आर्थिक मंदी के इस संकट की शुरुआत अमेरिेका से हुई। अमेरिका में भी यह संकट वित्तीय व्यवस्था के संकट के रूप में सामने आया। सच कहा जाए, तो यह संकट बैंकों का संकट था। लेकिन आज की अर्थव्यवस्थाएं बैंकिंग व्यवस्था पर इस कदर निर्भर है कि बैंकों का संकट तत्काल व्यापार और उद्योग जगत को प्रभावित करता है। बैंक का संकट बिना समय गंवाए पूरे देश के आर्थिक संकट में तब्दील हो जाता है।

संकट तो अमेरिेका की वित्तीय व्यवस्था में शुरू हुआ, लेकिन दुनिया की वित्तीय व्यवस्था भूमंडलीकृत है, इसलिए अमेरिका की वित्तीय व्यवस्था का संकट पलक झपकते ही अंतरराष्ट्रीय वित्तीय व्यवस्था का संकट के रूप में सामने खड़ा था। इसलिए यह संकट विश्वव्यापी हो गया। इस संकट की शुरुआत अमेरिका में 2006 के अंतिम महीनों में हो गई थी। यह सबप्राइम मोर्गेज का संकट था। इसका संबंध रियल इस्टेट सेक्टर से था।

1996 से 2006 के शुरुआती महीनों के बीच अमेरिका का रियल इस्टेट सेक्टर काफी फला फूला था। इसमें बैंको की बहुत बड़ी भूमिका था। ब्याज दर कम होने के कारण लोग बैंको से लोन लेकर मकान खरीद रहे थे और इसके कारण मकान की मांग बढ़ती जा रही थी। मांग बढ़ने के कारण मकान के दाम भी बढ़ रहे थे। जाहिर है जिन लोगों ने मकान खरीद लिया था, उनके मकान की कीमत ज्यादा होने के कारण उनकी संपत्ति भी बढ़ती जा रही थी। पहले तो बैंको ने प्राइम यानी मूल ब्याज दरो पर ही मकान के लिए कजै उपलब्ध कराए।

बैंक मकान खरीदने के लिए आवेदन करने वाले सभी लोगों को कर्ज नहीं देते। आकलन किया जाता है कि जो कर्ज ले रहा है, वह इसे चुकाने की क्षमता भी रखता है या नहीं। इसके लिए बैंक आवेदनकत्र्ता की आय को देखता है। उसके कर्ज लेने के इतिहास की परख करता है और यह निर्णय करता है कि उसे कर्ज दिया जाना चाहिए अथवा नहीं। यदि कर्ज लेने के बाद कोई उसे वापस नहीं करता है तो बैंक उसकी संपत्ति जब्त कर लेता है। डिफाल्टर की बंधक रखी संपत्ति का स्वामित्व हासिल कर लेने के विकल्प के बावजूद बैंक उसी आवेदक को आवासीय कर्ज देना चाहेगा, जो कर्ज को सही समय पर चुकाने की क्षमता रखता हो।

लेकिन मकानों की बढती कीमतों ने अमेरिका में एक शैडों बैंकिंग व्यवस्था को जन्म दे दिया। यह बैंकिंग व्यवस्था उन लोगों को भी आवासीय कर्ज जुटाने में सक्रिय हो गई, जिनकी क्षमता बैंको के स्वीक्त मानदंड पर कर्ज की अदायगी करने की नहीं थी। उन्हें भी कर्ज उपलब्ध कराए जाने लगा और उन्हें अधिक ब्याज दर पर यह कर्ज उपलब्ध कराए जा रहे थे। जब मकान की कीमतें बढ़ती जा रही हों तो ऊंची दर पर भी कर्ज लेकर मकान खरीदना ़फायदे का सौदा होता हैं। जिसके पास कर्ज अदायगी की क्षमता नहीं होती है, वह कर्ज के घर के बूते ही अपने कर्ज की अदायगी की क्षमता रखता है, यदि उसे फिर से वित्त पोषित होने की सुविधा प्राप्त हो। इस तरह की सुविधा वहां उपलब्ध थी।

