मनमोहन सिंह के उस कथन के दो निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। पहला तो यह है कि उन्हें इस बात का पूरा अहसास हो गया है कि रुपये के साथ उनकी प्रतिष्ठा भी कांग्रेस के अंदर काफी गिर चुकी है। दूसरा निष्कर्ष यह है कि न तो पार्टी और न ही देश उन्हें अर्थव्यवस्था की स्थिति सुधरने के काबिल मानता है।

इसका मतलब यह है कि अपने कैरियर के सबसे नीचले पायदान पर आज वे खड़े हैं। यह सच है कि संसद के पिछले सत्र के दौरान उन्होंने राज्यसभा में भारतीय जनता पर करारे हमले किए थे, लेकिन सच यह भी है कि अब देश अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए उनकी तरफ नहीं, बल्कि चिदंबरम और भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन की ओर देख रहा है। यही कारण है कि वे अब राहुल के लिए रास्ता साफ करने को तैयार हो गए हैं और ऐसा करते समय भी वे चापलूसी त्यागने के लिए तैयार नहीं हैं।

उदाहरण के लिए राहुल गांधी का नाम आगामी प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के रूप में लेने की कोई जरूरत नहीं थी, क्योंकि राहुल की इस पद पर क्षमता पर लोगों को भारी संदेश है। लगता है कि कांग्रेस के अंदर चापलूसी का ही बोलबाला है। प्रधानमंत्री और कांग्रेस नेहरू परिवार के सामने किस कदर नत मस्तक है, इसका पता खाद्य सुरक्षा कानून के बनने से लगता है। इसके आर्थिक नतीजे बहुत खतरनाक होंगे। यह बात मनमोहन सिंह को पता हे और उनकी कांग्रेस को भी, लेकिन सोनिया के दबाव में उन्होने इसे मान लिया। पार्टी के अंदर रानी सोनिया गांधी का यह बताने की हिम्मत किसी को नहीं हुई कि इसका नतीजा घातक होगा। हालांकि खुद सोनिया ने यह महसूस किया कि सरकार के पास इसे लागू करने के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं है और उसका इंतजाम करना होगा।

मनमोहन सिंह ने अपने उत्तराधिकारी के रूप में राहुल गांधी का नाम लेना भी उचित समझा, जबकि उनसे बेहतर और कोई यह नहीं जानता है कि आने वाले समय में देश की अर्थव्यवस्था की हालत बहुत ही खस्ता होने वाली है। जो भी पार्टी सत्ता में आएगी, उसे इसका सामना करना पड़ेगा। खुद खाद्य सुरक्षा कानून का लागू करना ही एक बहुत बड़ी चुनौती है। अनाज के भंडारण, परिवहन और वितरण का काम बहुत बड़ा है और वह और भी बड़ा हो जाता है, जब मामला देश की आबादी की तीन चैथाई को सस्ती दर पर अनाज उपलब्ध कराना हो। यदि मानसून विफल हो गया और अनाज का उत्पादन गिर गया, तब हाल क्या होगा, इसके बारे मंे सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।

देश की यह स्थिति मनमोहन सिंह, चिदंबरम और मोंटेक सिंह अहलूवालिया नाम की त्रिमूर्ति के कारण हुई है। यदि इन तीन मे ंसे पहला यानी मनमाहेन सिंह यदि परिदृश्य से बाहर भी हो जाते हैं, तो आने वाले समय में अन्य दोनों की जरूरत पड़ सकती है।

पर यदि मनमोहन सिंह का स्थान राहुल गांधी ने ले लिया तो क्या होगा? उन्हें अर्थशास्त्र की समझ नहीं है और न ही सरकार चलाने का कोई अनुभव है। वे मनमोहन सिंह का स्थान लेने के योग्य हैं ही नहीं, लेकिन फिर भी प्रधानमंत्री उनका नाम अपने उत्तराधिकारी के रूप में ले रहे हैं।

राहुल गांधी के पास मास अपील भी नहीं है। बिहार और उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में राहुल की लोकप्रियता की पोल खुल चुकी है। कांग्रेस के अंदर लोग गांधी परिवार के सदस्यों की चापलूसी इसीलिए करते हैं, क्योंकि उनकी मास अपील होती है और वे पार्टी उम्मीदवारों को वोट दिलवाते हैं, पर राहुल गांधी के साथ ऐसा नहीं है। उनका कोई करिश्मा नहीं है, उलटे उनके कुछ गुण ऐसे हैं, जो उनके खिलाफ ही जाते हैं। उनकी छवि एक बड़बोले और बदमिजाज व्यक्ति की बन गई है। (संवाद)