दिल्ली में भी जहां जाति और संप्रदाय की राजनीति ज्यादा मायने रखती है, वहां आम आदमी पार्टी सफल नहीं रही है। यदि हम दिल्ली के चुनावी नतीजों का विश्लेषण करें, तो पाते हैं कि मुस्लिम बहुल विधानसभा क्षेत्रों में आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार पराजित हो गए। सच तो है कि उन विधानसभा क्षेत्रों मंे आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार दूसरे नंबर पर भ नहीं रहे, बल्कि तीसरे नंबर पर रहे। इसका कारण यह है कि मुस्लिम सांप्रदायिकता के आधार पर मतदान करते हैं और आम आदमी पार्टी के ही नहीं, बल्कि जिस अन्ना आंदोलन से इस पार्टी का जन्म हुआ है, उस आंदोलन के प्रति भी मुसलमानों का रवैया आलोचनात्मक ही था।
मुस्लिम बहुत इलाकों में तो आम आदमी पार्टी हारी ही, दिल्ली सीमा पर स्थित सभी विधानसभा क्षेत्रों मंे भी आप की हार हुई। इन विधानसभा क्षेत्रों मंे जाट और गुर्जर मतदाताओं की बहुलता है। वे भी जाति और समुदाय के आधार पर ही आमतौर पर मतदान करते हैं। वहां भी आम आदमी पार्टी की हार कारण पहचान की राजनीति ही थी। दूसरी ओर उन विधानसभा क्षेत्रों में आम आदमी पार्टी की स्थिति अच्छी रही, जहां पहचान की राजनीति कमजोर है।
अब जब बिहार की राजनीति जाति और संप्रदाय से पारिभाषित होती है, तो वहां आम आदमी पार्टी क सफलता की उम्मीद कैेसे की जा सकती है। पिछले विधानसभा चुनाव के बाद नीतीश के नेतृत्व वाले गठबंधन की जीत को विकास की राजनीति की जीत कहा गया था, जो वास्तविकता नहीं थी। सच यह था कि बिहार का जातीय गणित पूरी तरह से गठबंधन के पक्ष में था और उसके कारण ही गठबंधन को रिकार्ड जीत हासिल हुई थी।
लेकिन जनता दल (यू) के राष्ट्रीय गठबंधन से अलग हो जाने के बाद बिहार की राजनीति की जातीय तस्वीर बदल गई है और इस तस्वीर में भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल के बीच ही मुख्य मुकाबला होना है। वैसे जातीय गणित की बात की जाय, तो भारतीय जनता इस मायने में राष्ट्रीय जनता दल पर भारी पड़ती दिखाई पड़ रही है। इसका कारण भारतीय जनता पार्टी का अपना परंपरागत आधार और इसके प्रधानमंत्री उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी कम जातीय पृष्ठभूमि है।
बिहार में ओबीसी मतदाताओं की संख्या इसकी कुल जनसंख्या की 66 फीसदी है। इसमें 12 फीसदी तो मुसलमान हैं और शेष 54 फीसदी हिंदू हैं। इस 54 फीसदी मतों पर भारतीय जनता पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल( यू) की नजर टिकी हुई है। राजद का मुख्य आधार यादव मतदाता हैं, जो बिहार की आबादी में सबसे ज्यादा 12 फीसदी हैं। उसके साथ मुसलमानों के साढ़े 16 फीसदी मतों के भरोसे लालू यादव वहां की एक बड़ी शक्ति बने हुए हैं। उनकी कमजोरी यह है कि गैर यादव ओबीसी अब उनके समर्थक नहीं रहे। इसके कारण ही पिछले कुछ चुनावों मंे उनकी हार हो रही है। उनकी पत्नी राबड़ी देवी पिछले विधानसभा चुनाव मे ंअपनी दोनों सीटों से हार गई थीं। लालू खुद भी लोकसभा चुनाव में एक सीट पाटलीपुत्र से हार गए थे। अब तो खुद लालू चुनाव नहीं लड़ सकते, लेकिन सजा पाने के बाद उनकी अपनी जाति के लोगों की सहानुभूति उनके साथ है।
दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी को नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व का लाभ मिलता दिखाई पड़ रहा है। श्री मोदी ओबीसी के हैं और बिहार की ओबीसी आबादी का एक बड़ा तबका लालू से तो नाराज है ही नीतीश कुमार से भी नाराज है। वह तबका आसानी से भारतीय जनता पार्टी की ओर खिंच सकता है। बिहार की राजनीति के इस तथ्य से अवगत वहां के भाजपा नेताओं में चुनाव में जीत को लेकर भारी आत्मविश्वास है। पहले डर था कि कहीं नरेन्द्र मोदी की ओबीसी पृष्ठभूमि के कारण भाजपा के परंपरागत अगड़े समर्थक पार्टी से छिटक न जाय। लेकिन अब स्पष्ट हो रहा है कि उनका लगाव भारतीय जनता पार्टी से बना हुआ है। वैसे नरेन्द्र मोदी का जादू वहां उनकी जातिगत पृष्ठभूमि के कारण नहीं है, बल्कि वे बदलाव पुरुष के रूप में देखे जा रहे हैं। पर उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि इस मायने मे खास महत्व रखती है कि भारतीय जनता पार्टी को पिछले दो दशकों से ओबीसी विरोधी पार्टी के रूप में देखा जाता था। जाति की राजनीति करने वाले बिहार के नेता मोदी की जाति पृष्ठभूमि को लेकर उनपर हमला नहीं कर सकते।
नीतीश की हालत बिहार की राजनीति में इसलिए भी अब खराब हो रही है, क्योंकि उनकी अपनी जाति की संख्या बिहार की कुल जनसंख्या का मात्र 2 फीसदी ही है। वे भारतीय जनता पार्टी और लालू विरोधी ओबीसी मतों के कारण सत्ता में आए थे। पर लालू विरोधी ओबीसी अब नीतीश विरोधी भी होते जा रहे हैं। नीतीश ने अपनी राजनीति मजबूत करने के लिए जाति समूहों में विभाजन डालना शुरू कर दिया था। बिहार मंे पिछड़ा वर्ग का विभाजन दशकों से चल रहा है, लेकिन यह विभाजन राजनैतिक स्तर पर नहीं था। कर्पूरी ठाकुर के समय से ही एक वर्ग अन्य पिछड़ा वर्ग तो दूसरा अति पिछड़ा वर्ग कहलाता रहा है। कर्पूरी ठाकुर अति पिछड़े वर्ग से थे, लेकिन पूरे पिछड़े वर्गों में उनको समान आदर प्राप्त था। लालू यादव का समर्थन भी पूरे पिछड़े वर्गों पर था। लेकिन नीतीश कुमार ने पिछड़ और अन्य पिछड़ा के भेद को बढ़ाया और खुद को अति पिछड़ों का मसीहा घोषित कराया, हालांकि वे खुद अति पिछड़े वर्गों से नहीं हैं। उन्होंने दलितों में भी दलित और महादलित का भेदभाव पैदा किया और खुद महादलितों का मसीहा बनकर उभरे। लेकिन उनका यह विभाजन राजनीति भी अब काम नहीं कर रहा है, क्योंकि अति पिछड़ों और दलितों के हुए नरसंहारों के अनेक आरोपी नीतीश सरकार में ही आरोप मुक्त हो गए। यह मुक्ति तो हाई कोर्ट द्वारा दी गई, लेकिन लोगों का शक है कि नीतीश सरकार ने उन अभियुक्तों के खिलाफ अदालत मे मामले को सही ढंग से नहीं रखा।
लोगों में कमजोर होने के कारण नीतीश कुमार और उनका दल बिहार की राजनीति में अलग थलग पड़ गया है। कोई भी पार्टी उसके साथ सीटों का गठबंधन या तालमेल करने को तैयार नहीं है। न तो वामपंथी दल उसके साथ जाना चाहते हैं और न ही कांग्रेस की उनमें कोई दिलचस्पी रह गई है। (संवाद)
बिहार की राजनीति पर आप का असर नहीं
अलग थलग पड़ गया है जद(यू)
उपेन्द्र प्रसाद - 2014-01-16 11:15
दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार के गठन के बाद बिहार की राजनीति में भी इसका असर देखा जा सकता है। इस पार्टी को लेकर राजनैतिक लोगों में उत्साह है और लोग इसमें शामिल भी हो रहे हैं। पर चूंकि बिहार के राजनीति जाति और संप्रदाय के हिसाब से चलती रही है, इसलिए इस नई पार्टी का यहां कोई असर दिखे, इसकी संभावना कम ही है। आम आदमी पार्टी जाति और संप्रदाय की राजनीति से अलग रहकर ही दिल्ली में सफल हो सकी है। उन लोगों की आशाओं का केन्द्र यह पार्टी बन गई है, जो जाति और वंश की राजनीति से परेशान हैं और उसका कोई विकल्प चाहते हैं। बिहार में भी ऐसे लोग हैं, पर उनकी संख्या कम है। इसलिए इस नई पार्टी के प्रति लोगों में उत्साह के बावजूद इसका कोई खास असर बिहार में देखने को नहीं मिलेगा।