चुनावी व्यवस्था में अनेक गड़बडि़यां हैं और उनके कारण लोगों में भारी ंिचंता भी है। ऐसी बात नहीं है कि अ्रन्य लोकतांत्रिक देशों में इस तरह की समस्या नहीं है। कुछ देशों में तो भ्रष्टाचार के बहुत ही सौफिसिटकेटेड तरीके का इस्तेमाल होता है। अमेरिका में कार्पोरेट हाउस लाबी करने वाले समूहों के जरिए भुगतान करते हैं। वहां चंदे उगाहने वाले भोज आयोजित किए जाते हैं।

भारत भी एक लोकतंत्र है और यहां 15 बार सत्ता का परिवर्तन हुआ है। ये परिवर्तन बहुत अच्छे तरीके से हुए हैं और किसी प्रकार की अप्रिय घटना कभी नहीं घटी। देश की लगभग सभी पार्टियां कभी न कभी और किसी न किसी रूप में केन्द्र सरकार में सत्ता में रह चुकी हैं। इस मायने में हमारा लोकतंत्र ठीक है, लेकिन हाल ही के दिनों में गठबंधन का दौर शुरू हो गया है और अनेक पार्टियां एक साथ सत्ता में शामिल होती हैं। पर सच यह भी है कि पार्टियों में बहुत सारी खामियां आ गर्इ हैं, जिनकी सफार्इ जरूरी है। पार्टियों में आर्इ खामियों के कारण चुनाव की प्रकि्रया भी दोषयुक्त हो गर्इ है। इस प्रकि्रया को सही करना जरूरी है, तभी देश के सार्वजनिक जीवन से भ्रष्टाचार हटाया जा सकता है। यही कारण है कि आज देश में चुनाव सुधार की सख्त आवश्यकता है।

यदि हम लोकसभा सदस्यों की पृष्ठभूमि को देखते हैं तो पाते हैं कि उनमें से एक तिहार्इ पर आपराधिक मामले चल रहे हैं। 543 सदस्यों में से 158 पर अदालत मे मामले चल रहे हैं। इन सांसदों के खिलाफ 500 से भी ज्यादा मामले हैं। सभी पार्टियों में इस तरह के लोग हैं। सवाल उठता है कि अपराधियों का दबदबा बढ़ा क्यों? पार्टियां कहती है कि आखिर वे जनता के द्वारा ही तो चुने जाते हैं। दूसरी तरफ जनता कहती है कि उन्हें तो उन्हीें लोगों में से चुनना होता है, जो चुनाव में खड़े होते हैं।

सभी पार्टियां सिदधांत रुप से इस बात से सहमत हैं कि आपराधिक रिकार्ड वाले लोगों को चुनाव नहीं लड़ने दिया जाना चाहिए। लेकिन व्यवहार में उनका रवैया कुछ और होता है। आखिर ऐसा क्यों होता हैं? जब सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि दो साल से ज्यादा की सजा पाने वाले सांसदों और विधायकों को भी चुनाव लड़ने पर रोक लगे, तो उस आदेश के पलटने की कोशिश भी हुर्इ। क्या हम आपराधिकरण के मूल कारणों की खोज नहीं कर सकते?

लोकतांत्रिक व्यवस्था दबंगों और धनपशुओं की गिरफत में तेजी से जा रही है। हम यह भी नहीं कह सकते कि हमारे राजनेताओं के पास इस समस्या पर सोचने के लिए समय नहीं है। अभी चुनाव सुधार विधेयक तैयार है और यह पिछले दो दशकों से संसद के सामने पड़ा हुआ है। यही कारण है कि अब लोग सुप्रीम कोर्ट में जाते हैं और वहीं से चुनाव सुधार की आशा लगाते हैं। जब कभी भी सुप्रीम कोर्ट का निर्णय सुधार कार्यक्रमों के पक्ष में आता है, तो लोगों द्वारा उसका स्वागत किया जाता है।

उम्मीदवार चुनावों के दौरान हुए वास्तविक खर्च को भी छुपाते हैं। 2009 के लोकसभा चुनाव में 6753 उम्मीदवार थे। उनमें सभी ने अपने चुनावी खर्च को ब्यौरा निर्वाचन आयोग को दिया। उससे पता चलता है कि उन्होंने चुनावी खर्च की सीमा का 45 से 55 फीसदी ही खर्च किया था। जबकि सच्चार्इ यह नहीं है। सच तो यह है कि तय सीमा से बहुत ज्यादा पैसे खर्च किए जाते हैं। यही कारण है कि पार्टियां ऐसे लोगों को टिकट देती हैं, जिनके पास बहुत सारे पैसे हों। अनेक काले धन के मालिकों को पसंद किया जाता है। इस तरह वैसे लोग कानून बनाने वाली संस्थाओं में चुनकर आ जाते हैं, जिनकी पष्ठभूमि कानून तोड़ने की रही है।

चुनाव सुधार की बातें होती रही हैं, लेकिन राजनैतिक वर्ग द्वारा शायद ही कोर्इ प्रयास हो रहा है। सुप्रीम कोर्ट सुधार से संबंधित आदेश जारी करता है। एक आदेश था कि उम्मीदवार अपने बारे में चल रहे सभी आपराधिक मामलों को नामांकन के समय सार्वजनिक करे। आदेश का पालन हो रहा है और हमें पता चल रहा है कि कितने विधायक या सांसद आपराधिक पृष्ठभूमि के हैं और उनके अपराधों की प्रकृति क्या है। राजनैतिक पार्टियों को अपना इनकम टैक्स रिटर्न सार्वजनिक करने के लिए भी अदालत द्वारा कह दिया गया है। अब तो केन्द्रीय सूचना आयोग द्वारा 6 राष्ट्रीय पार्टियों को सूचना के अधिकार के दायरे मे लाने का आदेश भी जारी कर दिया गया है, हालांकि राजनैतिक पार्टियां इसका विरोध कर रही हैं और कानून बनाकर इस आदेश को निरस्त करने की फिराक में है। (संवाद)