जब मायावती प्रदेश की मुख्यमंत्री थी, उसी समय बाबरी मस्जिद और रामजन्मभूमि मंदिर के विवादित स्थल पर इलाहाबाद हाई कोर्ट का आदेश आया था। आदेश आने के पहले साम्प्रदायिक तनाव की आशंका व्यक्त की जा रही थी। वह आदेश मुस्लिम समुदाय की उम्मीदों के खिलाफ गया। ऐसी परिस्थिति में दंगे की सबसे ज्यादा आशंका थी। पर तब कहीं कुछ नहीं हुआ। शांति बनी रही।

जाहिर है उत्तर प्रदेश में हो रहे साम्प्रदायिक दंगों का अखिलेश सरकार से संबंध है। सभी दंगों पर नजर डाली जाय, तो यह साफ हो जाता है कि दंगे या तनाव की शुरूआत मुस्लिम समुदाय की तरफ से ही हुई। सवाल उठता है कि आखिर मुसलमानों के साथ क्या हुआ कि वे एकाएक आक्रामक होने लगे हैं? इसका एक कारण तो विधानसभा चुनाव के पहले पैदा की गई स्थिति है। उस समय कांग्रेस, बसपा और सपा मुस्लिम वोट पाने के लिए मुस्लिम कोटे की राजनीति कर रहे थे। मुसलमानों की साम्प्रदायिक भावनाओं को उभार कर उनका मत लेने की कोशिश की जा रही थी। उस समय इन तीनों पार्टियों के नेताओं ने चुनाव के समय जो बोया, उसी फसल तो आज दंगों के रूप में सामने तो नहंी आ रही है?

चुनाव के पहले ओबीसी के 27 फीसदी कोटे को हिन्दू और गैर हिन्दू कोटे में बांट दिया गया था। साढ़े 4 फीसदी गैर हिन्दू और साढ़े 22 फीसदी हिन्दू ओबीसी को दिया गया था। गैर हिन्दू ओबीसी कोटे को मुस्लिम कोटा कहकर प्रचारित किया गया था। मुसलमानों में इसके कारण ओबीसी मुस्लिम और गैर ओबीसी मुस्लिम का भेद भी पैदा दिखाई देने लगा था, जिसका मुसलमानों को धार्मिक नेता वर्ग विरोध कर रहा था। वे मुसलमानों में पैदा हो रहे जाति विभाजन से डर रहे थे। एक विश्लेषण यह है कि इस जाति विभाजन को रोकने के लिए ही मुसलमानों के नेताओं का एक वर्ग साम्प्रदायिक उन्माद पैदा कर रहा है, जिसके कारण मुसलमानों में उभर रहा जातीय विभाजन तीखा न हो। मुसलमानों का नेतृत्व अगड़े अशरफों के हाथ में है, जबकि ओबीसी अजलाफ और अरजाल संख्या में ज्यादा हैं। मुसलमानों के अंदर कोई लालू, मुलायम, नीतीश या मायावती पैदा न हो जाएं, इसके लिए जाति के ऊपर साम्प्रदायिक भावना मजबूत रहना जरूरी है। और जब यह भावना तभी मजबूत बनी रहेगी, जब हिन्दुओं का डर मुसलमानों में लगातार व्याप्त रहेगा।

एक तीसरा कारण शायद यह है कि चुनाव नतीजों के आने के बाद विश्लेषकों ने कहना शुरू कर दिया कि मुसलमानों के समर्थन के कारण ही मुलायम की सरकार बनी। हालांकि यह गलत विश्लेषण था, लेकिन इसके शिकार होकर मुसलमान सोचते हैं कि यह उनकी बनाई हुई सरकार है और उसके अपराधी तत्वों को लगने लगा है कानून व्यवस्था उन पर लागू नहीं होता और पुलिस उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकती, क्योंकि यह उनकी सरकार है। समाजवादी पार्टी का नेतृत्व भी इसे बढ़ावा दे रहा है। आतंकवाद मे शामिल मुसलमानों से भी मुकदमे उठाने के प्रयास अखिलेश सरकार ने शुरू किए थे, तो फिर अपराधियों को पुलिस का डर क्यों सताता। सत्तारूढ़ राजनीतिज्ञों के दबाव के कारण पुलिस भी ऐसे अपराधी तत्वों के सामने अपने को लाचार पाती है और जब मामला बहुत गंभीर हो जाता है, तभी कार्रवाई करती है। मुसलमान अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई करना उनके लिए बहुत ही रिस्क भरा काम है और वे अपना फर्ज निभाने से ज्यादा जरूरी अपनी नौकरी बचाना समझते हैं।

