यह सच है कि जिस लोकपाल के लिए आंदोलन किया गया था, उस लोकपाल से यह बहुत कमजोर है और हम इससे ज्यादा उम्मीदें नहीं बांध सकते। खुद अन्ना हजारे कह रहे हैं कि इस लोकपाल से 40 से 50 फीसदी भ्रष्टाचार ही कम होंगे। जनलोकपाल के मूल मसौदे को तैयार करने में केन्द्रीय भूमिका निभाने वाले अरविंद कुमार केजरीवाल का कहना है इस लोकपाल से भ्रष्ट मंत्री तो क्या एक चूहा भी पकड़ में नहीं आएगा। जाहिर है कि भ्रष्टाचार के विरोध हम जिस संस्थागत बदलाव का आंदोलन कर रहे थे, वह बदलाव इस लोकपाल से पूरी तरह संभव नहीं हो पाएगा।

फिर भी इतना तय है कि उस लक्ष्य की ओर बढ़ने का यह पहला कदम है। एक कहावत है कि ’’ न मामा से काना मामा अच्छा’’ इसलिए लोकपाल नहीं होने से लोकपाल होना तो अच्छा है ही। और यह संभव हुआ है एक आंदोलन के कारण। यह सच है कि जब आंदोलन अपने चरम पर था, तब भी यह सरकार नहीं झुकी थी और देश का राजनैतिक वर्ग भी आंदोलन के सामने अपना हठी स्वरूप त्याग नहीं रहा था। आंदोलनकारियों को वे कह रहे थे कि सड़क पर नहीं, बल्कि संसद से कानून बनता है और वे चुनौती दे रहे थे कि अनशन और आंदोलन की राजनीति को त्यागकर वे चुनाव की राजनीति में आएं।

उस चुनौती का ही परिणाम था कि आंदोलन को एक राजनैतिक दल का रूप लेना पड़ा। आम आदमी पार्टी का गठन राजनैतिक वर्ग की उस चुनौती का ही परिणाम है, जिसमें अनशन को छोड़कर चुनाव द्वारा संसद में आकर कानून बनाने की बात की जा रही थी। हालांकि अन्ना को राजनैतिक पार्टी बनाना रास नहीं आया और उन्होंने अपने आपको इस राजनैतिक पार्टी से दूर रखा है, पर वे भी इस तथ्य को नकार नहीं सकते कि यदि वर्तमान लोकपाल बनाना है, तो उसका तात्कालिक कारण दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को मिला जनसमर्थन है।
यदि आम आदमी पार्टी को दिल्ली में जीत नहीं मिलती और कांग्रेस के सामने अपनी समाप्ति और भाजपा के सामने 2014 के लोकसभा चुनाव में हार का खतरा नहीं रहता, तो जो लोकपाल हमें मिला है, वह भी नहीं मिलता। हम देख चुके हैं कि किस तरह 29 दिसंबर, 2011 के बाद सरकारी विपक्षी पार्टियों ने लोकपाल विधेयक को भुला दिया था। एक बेहतर लोकायुक्त कानून को बनाने वाली उत्तराखंड सरकार की उस समय सत्तारूढ़ पार्टी भारतीय जनता पार्टी की उत्तराखंड विधानसभा चुनाव में हार के बाद भी भ्रष्टाचार विरोधी यह आंदोलन समाप्त हो गया सा लग रहा था।

कोई आंदोलन लंबे समय तक मुखर नहीं रह सकता। खासकर भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में तो हरगिज नहीं, जहां देश की जनता को समय समय पर चुनाव के दौरान अपने निर्णयों द्वारा सत्ता को बदलने या न बदलने का विकल्प दिया जाता है। इसलिए भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का आम आदमी पार्टी का रूप लेना एक बहुत बड़ी घटना थी। आम आदमी पार्टी की दिल्ली विधानसभा चुनाव में अच्छी सफलता इस बात का उद्घोष थी कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने का आम लोगों का जज्बा अभी मरा नहीं है। और इसी जज्बे से हमारा राजनैतिक वर्ग डरा और उसे वह लोकपाल विधेयक लाना पड़ो, जिसे लाने से वह पिछले 46 साल से घबरा रही थी।

