जब 1990 मे लालू बिहार के मुख्यमंत्री बने थे, तो उस समय उनकी गिनती बिहार के उनके ही दल के बड़े नेताओं में नहीं की जाती थी, पर मुख्यमंत्री बनने के बाद उनका कद काफी बढ़ गया और बिहार के अन्य नेताओं को उन्होंने काफी पीछे छोड़ दिया। उनकी सरकार शुरू में भाजपा के समर्थन पर टिकी थी। आडवाणी की गिरफ्तारी के बाद भाजपा ने उनकी सरकार से समर्थन वापस ले लिया, पर भाजपा को ही तोड़कर उन्होंने अपनी सरकार बचाने में सफलता हासिल कर ली। फिर तो उनकी पार्टी में भी जबतब विद्रोह होने लगे और तोड़फोड़ की राजनीति करते हुए वे 1995 विधानसभा चुनाव तक अपनी सरकार को खींचते गए। 1995 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने अपनी पार्टी को अपने बूते ही बहुमत दिला दिया और अपने मोर्चे को दो तिहाई बहुमत दिलाने में सफलता हासिल कर ली।
उसके बाद तो लालू का सितार बुलंदियों को छूने लगा। कायदे से उन्हें 1996 में भारत का प्रधानमंत्री होना चाहिए था, लेकिन उनके अपने जनता दल के ही दो राष्ट्रीय नेता उनके नाम पर तैयार नहीं थे। उनकी छवि भी एक अगंभीर और हसोड़ नेता की थी, इसलिए चुनाव के बाद बने संयुक्त मोर्चे के दूसरे दलों के नेताओं के बीच भी उनकी छवि ऐसी नहीं थी कि कोई उन्हें प्रधानमंत्री के योग्य भी समझ पाता। इसलिए वे किंग नहीं बन पाए, लेकिन देवेगौड़ा को प्रधानमंत्री बनाकर उन्होंने अपने आपको किंगमेकर का तगमा जरूर दे डाला था। देवेगौड़ा के प्रधानमंत्री पद से हटने के बाद जब मुलायम सिंह यादव को प्रधानमंत्री बनाए जाने पर सहमति बन रही थी, लालू ने अपना वीटो लगा दिया और कहा कि चूंकि मोर्चे में उनका दल सबसे बड़ा है, इसलिए उनके दल का ही कोई व्यक्ति प्रधानमंत्री बन सकता है। फिर उन्होंने इन्द्र कुमार गुजराल को प्रधानमंत्री बनवा दिया। इस तरह किंग मेकर के रूप में उनकी ख्याति और भी बढ़ गई।
केन्द्र की राजनीति में दो दो प्रधानमंत्रियों की नियुक्ति करवाने वाले लालू यादव अपने प्रदेश की राजनीति में ही अपने आपको जमा नहीं सके। सच कहा जाय, तो बिहार की राजनीति में उनका उत्थान वहां की खास राजनैतिक परिस्थितियों की वजह से हुआ था। उसमें उनका कुछ भी योगदान नहीं था। कर्पूरी ठाकुर ने पिछड़े वर्गों के लोगों में जो जातीय चेतना पैदा कर दी थी, उसका पूरा पूरा लाभ लालू को मिला, लेकिन राजनीति मे किस कारण वे मजबूत हैं, इसे वे खुद भी नहीं समझ पाए और मुस्लिम यादव के समीकरण की राजनीति कर खुद को जातिवादी और साम्प्रदायवादी राजनीति की ओर धकेल दिया। मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने अपने कर्तव्यों को भी सही ढंग से नहीं निभाया और समाज के जिन वर्गों ने उन्हें सत्ता तक पहुंचाया था, उन कमजोर वर्गो के लोगों को ही बिहार के जंगल राज का शिकार बना दिया। इसके कारण पिछड़े वर्गों के मसीहा के रूप से उनका पतन एक जातिवादी नेता के रूप में हो गया। उनकी अपनी अपनी जाति तक सीमित होकर रह गई और उन्होंने मुसलमानों का समर्थन बनाए रखने के लिए उसमें सांप्रदायिकता का छौंक लगाना जारी रहा। यानी लालू की राजनीति यादवी जातिवाद और मुस्लिम सांप्रदायिकता तक सीमित रह गई थी।
