श्रीराम गीता के नाम से विख्यात भारत की श्रुत तथा लोक परम्परा में उपलब्ध वर्णन को संत कवि गोस्वामी तुलसीदास ने अपने श्रीरामचरितमानस में केवल छह चौपाइयों और एक दोहे में बहुत ही सुन्दर ढंग से लिपिबद्ध किया है। लंका कांड में यह वर्णन उस समय आता है जब रावण अपने रथ पर सवार होकर रणभूमि में श्रीराम से युद्ध करने के लिए आते हैं। उस समय उनके उस रथ को संसार भर में अजेय माना जाता था। इसलिए विभीषण व्याकुल हो गये थे। सभी संसाधनों से युक्त उस रथ पर सवार होने वाले रावण को तब तक कोई नहीं हरा सका था।
विभीषण का संदेह -
रावनु रथी बिरथ रघुबीरा। देखि बिभीषन भयउ अधीरा।।
अधिक प्रीति मन भा संदेहा। बंदि चरन कह सहित सनेहा।।1।।
नाथ न रथ नहिं तन पर त्राना। केहि बिधि जितब बीर बलवाना।।
रावण को रथ पर सवार तथा रघुवीर को बिना रथ का देखकर विभीषण अधीर हो उठे। श्रीराम के प्रति अत्यधिक प्रीति ने उनके मन में संदेह उत्पन्न कर दिया। इस हालत में ही उन्होंने श्रीराम के चरणों की बन्दना कर स्नेह पूर्वक पूछा - हे नाथ, न रथ है और न ही शरीर पर कोई कवच। किस प्रकार आप उस वीर और बलवान को जितेंगे?
विभीषण के इस प्रश्न के उत्तर में भगवान श्रीराम बोलना प्रारम्भ करते हैं -
सुनहूं सखा कह कृपानिधाना। जेहिं जय होइ सो स्यंदन आना।।2।।
कृपानिधान कहते हैं - हे सखा सुनें, जिससे जीत होती है वह (रथ) तो कोई और है।
सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका।।
बल बिबेक दम परहित घोरे। छमा कृपा समता रजु जोरे।।3।।
उस (विजय) रथ के दो पहिए हैं - शौर्य और धैर्य। उसकी ध्वजा और पताका हैं सत्य तथा शील में दृढ़ता। बल, विवेक, दम (आत्म नियंत्रण), तथा परहित इसके चार घोड़े हैं। क्षमा, कृपा, और समता की लगाम से वे घोड़े जुड़े हैं।
ईस भजनु सारथी सुजाना। बिरति चर्म संतोष कृपाना।।
दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा। बर बिग्यान कठिन कोदंडा।।4।।
उस रथ का सुजान (ज्ञानी) सारथी ईश भजन है। विरति (अनासक्ति) ही उस रथ पर सवार योद्धा का चर्म (कवच) है। संतोष ही उसका कृपाण है। दान उसका परशु है। बुद्धि उसकी प्रचंड शक्ति (भाला) है। उसका विशेष ज्ञान (विज्ञान) ही कठिन तीर समूह है।
अमल अचल मन त्रोन समाना। सम जम नियम सिलीमुख नाना।
कवच अभेद बिप्र गुर पूजा। एहि सम बिजय उपाय न दूजा।।5।।
निर्मल और अचल मन उसके तरकश हैं, जिसमें सम भाव, यम (आत्मसंयम), और नियम नाना प्रकार के तीर भरे हैं। गुरु और विप्र (लोकहित के लिए ज्ञानार्जन करने तथा ज्ञान दान करने वाले लोग) की पूजा ही अभेद्य कवच है। विजय के लिए इसके समान कोई दूसरा उपाय नहीं है।
सखा धर्ममय अस रथ जाकें। जीतन कहं न कतहुं रिपु ताकें।।6।।
हे मित्र, ऐसा धर्ममय रथ जिसके पास है, चाहे कितने ही दुश्मन उसकी ओर देख रहे हों, उसे जीत नहीं सकते।
महा अजय संसार रिपु जीति सकइ सो बीर।
जाकें अस रथ होइ दृढ़ सुनहु सखा मतिधीर।।80(क)।।
हे धीर मति वाले सखा, सुनो - जिसके पास इस प्रकार का दृढ़ रथ है, वह वीर संसार के दुश्मन, अजेय (समझे जाने वाले) महाशक्तिशाली को भी जीत सकता है।
दमनकारी रथ बनाम विजय रथ: श्रीराम गीता का संदेश
ज्ञान पाठक - 2013-09-19 10:50
आज चारों ओर रावण सदृश लोगों के दमनकारी रथ के पहियों के नीचे आम लोग कुचले जा रहे हैं। विभीषण जैसे ज्ञानवान व्यक्ति, जिन्होंने अत्याचार और दमन का साथ तो छोड़ दिया है परन्तु दमनकारियों की शक्ति, सामर्थ्य और संसाधन देखकर भ्रमित हो गये हैं। उन्हें संदेह हो गया है। कहते हैं कि आखिर संसाधन हीन लोग कैसे उस दमनकारियों को परास्त कर पायेंगे! संसाधन हीन लोग, नंगे पैर और नंगे शरीर किस प्रकार अपनी रक्षा कर पायेंगे! ऐसी निराशा की स्थिति में श्रीराम गीता का संदेश ही एकमात्र आश्रय दिखता है।