भारत के वित्तमंत्री के मुख्य आर्थिक सलाहकार के रूप में कौशिक बसु ने अप्रैलए 2012 में कहा था कि 1991 जैसा संकट देश में चल रहा है। आज जब स्थिति उस समय से भी खराब हो गई है, तो वे कह रहे हैं कि देश में कोई संकट नहीं है। इस समय देश के सामने लिए गए कर्जों की वापसी की समस्या भी आने वाली है, लेकिन श्री बसु वही भाषा बोल रहे हैं, जो केन्द्र की यूपीए सरकार की भाषा है।

भारत के वित्तमंत्री के मुख्य आर्थिक सलाहकार के रूप में श्री बसु ने उस समय सरकार के नीति न लेने की क्षमता की आलोचना की थी और कहा था कि नीति निर्धारण के स्तर पर सरकार को लकवा मार गया है। उन्होने कहा था कि देश की स्थिति खराब है और उसके 2014 तक सुधरने की कोई संभावना भी नहीं है। लेकिन वाशिंगटन जाकर उनके स्वर बदल गए हैं।

वाशिंगटन में एक गोष्ठी को संबोधित करते हुए बसु आंकड़ो के साथ वहां उपस्थित लोगों को बता रहे थे कि देश के सामने कोई बहुत बड़ी समस्या नहीं है। वे कह रहे थे कि देश का विदेशी मुद्रा भंडार बहुत बड़ा है और 1991 जैसे भुगतान संतुलन की समस्या पैदा होने का कोई खतरा नहीं है। नीति निर्धारण को लकवा मारने की बात का तो उन्होंने जिक्र तक नहीं किया। देश में आर्थिक सुधार कार्यक्रमों के नये दौर की जरूरत है, इसका भी जिक्र उन्होंने नहीं किया। भारत सरकार ने विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए हाल में जो सुधार किए हैं, उसका कोई असर नहीं दिखाई पड़ा और किसी तरह का निवेश आकर्षित करने में हम विफल रहे हैं। इस बात की चर्चा भी उन्होने नहीं की।

यह मानना कठिन है कि विश्व बैंक के मुख्य अर्थशास्त्री को यह पता नहीं है कि भारत के विदेशी मुद्रा भंडार का स्वरूप क्या है और वह है कितना। यह भी उनका जरूर पता होगा कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में गिरते रुपये से देश के लोगो के सामने क्या समस्या आ रही है। गिरता हुआ रुपया आज देश की अर्थव्यवस्था की स्थिरता के लिए सबसे बड़ा खतरा है।

1991 की अपेक्षा देश की स्थिति इस समय बेहद खराब है। उस समय एक डाॅलर का 17 से 19 रुपया मिलता था। 1992 में रुपये के अवमूल्यन के बाद यह एक डालर का 24 से 31 रुपये तक हो गया था। 1995-96 तक यह 31- 22 के रेंज में ही रहा। रुपये की इस स्थिरता ने आर्थिक सुधार कार्यक्रमों की सफलता में सहायता पहुंचाई। इस समय रुपया लगातार कमजोर होता जा रहा है और यह एक डाॅलर के 65 रुपये की सीमा को भी लांघ चुका है।

बसु कहते हैं कि भारत अपने विदेशी मुद्रा भंडार का इस्तेमाल रुपये को स्थिर करने के लिए कर सकता है। श्री बसु को जानना चाहिए कि भारत के वर्तमान 276 अरब डाॅलर की गुणवत्ता क्या है। इसका एक बड़ा हिस्सा विदेशी संस्थागत निवेशकों द्वारा शेयर बाजार में किए गए निवेश से हुई आमद है। इसके कारण यह मुद्रा भंडार भारतीयों के लिए खुश होने का कारण नहीं है। शेयर बाजार में आए भूचाल के कारण य इसकी कीमत पिछले दिनों बहुत घट गई है।

इस वित्तीय वर्ष के अंतिम महीने यानी 2014 के मार्च महीने तक भारत को 172 अरब अमेरिकी डाॅलर के कर्ज की वापसी करनी है। उसे वापस करने के बाद भारत का विदेशी मुद्रा भंडार सिर्फ 105 अरब अमेरिकी डातर का रह जाएगा। यह तब जब आगामी 6 महीनों मे ंयह भंडार किसी और कारण से खाली न हो। भारत को प्रति महीने 50 अरब डाॅलर आयात पर खर्च करना होता है। इसलिए अगले वित्तीय वर्ष की शुरुआत में इसके पास सिर्फ दो महीने के आयात बिल भरने के लिए डालर होंगे। यह अगली सरकार के लिए चेतावनी है। पिछले साल भारत का व्यापार घाटा 192 अरब डालर का था, जब 1990-91 का व्यापार घाटा मात्र 10 अरब डालर का ही था। इसलिए भारत के पास बहुत ही कम विदेशी मुद्रा भंडार है, जिसकी सहायता से वह अंतरराष्ट्रीय बाजार में रुपये को स्थिर कर सके। लिहाजा हम भारी वित्तीय संकट की ओर बढ़ रहे हैं और यह भी कह सकते हें कि वित्तीय आपातकाल का दौर आ रहा है। (संवाद)