क्या कांग्रेस को नहीं चाहिए कि वह अपने आपको 21वीं सदी के अनुरूप ढाले और अपने अतीत से चिपकने की प्रवृति को त्यागे? पार्टी के अंदर इस सवाल पर बहस हो रही है। विधानसभा चुनावों मंे मिली भारी विफलता के बाद कांग्रेस के हताश नेता एक हताशापूर्ण बहस में संलग्न हो गए हैं। अतीत में कांग्रेस ने कई बार चुनाव जीता है और उसकी कई बार हार भी हुई है। लेकिन उसकी आज जैसी हालत है, वैसी कभी नहीं थी।
सीताराम केसरी से पार्टी की कमान अपने हाथ में लेने के बाद सोनिया के नेतृत्व में हुए 1999 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को अपने इतिहास की सबसे करारी हार का सामना करना पड़ा था। तब पार्टी को लोकसभा चुनाव में मात्र 112 सीटें मिली थीं, जो सीताराम केसरी के नेतृत्व में 1998 के प्रदर्शन से भी बहुत खराब थी। केसरी के नेतृत्व में कांग्रेस को 141 सीटें हासिल हुई थीं।
लेकिन 1999 की हार के बाद सोनिया गांधी ने अपनी पार्टी की रणनीति बदली और फैसला किया कि वह गठबंघन की राजनीति का नेतृत्व करेगी। इसका पार्टी को लाभ हुआ और इसके कारण पार्टी के नेतृत्व में 2004 में यूपीए की सरकार बनी। सोनिया गांधी के कार्यकाल में ही देश में गैर कांग्रेसवाद की राजनीति का खात्मा हुआ। ज्योति बसु तक कांग्रेस से हाथ मिलाने को तैयार हो गए।
कांग्रेस ने 2009 के लोकसभा चुनाव में अपनी स्थिति और भी सुधार ली और इस बार बिना वाम मोर्चा के समर्थन के ही यूपीए सरकार का गठन कर लिया। लेकिन कांग्रेस की समस्या की शुरुआत 2009 के लोकसभा चुनाव के बाद ही शुरू हो गई। महंगाई आसमान पर चढ़ती जा रही थी और उसके बाद एक के बाद एक घोटाले के मामले सामने आने लगे। उन मामलों पर कांग्रेस का रवैया कुछ ऐसा रहा, जिसके कारण लोगों के बीच उसकी छवि खराब होने लगी। अपनी खराब होती छवि के सामने मनमोहन सिंह की ईमानदार छवि का इस्तेमाल कांग्रेस ढाल की तरह करती रही, लेकिन मनमोहन सिंह पर भी भ्रष्टाचार का सीधा आरोप लगने लगा और फिर कांग्रेस मनमोहन सिंह की ईमानदारी की दुहाई देने की स्थिति में भी नहीं रही।
विधानसभा चुनाव नतीजों के सामने आने के बाद अब बिलकुल साफ हो गया है कि कांग्रेस का लोगों से संपर्क टूट गया है। संगठन बहुत कमजोर हो गया है। कांग्रेस का संगठन तो आम आदमी पार्टी के संगठन से भी कमजोर दिखाई दे रहा है, जो मात्र एक साल पुरानी है। कांग्रेस नेतृत्व की कमजोरी अब उस सीमा तक पहुंच गई है कि पार्टी के ही कुछ सांसदों ने सरकार के खिलाफ तेलंगाना राज्य के गठन का विरोध करते हुए अविश्वास प्रस्ताव पेश कर दिया है। ऐसा आजतक कभी नहीं हुआ था।
कांग्रेस को अब यह बात स्वीकार कर लेनी चाहिए कि मतदाता मुफ्त की रोटी खाने में विश्वास नहीं रखते। उन्हें भीख नहीं, रोगजार और आमदनी चाहिए। वे अपना जीवन स्तर ऊंचा करना चाहते हैं, न कि सरकारी खैरात पर जिंदा रहने की उनकी कोई कामना है। यही कारण है कि खाद्य सुरक्षा कानून का काई लाभ कांग्रेस को नहीं मिला। इस कानून को कांग्रेस ने दिल्ली में लागू करने का दावा भी किया था, लेकिन दिल्ली में उसकी अभूतपूर्व पराजय हुई और वह बहुत नीचे तीसरे स्थान पर पहुंच गई।
कांग्रेस को महंगाई के मुद्दे ने भी मारा। जिस तरह से सब वस्तुओं की कीमतें बढ़ रही हैं, उसके कारण लोगों मंे भयावह असंतोष पनप रहा है। बाजार में तो कीमते बढ़ ही रही है, सरकार अपने निर्णयों से भी कीमतें बढ़ा रही हैं। कांग्रेस को यदि अपने भविष्य की परवाह है, तो उसे महंगाई को किसी भी कीमत पर संयमित करना होगा। इसके अलावा भ्रष्टाचार के मसले पर भी पार्टी को कुछ ऐसे कदम उठाने होंगे, जिससे लोगों को लगे कि वह वास्तव में भ्रष्टाचार को एक समस्या मानती है और इसे समापत करने के लिए कृतसंकल्प है।(संवाद)
कांग्रेस ने अब अपने अंदर झांका
राहुल के नेतृत्व की विफलता को स्वीकारने के संकेत दिए
कल्याणी शंकर - 2013-12-13 11:53
साल 2013 की शुरुआत कांग्रेस द्वारा राहुल गांधी को उपाध्यक्ष बनाने से हुई थी। उन्हें अध्यक्ष बनाते समय कांग्रेस को बहुत उम्मीदें बंध गई थी। पर साल का अंत ऐसे माहौल में हो रहा है, जिसमें कांग्रेस कैंप में हताशा और निराशा का माहौल है। जिन कांग्रेस नेताओं को किनारा कर दिया गया था, वे कह रहे हैं कि राहुल नहीं चला। मनमोहन सिंह सरकार भी निशाने पर है। कुछ नेता मानते हैं कि अब सोनिया गांधी को पार्टी की कमान अपने हाथ में एक बार फिर ले लेनी चाहिए।