उसी दौरान मुंबई मे एक महिला फोटो पत्रकार के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया। बलात्कारियों का नाम पता शिकार लड़की और उसके दोस्त को पता नहीं था। फिर भी उस घटना का संज्ञान होने के बाद वहां की पुलिस ने तेजी से कार्रवाई कर उस कांड में शामिल सभी अभियुक्तों को गिरफ्तार कर लिया। वहां के पुलिस आयुक्त बता रहे थे कि उन्होंने सभी को गिरफ्तार करने के लिए पुलिस की 20 टीमें गठित दी थीं। पुलिस की तत्परता काम आई और अपराधियों को धर दबोचा गया। मुंबई पुलिस ने दिल्ली तक दबिश की और अंतिम गिरफ्तारी दिल्ली में ही हुई।

पर आसाराम के मामले में पुलिस ने वह तत्परता नहीं दिखाई। बलात्कार बलात्कार होता है और दो बलात्कारों की तुलना नहीं की जानी चाहिए। एक लड़की गैंग रेप की शिकार हुई, तो दूसरे के साथ बलात्कार का आरोप उसके गुरू आसाराम पर लगा। उस समय उस लड़की के पिता घटनास्थल से कुछ ही दूरी पर थे। दूसरे मामले में बलात्कार के साथ आस्था के हनन का भी मामला था। वह अपने अनुयाइयों के साथ कथित धर्मगुरू का विश्वासघात भी था। यह अलग मामला है। यहां सवाल यह है कि आसाराम के साथ कानून ने नरमी क्यों दिखाई? क्या हमारे देश का कानून महाराष्ट्र में एक तरीके से और राजस्थान में दूसरे तरीके से काम करता है?

आसाराम के खिलाफ मुकदमा दर्ज किए जाने के बाद दिल्ली पुलिस के हवाले से खबर आई कि मेडिकल रिपोर्ट मंे बलात्कार की पुष्टि हुई है। बिना इस तरह की पुष्टि के पुलिस आमतौर पर बलात्कार का एफआईआर नहीं दर्ज करती। उसकी जगह पर ज्यादा से ज्यादा शिकायत दर्ज करती है और अपने स्तर पर आश्वस्त हो जाने के बाद ही एफआईआर दर्ज करती है।

बलात्कार एक संगीन मामला है। इस मामले को दर्ज करने के बाद पुलिस की पहली प्राथमिकता जिसके खिलाफ मुकदमा दर्ज हुआ है, उसे गिरफ्तार करना होता है और जिस स्थान पर यह घटना हुई है, वहां जाकर सबूत इकट्ठे करना होता है। आसाराम के मामले में मामला थोड़ा अलग था। बलात्कार की घटना जोधपुर में हुई थी, जबकि मामला दिल्ली में दर्ज किया गया था। दिल्ली पुलिस ने यह मामला राजस्थान पुलिस को स्थानांतरित कर दिया। उसने वही किया, जो उसे करना चाहिए था। फिर जोधपुर की पुलिस हरकत में आई। वहां से खबरें निकली कि जोधपुर पुलिस भी प्रथम दृष्टि में बलात्कार के आरोप को सही मान रही है, क्योंकि उस तरह के सबूत मिलने उसे शुरू हो गए थे। जोधपुर पुलिस का फर्ज बनता था कि वह जल्द से जल्द आसाराम को अपनी हिरासम में ले और पूछताछ कर सबूत और और भी पक्का करे व नियमानुसार अदालत में आसाराम को पेश कर पुलिस हिरासत की मांग करे। पर जोधपुर पुलिस ने शुरुआती उत्साह देखकर अपने हाथ समेटना शुरू कर दिया। मुख्यमंत्री अशोक गहलौत का सार्वजनिक बयान आ गया कि बलात्कार की घटना की पुष्टि होने और सारे सबूत इकट्ठे होने के बाद आसाराम के खिलाफ कार्रवाई होगी। उस बयान के बाद जोधपुर पुलिस के हाथ पांव ठंढे हो गए।

