राजनीति के अपराधीकरण और सार्वजनिक जीवन के भ्रष्टाचार से त्रस्त देश की जनता ने इसका स्वागत किया था। जब सरकार और राजनैतिक पार्टियां राजनीति और चुनावों को अपराधी तत्वों से मुक्त करने की सिर्फ जुबानी जंग लड़ रही हो, वैसे माहौल मे ंसुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से लगने लगा था कि देश का लोकतंत्र कुछ तो स्वस्थ होगा और भविष्य में इसे और बेहतर बनाने की उम्मीद भी जगेगी। लेकिन राजनैतिक वर्ग के एक बड़े हिस्से को सुप्रीम कोर्ट का वह आदेश मंजूर नहीं था।

केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से उस आदेश को निरस्त करने के लिए जिस अध्यादेश को मंजूरी दी हैं, वह एक काला अध्यादेश है। सच कहा जाय तो आजादी के बाद से उस तरह का काला अध्यादेश आज तक शायद कोई दूसरा तैयार ही नहीं किया गया हो, जिसमें अदालत द्वारा वर्षांे या दशकों की सुनवाई के बाद किसी सांसद या विधायक को सजा दिए जाने के बाद भी उसका कुछ खास नहीं बिगड़ने का प्रावधान कर दिया गया हो। यदि किसी सरकारी पद पर बैठे व्यक्ति की नौकरी अदालत से सजा मिलने के बाद चली जाती है, तो फिर किसी सांसद और विधायक की सदस्यता क्यों बची रहनी चाहिए? इस सवाल का कोई जवाब देने की जरूरत समझे बिना केन्द्र सरकार ने उनको बचाने की व्यवस्था कर दी है।

जब अन्ना का आंदोलन चल रहा था तो उनकी मांगों के बारे में सरकार कहती थी कि संसद सर्वापरि है और इसके बारे मंे सरकार नहीं बल्कि संसद फैसला करेगी। सवाल उठता है कि दागी विधायकों और सांसदों को बचाने के लिए केन्द्र सरकार ने संसद का सहारा क्यों नहीं लिया? इससे संबंधित विधेयक वह संसद में पेश करके वहां से पास करवा सकती थी, पर उसने अध्यादेश का रास्ता क्यों चुना? यहां गौरतब है कि सरकार ने संसद में भी इस तरह का एक विधेयक पेश किया था, जिसमें अदालत द्वारा सजा पाए गए सांसदों और विधायकों को बचाने का प्रावधान था, पर आम सहमति के अभाव में इससे संबंधित प्रावधान हटा दिए गए और सिर्फ जेलों मंे पड़े विचारधीन कैदियों के चुनाव लड़ने का ही रास्ता साफ किया गया?

दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने के मनमोहन सिंह की छवि लगातार खराब होती जा रही है। 2009 का लोकसभा चुनाव कांग्रेस ने मनमोहन सिंह की ईमानदार छवि के सहारे ही जीती थी। अमेरिका के साथ परमाणु करार के मसले पर अपनी सरकार के अस्तित्व को ही दांव पर लगाने का जो काम उन्होंने किया था, उसके कारण भी उनका छवि एक मजबूत नेता के रूप में उभरी थी, जो पद की परवाह नहीं करता। लेकिन 2009 के बाद उनकी सरकार के भ्रष्टाचार के मसले एक के बाद एक सामने आने लगे। और भ्रष्टाचार के उन मामलों के सामने अपने को लाचार दिखाने का नाटक मनमोहन सिंह करते रहे। वह कहने लगे कि गठबंधन सरकार है और वे कांग्रेस के सहयोगी दलों के मंत्रियों के आगे बेवश हो जाते हैं, लेकिन जब कांग्रेस के लोगों पर भी भ्रष्टाचार के आरोप सामने आने लगे, तो फिर मनमोहन सिंह की बोलती बंद हो गई और उनका मुह खुला भी तो अपनी पार्टी के भ्रष्ट लोगों को बचाने के लिए ही।

हद तो तब हो गई, जब प्रधानमंत्री खुद कोयला घोटाला में लिप्त पाए गए। उसके बाद तो उनकी ईमानदार छवि तार तार हो गई उनकी पार्टी और सरकार अपने भ्रष्टाचार को छिपाने के लिए मनमोहन सिंह की ईमानदार छवि का इस्तेमाल एक ढाल के रूप में कर रही थी। कोयला घोटाले ने उस ढाल को भी समाप्त कर दिया। उसके पहले जब जब भ्रष्टाचार का कोई मामला सामने आता था, तो भ्रष्ट लोगों को बचाने की हर संभव कोशिश मनमोहन सिंह करते थे। शशि थरूर द्वारा आइपीएल घोटाले में शामिल होने का तथ्य सामने आने के बाद झिझकते हुए प्रधानमंत्री ने उन्हें अपनी सरकार से बाहर हो जाने के लिए कहा था, लेकिन फिर वे उन्हें अपनी सरकार में ले आए। सलमान खुर्शीद और उनकी पत्नी पर भ्रष्टाचार का जब मामला आया, तो उन्होंने उनकी पदोन्नति करके कानून मंत्री से विदेश मंत्री बना दिया। पी चिदंबरम के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हो, उन्होनंे इसे भी सुनिश्चित करवाया। रेल मंत्री पवन बंसल का भी वे अंत अंत तक बचाव करते रहे। अश्विनी कुमार को भी उन्होंने अंत तक बचाया और मं.ी पद से हुए उनके इस्तीफे के बाद उन्हें एक दूसरे महत्वपूर्ण पद पर बैठा दिया।

सजायाफ्ता सांसदों और विधायकों को बचाने वाला अध्यादेश अपनी सरकार से पास करवा कर मनमोहन सिंह ने अब यह साबित कर दिया है कि भ्रष्ट और अपराधी लोगों को बचाने वालों में वे सबसे आगे हैं। ऐसा करने के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं। उन्हें इसके लिए न तो लोगों की परवाह है और न ही चुनाव की। गौरतलब है कि पांच राज्यों की चुनाव अभी सिर पर मंडरा रहे हैं। इन में चार चुनाव तो काफी महत्वपूर्ण हैं, जिनमें दो में कांग्रेस की सरकार है और अन्य दो में कांग्रेस मुख्य विपक्षी दल है। इस काले अध्यादेश का इन चुनावांे पर भी जरूर असर पड़ेगा, क्योकि भारतीय जनता पार्टी जो इन चार राज्यों में कांग्रेस की मुख्य प्रतिद्वंद्वी पार्टी है, इस मसले को जोर शोर से उठाएगी और इसका खामियाजा मनमोहन सिंह की कांग्रेस को जरूर उठाना पड़ेगा। इसके कारण इन चारों राज्यों में कांग्रेस की हार सुनिश्चित हो जाएगी।

लेकिन लगता है कि मनमोहन सिंह को अपनी कांग्रेस की भी परवाह नहीं है। अन्यथा इस तरह का काला अध्यादेश उनकी सरकार कभी नहीं लाती। गुजरात के मुख्यमंत्री और भाजपा के प्रधानमंत्री उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी कांग्रेस मुक्त भारत बनाने का नारा दे रहे हैं। भारत को कांग्रेस से मुक्त करना किसी अन्य पार्टी से संभव तो नहीं है, लेकिन यदि कांग्रेस खुद ही इस तरह के निर्णय लेने लगे, जिससे वह भ्रष्टाचार और अपराध का पर्याय लगने लगे, तो फिर उसे शायद ही कोई बचा सकता है और उसे समाप्त होने के लिए किसी बाहरी तत्व की जरूरत नहीं पड़ेगी। (संवाद)