पिछड़े वर्गो की आकांक्षाओं के साथ विश्वासघात का नतीजा यह निकला कि वे 2009 में एक लोकसभा क्षेत्र से अपना चुनाव भी हार गए। अगले साल विधानसभा चुनाव में उनकी पत्नी राबड़ी देवी दोनों विधानसभा क्षेत्रों से चुनाव हार गईं। 2005 के विधानसभा चुनाव से ही उनकी हार का सिलसिला शुरू हो गया था, लेकिन उसके बावजूद यादवों के एकक्षत्र नेता होने और मुसलमानों के ज्यादातर लोगो ंके समर्थन के कारण व्यक्तिगत रूप से वे बिहार के सबसे मजबूत राजनेता बने रहे।
अब वे जेल चले गए हैं। हो सकता है कि जमानत पर वे बाहर भी आ जाएं, लेकिन अब अगला चुनाव वे लड़ नहीं पाएंगे। चारा घोटाला के 4 अन्य मुकदमों में भी उनपर मामला चल रहा है। उसके फैसले आने बाकी हैं। इसलिए अब शायद भविष्य में कोई भी चुनाव वे लड़ नहीं सकेंगे। इसका सीधा असर उनके अपने मुस्लिम यादव राजनैतिक समीकरण पर पड़ेगा। जाति के नाम पर यादवों का समर्थन वे भले कुछ समय तक बनाए रखें, लेकिन मुसलमानों के पास अन्य विकल्प भी है। एक विकल्प तो अब नीतीश कुमार ही हो गए हैं, जिन्होंने मुसलमानों की चिंता दिखाते दिखाते अपने आपको भाजपा से अलग कर लिया। बहुत संभव है कि कांग्रेस भी नीतीश के साथ गठबंधन कर लें। रामविलास पासवान अभी भी नीतीश विरोधी राजनीति कर रहे हैं, पर वे भी नीतीश से हाथ मिलाने में संकोच नहीं करेंगे। जाहिर है मुसलमानों के पास नीतीश- कांग्रेस- रामविलास के गठजोड़ का विकल्प होगा और भाजपा को केन्द्र की सत्ता में आने से रोकने के लिए वे लालू को पूरी तरह छोड़कर उधर जा सकते हैं। जब मुस्लिम यादव समीकरण लालू की जीत सुनिश्चित नहीं करवा सकते, तो फिर अकेले यादव लालू का क्या भला करेंगे? जाहिर है, वे भी सत्ता में बने रहने के लिए कहीं और कोई ठिकाना तलाशेंगे। उनके सामने नीतीश कुमार होंगे और भाजपा होगी। वे भाजपा से ज्यादा नीतीश विरोधी हैं। इसलिए वे भाजपा की ओर आकर्षित हो सकते हैं। भाजपा ने विधानसभा में अपना नेता नन्दकिशोर यादव को बना रखा है। वे विधानसभा में विपक्ष के नेता भी हैं। नन्दकिशोर यादव के कारण भाजपा की ओर बिहार के यादव खिंच सकते हैं।
मुस्लिम नीतीश की ओर और यादव नरेन्द्र मोदी की ओर- यह बिहार की राजनीति का एक अनोखा दौर होगा। सच तो है कि बिहार की राजनीति इस दौर में प्रवेश करने जा रही है। लालू को मिली सजा ने नीतीश कुमार के लिए संजीवनी का काम किया है। भाजपा से अलग होने के बाद बिहार की राजनीति में उनके अप्रासंगिक हो जाने का खतरा पैदा हो गया था, क्योंकि मुससमाल लालू का साथ छोड़ते हुए नहीं दिखाई दे रहे थे, पर अब स्थिति बदल गई है। डूबती हुई नाव की सवारी मुसलमान नहीं करते और सजा पाने के बाद लालू अब डूब चुके हैं। इसका लाभ नीतीश उठाएंगे। लेकिन इसके कारण भारतीय जनता पार्टी को भी लाभ होगा, जो पहले से ही नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में हौसला बुलंदी के दौर से गुजर रही है। (संवाद)
चारा घोटाले में लालू को सजा
बिहार की राजनीति का एक अध्याय समाप्त
उपेन्द्र प्रसाद - 2013-09-30 18:18
पिछले 23 सालों से बिहार की राजनीति की सबसे ताकतवर नेता रहे लालू प्रसाद को चारा घोटाले मे सजा मिलने के बाद देश की तीसरी सबसे बड़ी आबादी वाले इस राज्य की राजनीति का एक अध्याय समाप्त हो गया है। आज से बिहार की राजनीति वह नहीं रहेगी, जो कलतक थी। अब उनके राष्ट्रीय जनता दल का भविष्य अनिश्चित ही नहींत्र बल्कि अंधकारमय भी हो गया है। उनके पुत्र 25 वर्षीय तेजस्वी यादव उनके दल की लालटेन जलाए रह पाएंगे, इसकी संभावना नहीं के बराबर है। उनका दल पूरी तरह उन पर ही आश्रित था और उनके सजा पाने के बाद उसके नीचे की जमीन धसक चुकी है।