इस लोकपाल के लिए राहुल गांधी श्रेय ले रहे हैं, लेकिन यदि किसी एक व्यक्ति को इसका श्रेय दिया जाना चाहिए तो वह अन्ना हजारे हैं। सच कहा जाय, तो राहुल गांधी को आंदोलन के दौरान अपनी स्थिति स्पष्ट करने का बहुत अवसर मिला था, पर वे उस समय खामोश थे। यदि उस समय ही वे सक्रिय होकर इस लोकपाल को या इससे बेहतर लोकपाल को संभव बनाते तो इसका श्रेय उन्हें जरूर मिलता, पर उस समय तो वे चुपचाप रहे और एक संवेदनहीन भाषण लोकसभा में जाकर दे डाला था।

बहरहाल, जो लोकपाल बना है उससे बहुत उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। इससे न्यायपालिका को बाहर कर दिया गया है और सिटीजन चार्टर भी इसका हिस्सा नहीं है। सिटीजन चार्टर भ्रष्टाचार से लोगों को राहत देने के लिए अनिवार्य है, क्योकि उसके तहत ही यह तय किए जाने हैं कि किसी व्यक्ति का समय पर सरकारी कार्यालयों में होता है या नहीं। लेकिन सरकार कह रही है कि वह अलग से सिटीजन चार्टर का कानून लाएगी। पर सवाल उठता है कि यदि सिटीजन चार्टर के अनुसार काम न करने की शिकायत लोकपाल के पास नहीं की जा सकती है, तो फिर वह चार्टर भी कुछ वैसा ही होगा, जैसा दिल्ली की प्रदेश सरकार का सिटीजन चार्टर है।

सीबीआई की अपराध निरोधी शाखा को केन्द्र सरकार के नियंत्रण से मुक्त किए बिना भी हम भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रभावी व्यवस्था की सोच नहीं सकते। हमारे देश ने देखा है कि किसी तरह से सीबीआई के सरकारी नियंत्रण का दुरुपयोग मुलायम सिंह यादव और मायावती जैसे नेताओं को बचाने और उन्हें केन्द्र सरकार का समर्थन करने के लिए बाध्य करने को हुआ है। इसलिए सिर्फ यह प्रावधान करने से काम नहीं चलेगा कि सीबीआई लोकपाल द्वारा दिए गए मामलों से संबंधित रिपोर्टिंग लोकपाल को ही करेगी। यदि सीबीआई को लोकपाल के अंदर नहीं लाया जा सकता, तो लोकपाल के तहत एक अन्य जांच एजेंसी का गठन किया जाना चाहिए था।

भ्रष्टाचार न्यायपालिका में भी है, लेकिन उसे लोकपाल के दायरे से बाहर कर दिया गया है। न्यायपालिका भी राज्य का एक हिस्सा है और उसके भ्रष्टाचार के कारण देश में अनेक किस्म की समस्याएं पैदा हो रही हैं। उसकी विफलता के कारण देश के अनेक हिस्सों में समानांतर सरकारें चला करती हैं, क्योंकि अनेक लोगों को लगता ही नहीं कि उन्हें अदालत से सही तरीके से सही समय पर न्याय मिल पाएगा। लेकिन उसे भी लोकपाल की हद से बाहर कर दिया गया है।

क्मजोर होने के बाद भी इस लोकपाल कानून का स्वागत किया जाना चाहिए, क्योंकि इसकी कमजोरियां सामने आने के बाद उनमे सुधार के लिए लोगों की ओर से फिर आंदोलन की उम्मीद की जा सकती है। इस कानून के बनने से यह भी साफ हो गया है कि भले कानून बनाना संसद का काम है, लेकिन असली संप्रभुता का वास देश के लोगों में है और वे चाहें, तो संसद पर दबाव बनाकर अपने मन माफिक कानून बना सकते हैं।(संवाद)