के पास भीख की कटोरी लेकर पहुंच चुका था।

पिछले साल आर्थिक विकास दर मात्र 5 फीसदी थी। यह विकास दर पिछले एक दशक की सबसे कम विकास दर थी। औद्योगिक विकास तो सिकुड़ रहा है। मुद्रास्फीति और खासकर खाद्य मुद्रास्फीति 10 फीसदी के अंक तक पहुंच चुका है। सर्विस सेक्टर का भी बुरा हाल है। मैनुफैक्चरिंग सेक्टर के बुरे दिन चल रहे हैं। इन सबके साथ राजकोष का घाटा लगातार बढ़ता जा रहा है। चालू खाते का घाटा भी खौफनाक स्तर को प्राप्त कर चुका है। ये घाटे खाद्य सुरक्षा कानून और अन्य लोकप्रिय योजनाओं को चलने की इजाजत कैसे देंगे। इतनी भारी वित्तीय कठिनाइयों के बीच आखिरकार सरकार खाद्य सुरक्षा योजना जैसी खर्चीली योजनाओं को कैसे चला पाएगी?

संकट देश के वित्तीय सेक्टर में भी फैल गया है। शेयर बाजार भी प्रभावित हो रहे हैं। रुपया बहुत तेजी से गिरता जा रहा है और लगता है कि वह बहुत जल्द ही 75 के आंकड़े को प्राप्त कर लेगा यानी एक डाॅलर की कीमत 75 रुपये हो जाएगी। एक आर्थिक अखबार के एक सर्वेक्षण से पता चला है कि आने वाले समय में रूपये में और भी गिरावट हो सकती है और मुद्रास्फीति की दर लगातार ऊंची बनी रह सकती है।

आखिर यह समस्या पैदा कैसे हुई? विदेशी निवेश का पर्याप्त नहीं होना और चालू खाते पर विदेशी मुद्रा का बाहर जाते रहने के कारण यह समस्या पैदा हुई। यह सब उस समय हुआ, जब आर्थिक सुधार कार्यक्रमों के जारी रहने की लगातार घोषणा हो रही थी। इसके अलावा पूंजी बाजार से विदेशी निवेशकों ने 3 अरब डॉलर निकाल लिए हैं। आयात बिल का लगातार बढ़ता जाना भी एक बड़ा कारण है। ग्लाबल सीन भी भारत के अनुकूल नहीं है।

ऐसी बात नहीं है कि सरकार ने समस्या के हल के लिए कुछ नहीं किया है। भारतीय रिजर्व बैंक अपनी तरफ से अनेक तरीके अपना रहा है, जिससे रुपया टूटने से बचे और मुद्रास्फीति दूर हो सके। पूंजी बाजार को स्वस्थ बनाए रखने के लिए भी रिजर्व बैंक ने अनेक उपाय किए हैं, लेकिन वे उपाय काम नहीं कर रह हैं। सरकार ने सोने के आयात पर 10 फीसदी आयात शुल्क लगा दिए हैं, ताकि उसका आयात कम हो सके। लेकिन इसके कारण सोने की तस्करी शुरू हो गई है। ज्यादातर सोना दुबई से श्रीलंका और नेपाल के रास्ते आ रहा है। चिदंबरम राजकोषीय घाटा कम करने के लिए जबर्दस्त मेहनत कर रहे हैं। वे सरकारी खर्च को कम करने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन इसके बावजूद राजकोषीय गैप कम होने की संभावना कम लगती है। (संवाद)