हम इस तथ्य को नकार नहीं सकते कि हमारा देश आज चालू खाते के घाटे का सामना कर रहा है और इस घाटे का मुख्य कारण आयातित तेल पर खर्च होने वाली विदेशी मुद्रा है। लेकिन यह आयात भी जरूरी है। हम तेल के उत्पादन में आत्मनिर्भर नहीं हैं। पर तेल की बढ़ती कीमतों के कारण एक तरफ जहां विदेशी मुद्रा का संकट खड़ा होता है, तो दूसरी तरफ धरेलू बाजार में महंगाई बढ़ने लगती है, क्योंकि तेल उत्पाद महंगे होने के कारण माल की ढुलाई का भाड़ा भी बढ़ जाता है।

1970 के दशक में बाम्बे हाई में कच्चे तेल के भंडार मिले थे। उससे हमारे देश के लोग बहुत उत्तेजित हुए और लगने लगा कि अब हम तेल के उत्पादन में आत्मनिर्भर होने वाले हैं। लेकिन यह उत्तेजना बहुत समय तक नहीं रही। हमारी सरकारों ने तेल की खोज की उपेक्षा करनी शुरू कर दी। तेल के घरेलू उत्पादन में भी उनकी दिलचस्पी घटती गई। किसी भी सरकार ने इस ओर ध्यान नहीं दिया और इस तरह कच्चे तेल और उनके उत्पादों के आयात पर हमारी निर्भरता बनी रही।

भारत में तेल उत्पादों की कीमतों को सरकार द्वारा तय किया जाता था। अभी भी सरकार की भूमिका कमोवेश बरकरार है। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने 2004 में फैसला किया कि कीमतों को प्रशासनिक घोषणाओं द्वारा तय किए जाने की परंपरा समाप्त होगी। लेकिन उसका यह फैसला बहुत समय तक अमल में नहीं लाया जा सका। बाद की यूपीए सरकार ने भी वैसी ही टाल मटोल की नीति अपनाने का काम किया। इसके पीछे तर्क दिया जाता रहा कि हम जनहित की उपेक्षा नहीं कर सकते।

सरकार की इस नीति का परिणाम यह हुआ की तेल की मार्केटिंग करने वाली कंपनियों का घाटा बढ़ता गया और घाटे को पाटने के लिए सरकार राजकोष को खोलती रही। इस तरह से तेल सब्सिडी लगातार बढ़ती रही और राजकोष पर इसका दबाव लगातार बना रहा।

रंगराजन और कीति पारेख जैसी कमिटियों का गठन तेल सेक्टर के सुधार के लिया किया गया। उन कमिटियों ने बहुत अच्छे अच्छे सुझाव दिए। लेकिन उन सुझावों पर शायद ही गौर किया गया। तेल पर आत्मनिर्भरता हासिल करना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए थी, पर उसे लगातार नजरअंदाज किया गया और आत्म निर्भरता पाने के सुझाए गए तौर तरीको की भी उपेक्षा कर दी गई।

पिछले दो सालों में तेल की कीमतों को प्रशासनिक फैसलों से मुक्त करने की दिशा में कुछ प्रयास हुए हैं। पेट्रोल की कीमतों को बाजार से जोड़ दिया गया है और अब सरकारी फैसलों से इसका निर्धारण नहीं होता है, हालांकि तेल कंपनियां अभी भी सरकार से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इस पर निर्दैश लेती दिखाई पड़ती हैं। डीजल को अभी भी पूरी तरह नियंत्रण मुक्त नहीं किया जा सका है। यही हाल रसोई गैस का है।

तेल का मामला बहुत ही संवेदनशील है। इस पर लिया गया फैसला तीव्र प्रतिक्रियाएं पैदा करता है, लेकिन रुपये की गिरती कीमतों और खाड़ी देशों में व्याप्त अनिश्चितता को देखते हुए हमे तेल की खपत को कम करनी होगी। लेकिन ऐसा करने मे देश की धीमी गति से विकास कर रही अर्थव्यवस्था के और भी धीमी हो जाने का खतरा है। (संवाद)