कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने साफ कर दिया है कि वह ट्रिकल डाउन सिद्धांत में विश्वास नहीं करती, जिसके तहत माना जाता है कि विकास का फल अपने आप ऊपर से नीचे की ओर टपकने लगता है। उनका मानना है कि सरकार अपने कार्यक्रमों से ही नीचे तक विकास के फल को पहुंचा सकती है। लेकिन यह नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के खिलाफ है। मनमोहन सिंह इस नवउदारवादी नीतियों के पक्षधर हैं, और वे सब्सिडी का बोझ कम करना चाहते हैं। खाद्य सुरक्षा कानून और नये भूमि अधिग्रहण कानून से सरकारी खजाने पर बोझ बहुत ज्यादा बढ़ जाएगा और उसे जुटाने के लिए पैसा वहां से लाया जाएगा, जहां वह है। पर मनमोहन सिंह चाहते हैं कि निजी सेक्टर के लोग उन पैसों का इस्तेमाल अपने उद्योगों में करें, ताकि देश का तेजी से विकास हो। इधर सोनिया गांधी चाहती है कि सरकार अपने कल्याणकारी कार्यक्रमों को चलाए और उनके लिए जहां से भी संभव हो, वह संसाधन जुटाए।
जाहिर है, मनमोहन सिंह एक विचित्र दुविधा में पड़ गए हैं। उनके सामने समस्या है कि वे संसाधन कहां से जुटाएं। पर सोनिया का इसकी परवाह नहीं। उनका मानना है कि यदि चुनाव जीतना है, तो इस तरह के कार्यक्रम चलाने ही होंगे। सोनिया के क्षेत्रीय कमांडर भी कुछ ऐसा ही सोचते हैं।
2009 के पहले मनरेगा लागू किया गया था। उसमें भी बहुत बड़ी राशि की जरूरत पड़ती है। सोनिया और अधिकांश कांग्रेसी नेता मानते हैं कि पिछले लोकसभा चुनाव मंे पार्टी की जीत का सबसे बड़ा कारण वही था। लेकिन अध्ययन से पता चलता है कि मनरेगा अनेक त्रुटियों से युक्त है। उसका फायदा सही लोगों के पास नहीं पहुंच रहा है और सरकारी धन की भारी पैमाने पर लूट हो रही है। खाद्य सुरक्षा कानून को लेकर भी इसी तरह की आशंका व्यक्त की जा रही है।
पर कांग्रेस को लग रहा है कि खाद्य सुरक्षा कानून से उसे बहुत फायदा होगा। उसे लगता है कि आगामी 6 महीने में इसे लागू करने का मेकैनिज्म तैयार हो जाएगा और उसके बाद लोगों को इसका लाभ मिलने लगेगा। कांग्रेस का जोर अपने शासित राज्यों में इसे सफलता पूर्वक लागू कर देने का है। उसके शासित तीन राज्यों में तो इसका शुभारंभ हो भी चुका है। इसे 20 अगस्त को शुरू किया गया था। गौरतलब है कि 20 अगस्त राजीव गांधी की जन्म तिथि है। गैर कांग्रेसी राज्य सरकारों को इसे लागू करने में परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। छत्तीसगढ़ और तमिलनाडु सरकार का तो कहना है कि उनके राज्यों में जो कार्यक्रम चल रहे हैं, वह इस खाद्य सुरक्षा कानून वाले कार्यक्रम से भी बेहतर हैं। इसलिए वे इसे लागू कैसे कर सकते?
कांग्रेस चाहे जो भी सोच लेए 2013 और और 2009 में काफी फर्क है। 2008 में मध्यवर्ग कांग्रेस से खुश था। उसके पहले वाले सालों में अर्थव्यवस्था का तेजी से विकास हुआ था। खुशहाली का माहौल था। लेकिन अभी आथ्र्रिक स्थिति खराब हो गई है। महंगाई का लंबा दौर चल रहा है और उसके साथ साथ भ्रष्टाचार के मामले एक के बाद एक सामने आए हैं, जिसके कारण सरकार की स्थिति दयनीय हो गई है। लोगों के बीच उसकी स्थिति लगातार खराब होती गई है।
2009 में कांग्रेस की जीत शहरी इलाकों मंे ज्यादा हुई थी। शहरी इलाकों को मनरेगा और किसानों की कर्जमाफी से तो कोई फायदा हुआ नहीं था, इसलिए वहां जो जीत हुई थी, उसके लिए उन दोनों योजनाओं को कैसे जिम्मेदार माना जाय? इस बार शहरी तबका सरकार के खिलाफ खड़ा दिखाई दे रहा है। यह तबका आज नरेन्द्र मोदी का दीवाना बना हुआ है और भाजपा नरेन्द्र मोदी को आगे करके चुनाव लड़ने जा रही है। कांग्रेस के पास मोदी जैसा कोई चमात्कारिक नेता है ही नहीं। (संवाद)
कांग्रेस को वोट सुरक्षा कानून का सहारा
लोकप्रियतावाद या कल्याणकारी कदम?
कल्याणी शंकर - 2013-09-06 13:12
संसद के मानसून सत्र में खाद्य सुरक्षा और भूमि अधिग्रहण संबंधित दो विधेयकों को पास किया गया। इन दोनों को पास कराते समय कांग्रेस की नजर 2014 में होने वाले लोकसभा चुनाव पर थी। सवाल उठता है कि क्या कांग्रेस को इन कानूनों का लाभ मिल भी पाएगा और यदि मिला भी तो क्या वह इतना होगा कि 2014 के बाद उसके नेतृत्व में एक बार फिर यूपीए की सरकार बन जाएगी? सोनिया गांधी और उनके सलाहकारों को ऐसा ही लगता है। उन्हें लगता है कि 2009 के लोकसभा चुनाव को मनरेगा और किसानों की कर्जमाफी के कारण जीता गया था।