इसका कारण यह है कि ये वही लोग हैं, जो दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को एक भी सीट पर जीत की बात मानने को तैयार नहीं थे। वे बहुत ही आत्मविश्वास से पूछते थे कि एक ऐसी सीट बताओ, जहां आम आदमी पार्टी का उम्मीदवार जीत सकता है। यदि उसका जवाब देते हुए कोई कहता था कि केजरीवाल खुद ही अपनी सीट जीत सकते हैं, तो उनका जवाब होता था कि उसकी तो वहां जमानत जब्त हो जाएगी। हमने देखा कि उनकी भविष्यवाणी गलत साबित हुई। अरविंद केजरीवाल न केवल जीते, बल्कि अपने प्रतिद्वंद्वाी कांग्रेसी शीला दीक्षित और भाजपा के बिजेन्द्र गुप्ता के संयुक्त मतों से भी ज्यादा मत प्राप्त करके जीते। शीला दीक्षित तो दिल्ली की मुख्यमंत्री थी, पर बिजेन्द्र गुप्ता भी कोई अनजान उम्मीदवार नहीं थे, बल्कि वे दिल्ली प्रदेश भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष रह चुके हैं और दिल्ली भाजपा में मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार भी थे। यह दूसरी बात है कि भाजपा ने हर्षवर्धन को अपना मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित कर रखा था।
जाहिर है दिल्ली विधानसभा चुनाव के पहले केजरीवाल को हल्के तौर पर लेने वाले लोग गलत साबित हुए। अब यदि केन्द्रीय राजनीति मे उनका हल्के से लेने की कोशिश कर रहे हैं, वे एक बार फिर गलत साबित हो सकते हैं। इसका कारण यह है कि अरविंद केजरीवाल कोई अपनी काबिलीयत के कारण नही, बल्कि राजनैतिक पार्टियों की विफलता के कारण सफल हुए हैं। पार्टियों की यह विफतला दरअसल देश की दलीय व्यवस्था की विफलता है। उसके कारण लोगों का स्थापित दलों और उनके नेताओं से तेजी से मोह भंग हो रहा है। मोह भंग के इस दौर मे केजरीवाल एक ताजा हवा की तरह दिखाई पड़ रहे हैं, जिसका लोग स्वागत कर रहे हैं। दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को वोट देने वाले लोग उम्मीदवारों को वोट नहीं दे रहे थे। सच तो यह है कि अधिकांश मतदाताओ को तो उन उम्मीदवारों के चेहरे या नाम तक याद नहीं थे, सिर्फ चुनाव चिन्ह झाड़ू याद था। अनेक विधानसभा क्षेत्रों में चुनावी नतीजे निकलने के बाद लोग यह जानना चाह रहा था कि उनका आम आदमी पार्टी की विधायक रहता किधर है और कौन है। यह हाल उन लोगों का था, जिन्होंने अपने मत झाड़ू छाप को दिए थे। शायद मत देने वाले लोग उम्मीदवारों को जिताने के लिए वोट नहीं डाल रहे थे। इसलिए उन्हें इससे मतलब नहीं था कि वह उम्मीदवार है कौन। दरअसल वे अन्य पार्टियों में अपना अविश्वास जताने के लिए वोट डाल रहे थे। बाद मे जब नतीजे आए, तो लोगों ने देखा कि आम आदमी पार्टी को वोट देने वाले वे अकेले नहीं थे, बल्कि उनके जैसे लाखों लोगों ने उन्हीं की तरह सोचते हुए झाड़ू के बटन को दबा दिया था।
दिल्ली भारती की राजधानी है और देश के सभी हिस्से को लोग यहां रखते हैं। यह हिन्दी का एकमात्र विकास केन्द्र है, इसलिए यहां ज्यादातर लोग हिंदी प्रदेशों से ही आए हुए हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन ज्याद हिन्दी क्षेत्रों में ही चला था और आम आदमी पार्टी भी ज्यादातर इन्हीं इलाकों में अपना उम्मीदवार देगी। राजनैतिक दलों से मोहभंग चैतरफा है। एक नेता के रूप में नरेन्द्र मोदी को लोग अपवाद के रूप में देख रहे हैं, लेकिन उनकी पार्टी के बारे में लोगों की धारणा वैसी ही है, जैसी अन्य पार्टियों के बारे में हैं। जिस तरह का भाव लोगों में नरेन्द्र मोदी पैदा करते हैं, लगभग उसी तरह का भाव आम आदमी पार्टी और उनके नेता अरविंद केजरीवाल लोगों के बीच कर रहे हैं। यही कारण है कि चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में यह पाया गया कि आम आदमी पार्टी के समर्थकों का एक बड़ा हिस्सा नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहता है।
