राजनैतिक पार्टियों को लेकर भले ही लोगों मंे संशय का भाव पैदा हो गया हो और वे भ्रष्टाचार व कुशासन के लिए उन्हें जिम्मेदार मानते हैं। इसके बावजूद लोगों का उनसे मोह भंग नहीं हुआ है। इसका पता पिछले दिनों विधानसभा के हुए चुनावों में देखने को मिलता है, जिनमें भारी संख्या में लोगों ने अपने अपने मत डाले।
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने पिछले दिनों की दिल्ली की यात्रा की। उनकी यात्रा के दौरान लोगों की इस पर नजर टिकी रही कि क्या क्षेत्रीय पार्टियों के किसी संघ के गठन पर वे किसी से बात कर रही हैं या नहीं। तृणमूल नेताओं को उम्मीद थी कि उस दौरे के दौरान इस मसले पर अन्य दलों के साथ तृणमूल की ज्यादा से ज्यादा बातचीत होती।

लेकिन तृणमूल को उस दिशा में मिलने वाला संकेत न तो नकारात्मक था और न ही सकारात्मक। भारतीय जनता पार्टी और जगन मोहन रेड्डी की पार्टी के नेतओं से तृणमूल कांग्रेस का संपर्क बना, पर कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और जनता दल (यू) ने ममता बनर्जी से बातचीत करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। इसका एक कारण तो यह है कि ममता बनर्जी का वाम दलों के साथ 36 का आंकड़ा है और अधिकांश क्षेत्रीय पार्टियों की पहली पसंद इस समय वाम पार्टियां हैं।

सच तो यह है कि समाजवादी पार्टी औैर जनता दल (यू) के नेताओं ने साफ कर दिया कि इस समय उनकी दिलचस्पी तृणमूल कांग्रेस से किसी प्रकार के गठबंधन पर बात करने की है ही नहीं। जाहिर है, यह ममता को अच्छा नहीं लगा, क्योंकि वे इस समय राष्ट्रीय स्तर पर अपना पंख फैलाने की कोशिश कर रही हैं।

ममता बनर्जी अकेले जाने की बात बार बार कह रही हैं। वे न तो अपने आपको कांग्रेस के साथ दिखना चाहती हैं और न ही भाजपा के साथ। पिछले विधानसभा चुनावों के नतीजों की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि लोगों ने कांग्रेस के खिलाफ मतदान किया और उस नकारात्कमता का लाभ भारतीय जनता पार्टी को हुआ। सबसे दिलचस्प बात तो यह है कि उन्होंने न तो भारतीय जनता पार्टी और नरेन्द्र मोदी के खिलाफ कुछ ऐसी बातें की, जिनसे लगे कि वह उनके सख्त खिलाफ हैं।

वह अभी देश की राजनीति की नब्ज टटोल रही है। वह कांग्रेस और भाजपा के बीच अपने आपको समान दूरी पर रखना चाहती हैं। नरेन्द्र मोदी को लेकर भी वह बहुत ही सतर्क हैं और न तो उनके पक्ष में बोलना चाहती हैं और न ही उनकी आलोचना करना चाहती हैं।

तृणमूल कांग्रेस यदि किसी बात को लेकर सबसे ज्यादा उत्साहित है, तो वह पश्चिम बंगाल में अपनी सफलता को लेकर है। वहां से 42 सांसद लोकसभा में जाते हैं। तृणमूल को लगता है कि उन 42 सीटों में 34 से 38 पर उसकी जीत हो सकती है। हालांकि कांग्रेस और वामपंथी दल तृणमूल के इस दावे को गलत बताते हैं।
कांग्रेस या वाम पार्टियां जो भी कहें, लेकिन यह सच है कि ममता बनर्जी की ताकत पश्चिम बंगाल में दिनों दिन बढ़ती जा रही है। प्रशासन के स्तर पर भी ममता को कामयाबी मिल रही है। दार्जिलिंग और उसके आसपास के इलाकों में शांति स्थापित हो गई है। जंगल महल इलाकों में माओवादी गतिविधियों को भी लगाम लग रहा है। ग्रामीण इलाकों में विकास कार्यों को भी बढ़ावा मिल रहा है। औद्योगिक निवेश भी बढ़ रहा है। दो साल पहले औद्योगिक निवेश सिर्फ 312 करोड़ रुपये का ही था। इस साल यह बढ़कर 2500 करोड़ रुपये का हो गया है।

लोकसभा चुनाव के बाद के परिदृश्य को लेकर एक राय यह है कि न तो भाजपा और न ही कांग्रेस सरकार बनाने की स्थिति में होगी और तब कोई गैर कांग्रेस गैर भाजपा दलों का गठबंधन सरकार बना सकता है। यह भी माना जा रहा है कि ऐसे गठबंधन की सरकार अपने बूते पर नहीं बनेगी, बल्कि उसे कांग्रेस और भाजपा में से किसी एक का समर्थन लेना होगा, तभी बहुमत का आंकड़ा उसे हासिल होगा। ममता बनर्जी की नजर इस संभावित परिदृश्य पर है। 34 से 38 सीटें हासिल कर उनकी पार्टी लोकसभा की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में भी उभर सकती है, क्योंकि उत्तर प्रदेश में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा के मजबूत होने के कारण मुलायम और माया की सीटें बढ़ नहीं पाए। तब क्षेत्रीय दलों की सबसे बड़ी पार्टी का रुतबा पाकर ममता बनर्जी प्रधानमंत्री बनने की सोच सकती है, शर्त यह है कि उस गठबंधन को कांग्रेस और भाजपा में से किसी एक का समर्थन हासिल हो। यही कारण है कि नरेन्द्र मोदी और भाजपा को लेकर बयानबाजी से बच रही हैं।(संवाद)