पिछले दिनों विश्व स्वास्थ्य संगठन की वैश्विक 2013 रिपोर्ट जारी होने के बाद भी टी.बी. के मामले में भारत की स्थिति पहले की तरह ही दिखाई पड़ती है। दुनिया में सबसे ज्यादा टी.बी. एवं एम.डी.आर.-टी.बी. के मरीज भारत में हैं। डाॅट्स के माध्यम से छह माह में ठीक हो जाने वाले टी.बी. के मरीज 1990 में 465 प्रति लाख जनसंख्या पर थे, जो 2012 में घटकर 230 प्रति लाख जनसंख्या हो गई है। इसी तरह देश में टी.बी. से मरने वालों की संख्या 1990 में 38 प्रति लाख जनसंख्या थी, जो 2012 में घटकर 22 प्रति लाख जनसंख्या हो गई है। पर इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि यह संख्या बहुत ही कम है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार टी.बी. से होने वाली 95 फीसदी मौतें निम्न एवं मध्य आय वाले देशों में होती हैं। यदि 2011 की जनगणना के अनुसार भारत की जनसंख्या 12102 लाख है, तो प्रति वर्ष टी.बी. से मरने वालों की संख्या 266244 है। यानी अभी भी भारत में प्रति दो मिनट पर एक व्यक्ति की मौत टी.बी. से हो रही है। यह सही है कि पहले प्रति तीन मिनट दो व्यक्तियों की मौत टी.बी. से होती थी, जिसमें आंशिक सुधार दिख रहा है। पर दूसरी ओर भारत में पिछले कुछ सालों से टी.बी. के नए मरीजों की बढ़ोतरी भी देखी जा रही है, यानी प्रति लाख जनसंख्या नए मरीजों की पहचान में इजाफा। देश में एम.डी.आर. टी.बी. के मरीजों की संख्या भी बढ़ती जा रही है, जो कि बहुत ही खतरनाक है। 2012 की रिपोर्ट के अनुसार इस समय देश में एम.डी.आर.-टी.बी. मरीजों की संख्या 17373 हो गई हैं।

टी.बी. के मरीजों में महिलाओं की संख्या बहुत ही ज्यादा है। और यही वजह है कि महिलाओं के नजरिए से इस गंभीर समस्या पर ध्यान देना जरूरी है। महिलाओं की कमजोर रोग प्रतिरोधी क्षमता के कारण यह उनके लिए बहुत ही गंभीर है। 15 से 49 साल की आयु वाली महिलाओं में एनेमिया का स्तर बहुत ज्यादा है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 3 के अनुसार 36 फीसदी महिलाएं कुपोषित एवं 55 फीसदी महिलाएं एनेमिक हैं। विवाहित महिलाओं में भी आधे से ज्यादा एनेमिक और एक तिहाई कुपोषित हैं।

सामान्य तौर टी.बी. से ग्रसित व्यक्ति सामाजिक अलगाव के डर से सामने आना पसंद नहीं करता। और यदि किसी महिला को टी.बी. हो, तो वह समाज से कट जाने के साथ-साथ परिवार से भी कट जाती है। एक पुरुष के टी.बी. होने पर उसके इलाज में पूरा परिवार लग जाता है, पर दूसरी ओर महिला के टी.बी. होने पर उसके लिए परिवार से अपेक्षित सहयोग नहीं मिलता। उलटे उसे उपेक्षित कर दिया जाता है। परिवार में महिलाओं की उपेक्षा महिला हिंसा की श्रेणी में आता है, पर इसके बावजूद इस पर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है। ऐसे मोड़ पर जब महिला को परिवार के सहयोग एवं सहानुभूति की जरूरत होती है, वह अपने को अकेला पाती है। महिलाओं को टी.बी. हो जाने के बाद उसके इलाज में देरी कराने के साथ-साथ समय पर दवा देने के प्रति भी परिवार सचेत नहीं दिखाई देता, जबकि यह मालूम है कि टी.बी. की दवा में किसी भी तरह की लापरवाही टी.बी. को एम.डी.आर. टी.बी. में बदल देता है। ऐसे में इलाज ज्यादा मुश्किल हो जाता है। इलाज के अभाव में टी.बी. पीडि़त महिलाओं को मौत की ओर धकेलने का कार्य ही किया जाता है, जबकि उन्हें भी घर के पुरुष सदस्यों की तरह बेहतर इलाज की जरूरत है।

कई अध्ययनों से भी पता चलता है कि टी.बी. को नियंत्रित करने के लिए उठाए जाने वाले कदम एवं जागरुकता कार्यक्रम घर-परिवार के स्तर पर अपर्याप्त है। यही वजह है कि परिवार के किसी सदस्य के टी.बी. हो जाने पर अन्य सदस्यों की टी.बी. की होने की संभावना बढ़ जाती है। टी.बी. पर नियंत्रण के जरूरी है कि ऐसी तकनीक विकसित की जाए, जिसकी पहुंच डाॅट्स केंद्र या आंगनवाड़ी केंद्र या अन्य केंद्रों के बजाय समुदाय एवं घर तक हो, जिसमें खासतौर से टी.बी. पीडि़त महिलाओं के इलाज एवं परिवार की जागरुकता को बढ़ावा दिया जा सके। सामाजिक परिस्थितियों के कारण महिलाएं पहले से ही ज्यादा समय घर के अंदर गुजारती हैं। ऐसे में परिवार के टी.बी. पीडि़त सदस्य से उनको टी.बी. होने की संभावना एवं उनके माध्यम से बच्चों एवं परिवार के सदस्य को टी.बी. होने की संभावना ज्यादा हो जाती है। ऐसे में परिवार को यह समझाना जरूरी है कि एक खतरनाक बीमारी पर नियंत्रण, महिलाओं के सम्मान एवं अधिकार और महिला हिंसा के खिलाफ प्रतिबद्धता के लिए महिलाओं को अकेले छोड़ने के बजाय उन्हें बेहतर सामाजिक एवं पारिवारिक परिस्थितियां उपलब्ध कराएं। (संवाद)