सवाल उठता है कि राजस्थान के मुख्यमंत्री पुलिस पर इस तरह का दबाव बनाने के लिए सामने क्यों आए? हो सकता है आसाराम के साथ उनका कोई निजी ताल्लुकात रहा हो, लेकिन मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने संविधान के अनुसार काम करने और उसकी रक्षा करने की कसम खा रखी है। उस कसमों को तो उन्होंने तोड़ ही दिया। जोधपुर में बलात्कार की शिकार लड़की नाबालिग है। इसलिए आसाराम के खिलाफ प्रोटेक्शन औफ चाइल्ड अगेंस्ट सेक्सुअल आॅफेंस (पोक्सो) के तहत भी मामला दर्ज हुआ है। इस कानून के तहत दर्ज हुए मुकदमे में आरोप के खिलाफ सबूत इकट्ठा करने की जिम्मेदारी अभियुक्त की होती है। यानी बलात्कार नहीं किया है, इसे साबित करने का जिम्मा आसाराम का है, न कि बलात्कार होने की सबूत देने का जिम्मा पुलिस अथवा पीडि़ता का है। जाहिर है, इस कानून के तहत दर्ज मुकदमे में अविलंब गिरफ्तारी होती है, ताकि अभियुक्त झूठा सबूत नहीं खड़ा कर सके।

इसलिए जोधपुर पुलिस का यह फर्ज बनता था कि पोक्सा के अंतर्गत मामला दर्ज होने के कारण वह बिना कुछ सबूत इकट्ठा किए ही आसाराम की गिरफ्तारी करे, पर लगता है कि मुख्यमंत्री के दबाव में उसने अपना फर्ज नहीं निभाया और कानून व संविधान की धज्जियां उड़ा दीं।

सुप्रीम कोर्ट के एक न्यायधीश ने हाल ही में कहा है कि हमारे देश में न्याय बहुत महंगा हो गया है और यह गरीबों के बस में नहीं रहा कि न्याय मांगने की सोंचे। पर जिस तरह जोधपुर पुलिस ने आसाराम के मामले में रवैया दिखाया है, उससे यह भी साबित हो रहा है कि कानून के रखवाले भी गरीबों की परवाह नहीं करते। जब मामला प्रभावशाली और गरीबों के बीच का होता है, तो कानून अलग तरह से व्यवहार करता है और जब अपराध करने वाले गरीब होते हैं, तो कानून का डंडा तेजी से चलता है। मुंबई में बलात्कारी झुग्गियों मे रहने वाले थे। उनको गिरफ्तार करने के लिए वहां की पुलिस ने रात दिन एक कर दिए। पीडि़ता और उसके सहकर्मी ने उन अपराधियों के न तो नाम बताए थे और न ही पते, फिर भी पुलिस ने उन सबको ढूंढ़ निकाला और गिरफ्तार कर लिया।

इधर दूसरी ओर आसाराम के खिलाफ उनका नाम लेकर रिपोर्ट लिखाई गई। वे कहां है, पुलिस को इसका भी पता था, लेकिन उन्हें तुरंत गिरफ्तार नहीं किया गया। जाहिर है कानून उसके खिलाफ काम करना ही नहीं चाहता, क्योंकि कानून के रखवालों की ऐसी ही इच्छा है। पीडि़ता और उसके परिवार को दबाव अथवा लोभ देकर आरोप से मुकरने के लिए आसाराम को पर्याप्त समय दिए गए। एक समय तो ऐसा आया कि पुलिस ने कहा कि बलात्कार की पुष्टि मेडिकल रिपोर्ट में नहीं होती है। यह भी कहा गया कि खुद पीडि़ता बलात्कार के आरोप से पीछे हट रही है। पुलिस का यह रवैया अत्यंत की शर्मनाक है। उसका काम अपराधियो को गिरफ्तार कर उसे सबूतों और गवाहों के साथ छेड़छाड़ करने से रोकना होता है, पर आसाराम को समय दिया जा रहा है ताकि वे सबूतों के साथ छेड़छाड़ करें और गवाहों और खुद पीडि़ता पर भी दबाव बनाएं।

कानून का इस तरह दो तरह से काम करते दिखना हमारे लोकतंत्र के लिए बहुत ही खतरनाक है, क्योंकि इससे व्यवस्था विरोधी ताकतों को बढ़ावा मिलता है। माओवादी समस्या का मुख्य कारण भी यही है कि इस समस्या से ग्रस्त इलाको में लोग संविधान सम्मत अपने अधिकारों से भी वंचित किए जा रहे हैं। इसलिए कानून के रखवालो को इस प्रवृति से बाज आना चाहिए। (संवाद)