अरविंद केजरीवाल के एक राजनैतिक ताकत बन जाने के बाद भारतीय जनता पार्टी की गणना और भी गड़बड़ा रही है। आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में अच्छी सफलता पाई। कांग्रेस के समर्थन से उसकी सरकार भी बन गई है। अब वह देश के अनेक हिस्सों में अपने उम्मीदवार खड़ी कर रही है। सिर्फ उत्तर भारत ही नहीं, बल्कि बिहार में भी लोग उसकी तरफ तेजी से झुकने लगे हैं।
भारतीय जनता पार्टी ने अपने बूते ही 272 से ज्यादा सीटों पर जीत के मिशन पर काम करना शुरू कर दिया है। उसे उम्मीद है कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में वह अपना मिशन पूरा करने में सफल भी हो जाएगी। इसका कारण यह है कि मोदी की सभाओं मंे अभूतपूर्व भीड़ उमड़ रही है। लेकिन केजरीवाल फैक्टर के कारण भाजपा की रणनीति गड़बड़ाती दिखाई दे रही है।
2009 के लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा ने नये क्षेत्रों में अपना विस्तार नहीं किया है। इतना ही नहीं, उसे नये चुनावी सहयोगी भी नहीं मिल पाए हैं। इस समय वह देश के 5 राज्यों में सत्ता में है और पंजाब में अकाली दल के साथ सत्ता की साझेदारी कर रही है। कुछ महीने पहले तक वह बिहार में सत्ता में थी। अब नीतीश उससे अलग हो गए हैं और अब वहां विपक्ष में है। उसके कुछ और पहले वह झारखंड में भी सत्ता में थी। पर झारखंड मुक्ति मोर्चा अब अलग होकर कांग्रेस की सहायता से वहां सत्ता में है। महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ उसका गठबंधन है, पर सेना वहां कमजोर हो चुकी है। राज ठाकरे की महाराष्ट्र निर्माण सेना के कारण वह तो पहले ही कुछ कमजोर हो गई थी और अब तो बाल ठाकरे भी इस दुनिया में नहीं रहे। इसके कारण शिवसेना वहां और भी कमजोर हो गई है।
देश की 543 लोकसभा सीटों में से 2005 सीटें ऐसे 14 राज्यों में बिखरी हुई हैं, जहां भाजपा ने शायद ही किसी चुनावी सहयोगी की सहायता के बिना जीत हासिल की हो। इन राज्यों में पूर्वोत्तर के राज्य, उत्तरी भारत का हरियाणा और पूर्व का पश्चिम बंगाल और उड़ीसा शामिल है। दक्षिण के आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में भी भाजपा ने बिना किसी सहयोगी की सहायता के किसी लोकसभा सीट पर विजय हासिल नहीं की है।
इन राज्यों में भारतीय जनता पार्टी को चुनावी सहयोगी खोजने हैं, पर दुर्भाग्य से उसे नये सहयोगी नहीं मिल पा रहे हैं। एक समय उसके साथ 23 सहयोगी हुआ करते हैं। लेकिन अपने पुराने सहयोगियों में से भी किसी को वापस लाने के भाजपा सफल होती नहीं दिखाई पड़ रही है। भारतीय जनता पार्टी के राजस्थान में शानदार जीत हुई है और मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ मे ंउसकी सरकारों की वापसी हुई है। इसके बावजूद उसे नये सहयोगी नहीं मिल पा रहे हैं।
विधानसभा चुनावों के पहले ओम प्रकाश चैटाला के नेतृत्व वाले इंडियन नेशनल लोकदल से भाजपा के गठबंधन की बातचीत चल रही थी। आंध्र प्रदेश मंे चन्द्रबाबू नायडू को भी एनडीए में शामिल करने के प्रयास चल रहे थे। लेकिन अब इन दोनों मोर्चो पर किसी प्रकार की प्रगति नहीं दिखाई पड़ रही है। यदि भाजपा इन दोनों पार्टियों से गठबंधन भी कर लेती है, तो उसे उन दोनों राज्यों में कोई फायदा होता नहीं दिखाई पड़ रहा, क्योंकि दोनो राज्यों की राजनीति बदल चुकी है।
आंध्र प्रदेश में जगनमोहन रेड्डी एक बड़ी ताकत बन चुके हैं और हरियाणा में आम आदमी पार्टी का उदय हो चुका है। दिल्ली हरियाणा के तीन ओर से घिरी हुई है। यदि आम आदमी पार्टी का दिल्ली के अलावा कहीं सबसे ज्यादा असर होगा, तो वह हरियाणा ही होगा। पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी ने घोषणा कर रखी है कि वह लोकसभा चुनाव में किसी के साथ गठबंधन नहीं करेगी। तमिलनाडु में आल इंडिया अन्ना डीएमके की जयललिता ने गठबंधन को लेकर अभी तक स्थिति स्पष्ट नहीं की है।
भारतीय जनता पार्टी का अब तक का सबसे अच्छा प्रदर्शन 1998 और 1999 मे था, जब उसने 182 सीटों पर जीत हासिल की थी। 1998 में इसे साढ़े 25 फीसदी वोट मिले थे, तो 1999 में पौने 24 फीसदी। इद दोनों मौकों पर उसके साथ बहुत संख्या मंे सहयोगी थे। उसके साथ बीजू जनता दल उड़ीसा में था, तो 1998 में तमिलनाडु में जयललिता थीं और 1999 में वहां उसके साथ करुणानिधि थे। भाजपा के लिए 1998 और 1999 का प्रदर्शन दुहरा पाना आसान नहीं। (संवाद)
भारतीय जनता पार्टी को नये साथी नहीं मिल रहे
अपने 182 सीट के रिकॉर्ड के पास पहुंचना भी उसे होगा कठिन
हरिहर स्वरूप - 2014-01-06 13:04
लोकसभा के आम चुनाव अब तीन महीने ही दूर हैं। उसके बाद क्या स्थिति होगी, कुछ कहा नहीं जा सकता। कांग्रेस की सरकार बनने के कोई आसार नहीं दिख रहे। भाजपा की सरकार बनने पर भी प्रश्न चिन्ह खड़े हो गए हैं। अब दोनों के बीच इस बात को लेकर मुकाबला होना है कि उनमें से कौन लोकसभा चुनाव के बाद सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरती है। यदि हम भारतीय जनता पार्टी को पिछले 4 लोकसभा चुनावों में मिली सफलता का आकलन करें, तो पाते हैं कि इस बार पार्टी को 1998 और 1999 में मिली 182 सीटों से ज्यादा सीटें मिल पाना आसान नहीं होगा।