सबसे पहली समस्या तो यही आएगी कि प्ले स्कूल के उस क्लास के सभी 30 बच्चों की मातृभाषा एक हो ही नहीं, क्योंकि भारत एक बहुभाषी देश है। इसलिए सरकार का निर्णय यह होगा कि उस प्रांत की भाषा में ही पढ़ाई हो। लेकिन दूसरे प्रांत से आकर उस प्रांत में रह रहे बच्चों के लिए वह विदेशी भाषा ही होगी। अंग्रेजी भी पाठ्क्रम में होगी, इसलिए उसे सीखने के लिए दो विदेशी भाषाएं होंगी।

बचपन में भाषाएं सीखना आसान होता है, इसलिए यह कहा जा सकता है कि वे एक साथ ही कम से कम तीन भाषाओं में कामचलाऊ रूप से दक्षता हासिल कर लेंगे। एक भाषा तो उनकी अपनी मातृभाषा होगी, दूसरी प्रांत की भाषा होगी और तीसरी होगी अंग्रेजी। हालांकि यह माना जाता है कि मातृभाषा पढ़ाई का सबसे प्रभावी माध्यम होता है, लेकिन भारत जैसे विशाल देश के लिए यह सही नहीं भी हो सकता है, क्योंकि यहां लोग पैदा होने के बाद मरने तक अलग अलग भाषाओं के माहौल में रहते हैं। स्कूलों के लिए तीन भाषा का फार्मूला इस वास्तविकता की स्वीकृति है।

लगभग सभी शिक्षित भारतीय तीन भाषाएं बोल सकते हैं। वे अपनी मातृभाषा के साथ साथ जिस इलाके में रह रहे हैं, वह भाषा भी जानते हैं। इसके अलावा अंग्रेजी भी किसी न किसी रूप में जानते हैं। हां, जो अपने इलाके से बाहर गए ही नहीं, उनकी बात कुछ और है। अंग्रेजी का महत्व पिछले कुछ समय में ज्यादा बढ़ गया है, क्योंकि यह एक ग्लोबल भाषा के रूप में उभर कर सामने आई है।

इसलिए सरकार द्वारा अंग्रेजी के महत्व को पढ़ाई की शुरूआत में कमतर करने के सरकारी निर्णय का बच्चे के मां बाप पसंद नहीं करेंगे, क्योंकि उन्हें पता है कि अंग्रेजी की जानकारी के बिना सामाजिक और पेशवर रूप से सफलता हासिल नहीं की जा सकती है। यही कारण है कि पिछले 10 सालों में अंग्रेजी मीडियम स्कूलों ेमें नामांकन कराने में 274 फीसदी वृदिध हुई है। इस वृद्धि का एक कारण सरकारी विद्यालयो मे शिक्षा के स्तर का गिरना है।

सरकारी स्कूलों के स्तर में गिरावट का करना शिक्षा का अधिकार दिलाने का अधकचरा आइडिया है। इसने सबको आठवीं कक्षा तक बिना किसी परीक्षा के भी पास कर दिए जाने को अपरिहार्य बना दिया है। इसके कारण बच्चों की पढ़ाई में रुचि कम हो गई है। कक्षा 5 के बच्चों की जांच की गई तो पता चला कि उनमें से आधे बच्चे दूसरी कक्षा की भी जानकारी नहीं रखते थे।

राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंघान परिषद की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि यदि छात्रों को यह पता हो कि उन्हें अगली क्लास में जाना ही जाना है, तो फिर उनमे पढ़ाई की इच्छा नहीं जागती है। प्रथम नाम की संस्था ने भी अपनी जांच में यह पाया है कि तीसरी क्लास के 70 फीसदी बच्चे ही 2010 में 1 से 100 तक के अंकों को पहचान सकते थे। अब वैसे बच्चों की संख्या 54 फीसदी ही रह गई है। यही कारण है कि अब बच्चे सरकारी स्कूलों की बजाय निजी स्कूलों में अपने बच्चे को भेजना ज्यादा पसंद कर रहे हैं।

अब यदि सरकार ने प्ले स्कूलों में बच्चों की अंग्रेजी पढ़ाई पर रोक लगा दी, तो मां बाप अंग्रेजी पढ़ाने के लिए निजी शिक्षकों पर भी आश्रित हो सकते हैं। आखिरकार उनकी दिलचस्पी बच्चों के भविष्य को संवारने में है। उन्हें लग सकता है कि अंग्रेजी नहीं जानने के कारण उनके बच्चे भविष्य मे हीन भावना के शिकार हो सकते हैं। अंग्रेजी का सही उच्चारण बचपन में ही सीखा जा सकता है। बाद में सही उच्चारण सीखना लगभग असंभव है। (संवाद)