जब मकान की कीमतें बढ़ रही हों, तो कर्ज जारी करने वाले बैंको को भी भरोसा होता है कि जिन्होंने कर्ज लिया है, वे अपना घर बचाने के लिए कर्ज का ब्याज सहित भुगतान कर ही देंगे। यदि वे भुगतान न कर पाएं, तों बैंकों के पास अंतिम विकल्प उस मकान के फोरक्लोजर का रहता है। यानी अपने पास बंधक रखे मकान को जब्त कर बैंक उससे अपनी राशि वसूल कर लेंगे। इसलिए मकान के लिए कर्ज लेने वाले यदि डिफाल्ट भी करते, तो फायदा कर्ज देने वाले बैंकों को ही होता, क्योंकि कीमत बढ़ने के कारण जब्त किए गए मकान से मूल और ब्याज से ज्यादा की वसूली संभव हो जाती थी।

लेकिन यह सब तभी संभव था, जब मकान की कीमते बढ़ती जा रही हों। 1996 से 2006 के शुरुआती महीनों तक मकान की कीमतें लगातार बढ़ रही थीं और इस दौरान सबप्राइम बंधक के द्वारा अरबों अरब डालर के कर्ज जारी किए गए। मकानों की बढ़ती कीमतों का लाभ उठाने के लिए सबप्राइम ब्याज दरों पर वैसे लोगों के लिए आवासीय कर्ज बेतहाशा उपलब्घ कराए गए, जो कर्ज चुकाने की क्षमता ही नहीं रखते थे, उनमें से अघिकांश लोग तो दुबारा कर्ज लेकर अपने पहले वाले कर्ज को अदा कर रहे थे। दुबारा कर्ज और भी अधिक ब्याज दर पर लिया जा रहा था। इस तरह अमेरिका की एक बड़ी आबादी कर्ज में डूबती जा रही थी।

इसी बीच मकान की कीमतें गिरने लगीं। कीमतो को कभी न कभी तो जमीन पर आना ही था। आखिर मकानों की मांग को कबतक खींचा जा सकता था। रहने के अलावा लोग निवेश उद्देश्यों से भी मकान ले रहे थें। लेकिन सब मिलाकर कभी न कभी तो मांगों को अपनी हद तक पहुंचना ही था। मांग हद तक पहुंची। कीमतें स्थिर हुईं। मकान खरीदने वाले ठिठके और फिर मकानों की मांग कमजोर पड़ गईं। उसके बाद कीमते भी गिरने लगी। गिरती कीमतों का एक असर यह हुआ कि सबप्राइम ब्याज दर पर जिन्होंने मकान के लिए कर्ज लिए थे, उनमें से अनेको के मकान की कीमत उनके द्वारा अदा किए जाने वाले कर्ज से भी कम हो गई। इसके बाद तो घर को अपने पास रखने के लिए कर्ज अदायगी से बेहतर विकल्प उन्हें अपना घर ही फोरक्लोजर के लिए उपलब्ध करा देना था। इसलिए डिफाल्टरों की संख्या बढ़ती गई।

सच तो यह है कि भारत की मिश्रित अर्थव्यवस्था ने ही भारत को मंदी से बचाया। मिश्रित अर्थव्यवस्था के तहत भारत में सार्वजनिक क्षेत्र का बोलबाला रहा है। पहले तो अनेक उद्योग ही सार्वजहनक क्षेत्र के लिए आरक्षित थे, जिनमें निजी क्षेत्र का प्रवेश वर्जित था। निजी क्षेत्र पर लापसेंस परमिट राज का वर्चस्व था। अब वह वर्चस्व भी समाप्त हो चुका है। निजीकरण के इस युग में निजी क्षेत्र को बढ़ावा मिले, इसमें कुछ भी गलत नहीं है। उसे अनेक प्रकार के अनावश्यक बंदिशों से छुटकारा मिले। इसमें भी कुछ गलत नहीं है। लेकिन निजीकरण के नाम पर मजबूत और फायदे में चल रही सार्वजनिक क्षेत्रों के उपक्रमों का निजीकरण गलत है।

इस विश्वव्यापी आर्थिक मंदी से सबक लेकर हमें अपनी मिश्रित अर्थव्यवस्था को और भी मजबूत बनाना चाहिए। कहने का मतलब है कि हमंे मिश्रित अर्थव्यवस्था की अवघारणा को और मजबूती से पकड़ना चाहिए। यह सच है कि हमारे देश में मिश्रित अर्थव्यवस्था को जो रूप हमने देखा था, वह निजी क्षेत्र के खिलाफ था। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मिश्रित अर्थव्यवस्था का मतलब निजी और सार्वजनिक क्षेत्र का सह अस्तित्व होता है न कि सार्वजनिक क्षेत्र का प्रभुत्व। (संवाद)