मुजफ्फरनगर का यह दंगा भी इसके कारण ही हुआ। पुलिस ने दो जाट युवकों की मौत के मामले को दबाने की कोशिश की और मौत के लिए अभियुक्त बनाए गए कुछ आरोपियों को गिरफ्तार करना तो दूर, उन्हें दोषमुक्त घोषित कर दिया। यदि पुलिस ने हत्या के आरोपियों के खिलाफ कार्रवाई की होती और कुछ गिरफ्तारियां की होती, तो यह दंगा होता ही नहीं। लेकिन पुलिस वैसा नहीं कर पाई, क्योंकि वह समाजवादी पार्टी के नेताओं के दबाव में आकर काम कर रही थी। आखिर वह दबाव में आए भी तो क्यों नहीं आए? कुछ दिन पहले ही दुर्गाशक्ति नागपाल नाम की एक महिला अधिकारी को प्रदेश सरकार ने यह कहकर निलंबित कर दिया कि गैर कानूनी ढंग से बनाई जा रही एक मस्जिद की दीवार को उन्होंने तुड़वा डाला था। किसी गैरकानूनी काम को रोकने के इस तरह के आरोप लगाकर यदि किसी अधिकारी को सस्पेंड कर दिया जाता हो, तो उसका पूरे प्रशासन तंत्र पर क्या असर पड़ेगा, इसका अनुमान कोई भी लगा सकता है। लिहाजा मुजफ्फरनगर प्रशासन ने मुस्लिम अभियुक्तों के खिलाफ आवश्यक कार्रवाई नहीं की। उलटे मुस्लिम युवक की हत्या के आरोप में उस लड़की के बाप को भी नामजद कर दिया, जिसकी छेड़छाड़ के कारण एक मुस्लिम और दो जाट युवकों की हत्या हो गई थी।

कानून व्यवस्था कायम रखना किसी भी राज्य सरकार की पहली प्राथमिकता होती है, लेकिन इसमें अखिलेश सरकार विफल रही है। इसलिए उसे बर्खास्त करने की मांग बसपा, भाजपा और राष्ट्रीय लोकदल के नेता कर रहे हैं। बर्खास्त करने की यह मांग तो राजनैतिक है और उन्हें पता है कि ऐसा नहीं होगा, पर यह निश्चित है कि अखिलेश सरकार को अब बदल दिया जाना चाहिए और यह काम मुलायम सिंह यादव ही कर सकते हैं। मुलायम सिंह यादव को उस पद पर अब खुद आ जाना चाहिए। इसका कारण यह है कि अखिलेश के मुख्यमंत्री रहते हुए लखनऊ में सत्ता के अनेक केन्द्र बन गए हैं। एक केन्द्र तो खुद मुलायम सिंह यादव है और दूसरे केन्द्र आजम खान हैं। एक तीसरा केन्द्र शिवपाल यादव हैं। खुद मुख्यमंत्री सत्ता के चैथे केन्द्र हैं। इतने सारे केन्द्र होने का असर पूरे प्रशासन पर पड़ रहा है। इन चार केन्द्रों में किसी भी तरफ से सस्पेशन का खतरा अधिकारियों में बना रहता है। मुलायम सिंह यादव के मुख्यमंत्री बन जाने से सत्ता के केन्द्र एक ही रह जाएगा, जिसके कारण प्रशासन बेहतर ढंग से काम कर पाएगा।

मुलायम सिंह यादव प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा रखते हैं और उन्होंने अपनी इस महत्वाकांक्षा को अनेक बार जगजाहिर भी किया है, लेकिन जिस तरह के साम्प्रदायिक दंगे उत्तर प्रदेश में हो रहे हैं, उन्हें देखते हुए यही कहा जा सकता है कि लोकसभा चुनाव उनकी पार्टी के लिए भारी पड़ सकता है। 50 से 60 सीटें पाने का उनका सपना पूरा होना तो दूर, लोकसभा की अपने वर्तमान सीट संख्या को भी बचा पाने में शायद वह सफल न हों। इसलिए उनके हित में भी यही है कि वे मुख्यमत्री के रूप में प्रदेश की सत्ता संभाल लें। (संवाद)