दलों की विश्वसनीयता आज लगभग समाप्त हो चुकी है। इसे हम अरविंद केजरीवाल के गुरू अन्ना हजारे द्वारा दलों के प्रति व्यक्त किए गए नफरत में देखा जा सकता है। वे कहते है कि राजनैतिक पार्टियां असंवैधानिक हैं, क्योंकि संविधान में उसकी कोई व्यवस्था नहीं है। राजनैतिक दलों को वे कीचड़ मानते हैं, जिनमें जाकर कोई भी साफ नहीं रह सकता। देश की आम जनता भी ऐसा ही सोचती है। फर्क यह है कि अन्ना हजारे पार्टी बनाने के कारण अरविंद केजरीवाल से नाराज हैं, तो देश की आम जनता आम केजरीवाल को उस कीचड़ को हटाने वाले एक विकल्प के रूप में देख रही है। जनता के पास बदलाव को अंजाम देने का सबसे बड़ा हथिया चुनाव ही है और इस हथियार का प्रयोग वह चुनाव में केजरीवाल को समर्थन देकर दिल्ली विधानसभा चुनाव में कर चुकी है।
हमारे देश की दलीय व्यवस्था हमारे समाज की जाति व्यवस्था से उलझकर अंतिम सांसें ले रही हैं। जाति का राजनीति में इस्तेमाल से ऐसे नेताओं की फौज पैदा हो गई है, जिनकी प्रतिबद्धता न तो किसी विचार के साथ है और न ही कोई राजनैतिक दर्शन के साथ। कुछ राजनैतिक जुमलों का इस्तेमाल वे जरूर करते हैं, लेकिन उन जुमलों में जो भाव है, उसके प्रति भी उनकी कोई प्रतिबद्धता नहीं है। जो अपने को समाजवादी कहता है, उसका समाजवाद से कोई लेना देना नहीं और जो अपने को अंबेडकरवादी कहता है, उसका अंबेडकरवाद से कुछ लेना देना नहीं। अपने को गांधीवादी घोषित करने वालों ने तो गांधी से रिश्ता दशकों पहले तोड़ लिया था। बात इन्हीं वादों तक सीमित रहती तो कोई बात नहीं थी, यहां तो हिंदुत्ववाद की बात करने वालों को हिंदुत्व से और अपने को सेकुलर बताने वालों को सेकुलरिज्म से कोई वास्ता नहीं दिखाई देता है। जातिवादी राजनीति करने वालों का उनकी अपनी जाति से प्रतिबद्धता भी प्रश्नों के घेरे में आ गई है, क्योंकि वे अपने परिवार और वंश को ही आगे बढाने में मशगूल हैं।
प्रतिबद्धता, चाहे वह संकीर्ण जातिवाद ही क्यों न हो, अपना दम तोड़ रही है और इसके कारण चैतरफा मोह भंग का माहौल है। इस माहौल मे लोग एक विकल्प की तलाश में हैं। वह विकल्प उन्हें अब केजरीवाल में दिखाई पड़ रहा है, क्योंकि राजनीति के कारण जितनी भी गंदगियां दिखाई पड़ रही हैं, वे उन गंदगियों से मुक्त दिखाई पड़ रहे हैं। कुछ विद्वान टाइप के लोग उनका राजनैतिक दर्शन जानना चाहते हैं, लेकिन किसी तरह का स्पष्ट राजनैतिक दर्शन का न होना ही उनकी मजबूती है, क्योंकि देश की जनता लगभग सभी प्रकार के राजनैतिक दर्शन के दावेदारों से ऊब चुकी है। देखना यह है कि केजरीवाल मोह भंग के इस दौर मे एक नये मोह का केन्द्रबिन्दु कितने दिनों तक बने रहते हैं। (संवाद)
देश की राजनीति में केजरीवाल का उदय
मोहभंग के माहौल में एक नये मोह का केन्द्र
उपेन्द्र प्रसाद - 2013-12-30 12:30
अरविंद केजरीवाल दिल्ली का मुख्यमंत्री बन चुके हैं और देश की राजनीति में वे क्या गुल खिलाएंगे, इसके बारे में तरह तरह के कयास लगाए जा रहे हैं। स्थापित नेताओं में अघिकांश ऐसे हैं, जो समझते हैं कि आम आदमी पार्टी का उदय जितनी तेजी से हुआ है, उसका अस्त भी उतनी ही शीघ्रता से होगा। पर वैसे लोग गलत भी हो सकते हैं।