पिछले लोकसभा चुनाव में यूपीए के चारों घटकों का लक्ष्य था अपने अपने टिकट पर ज्यादा से ज्यादा उम्मीदवारों को जिताना। इसके कारण ही वे दूसरे घटक के लिए सीट छोड़ने में झिझक रहे थे। पर इस बार उन सबका लक्ष्य है कि मोदी मैजिक को मिलजुलकर चुनौती देना। इसलिए इस बार न तो लालू यादव पिछले चुनाव की तरह ज्यादा से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ने की जिद कर सकेंगे और न ही रामविलास पासवान। इस बार वे ज्यादा व्यवहारिक होकर सीटों पर तालमेल बैठा रहे हैं।

राष्ट्रीय जनता दल बिहार में यूपीए की सबसे बड़ी पार्टी है और यूपीए के यहां सबसे बड़े नेता लालू यादव है। जाहिर है, लालू ही मोदी लहर को रोकने की असली चुनौती का सामना कर रहे हैं। यूपीए के चारों दलों में पूर्ण गठबंधन होने के बाद बिहार की राजनीति मे सीधे टकराव होगा। यह टकराव भारतीय जनता पार्टी और यूपीए के बीच ही होगा। चुनाव की एक धुरी भारतीय जनता पार्टी होगी, यह तो पहले से ही स्पष्ट थी। दूसरी धुरी का नेतृत्व लालू करेंगे या नीतीश, इसे लेकर थोड़ा भ्रम बना हुआ था, क्योंकि कांग्रेस के रुख का पता शुरू में नहीं चल पा रहा था। कांग्रेस भी बिहार की राजनीति को समझने की कोशिश कर रही थी। जब नीतीश कुमार राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का हिस्सा थे, तो कांग्रेस नेताओं की ओर से उन्हें बहुत महत्व दिया जा रहा था और ऐसा लग रहा था कि यदि नीतीश ने भाजपा से अपना रिश्ता तोड़ा, तो कांग्रेस उन्हें अपना बना लेगी। भाजपा से रिश्ता तोड़ते ही कांग्रेस ने कुछ किया भी वैसा ही। नीतीश की अल्पमत सरकार के पक्ष में कांग्रेस के चारों विधायकों ने विधानसभा में विश्वास प्रस्ताव के दौरान वोट डाले थे।

कांग्रेस को लग रहा था कि चारा घोटाला में सजा पाने के बाद लालू बहुत कमजोर हो जाएंगे और तब उनके साथ गठबंधन करने से कांग्रेस को कोई फायदा नहीं होगा। दूसरी तरफ कांगेस के नेताओं ने नीतीश की ताकत के बारे में बढ़चढ़कर सोच लिया था। उन्हें पता नहीं था कि नीतीश की असली ताकत भाजपा ही थी। भाजपा के साथ के कारण ही नीतीश लालू विरोधी ओबीसी मतों को अपनी ओर खींच पाते थे। भाजपा के अलग होते ही भाजपा के अपने समर्थक मतदाताओं का साथ तो नीतीश के साथ गया ही, गैर यादव ओबीसी मतों पर नीतीश की पकड़ भी भाजपा का साथ छुटने से खत्म होने लगी।

भाजपा भी ओबीसी मतों के लिए ही नीतीश पर निर्भर हुआ करती थी। इसका कारण यह है कि 1990 में भाजपा ने मंडल आयोग की कुछ सिफारिशों को लागू करने की वीपी सिंह सरकार की घोषणा का विरोध किया था और उसके द्वारा निकाली गई राम रथ यात्रा भी मंडल के राजनैतिक प्रभावों को कुंद करने के लिए ही निकाली गई थी। इसके कारण बिहार में भारतीय जनता पार्टी की छवि एक ओबीसी विरोधी पार्टी की बन गई थी। इस छवि के कारण भारतीय जनता पार्टी का विकास नहीं हो पा रहा था, हालांकि राबड़ी लालू सरकारों के दौरान बिहार की मुख्य विपक्षी पार्टी वही थी। नीतीश को साथ जोड़कर ही भारतीय जनता पार्टी बिहार में लालू यादव को परास्त कर सकी और इसका सबसे ज्यादा लाभ नीतीश कुमार को मिला। अपने इस्तेमाल का उन्होंने भरपूर फायदा उठाया और अपनी शर्तें भाजपा के ऊपर थोपते रहे।

भाजपा की ओर से नरेन्द्र मोदी की पीएम उम्मीदवारी का विरोध भी नीतीश कुमार ने इसीलिए किया, क्योंकि वैसा करने के बाद ओबीसी वोटों के लिए उनकी उपयोगिता ही समाप्त हो जानी थी। नीतीश कुमार को नरेन्द्र मोदी के ओबीसी स्टैटस की जानकारी थी और उन्हें यह पता था कि उन्हें पीएम उम्मीदवार घोषित करने के बाद भाजपा बिहार के लोकसभा चुनाव में पिछले 2009 की तरह 25 सीटें नहीं दे सकती। लिहाजा, बिहार में अपना महत्व बनाए रखने और भारतीय जनता पार्टी के अलए अपने उपयोगिता बनाए रखने के लिए नीतीश ने नरेन्द्र मोदी का विरोध करते करते उस मुकाम को प्राप्त कर लिया, जहां से पीछे मुड़ना संभव नहीं रह गया था। उसके बाद उन्होंने अपने आपको भाजपा से अलग ही कर लिया।

नीतीश को यह भी लगा कि चारा घोटाला में सजा पाने के बाद लालू यादव राजनैतिक रूप से कमजोर हो जाएंगे और फिर तब मुस्लिम वोट बैंक उनका हो जाएगा। इसलिए वे मुस्लिम हितों का चैंपियन बनकर नरेन्द्र मोदी का विरोध करते रहे। पर लालू को सजा मिलने के बाद यादवों में जबर्दस्त प्रतिक्रिया हुई और राबड़ी की सभाओं में भारी भीड़ उमड़ने लगी। उमड़ती भीड़ को देखकर कांग्रेस को आभास हो गया कि वह राष्ट्रीय जनता दल के साथ गठबंधन करके ही बिहार में मोदी के नेतृत्व वाले भाजपा से मुकाबला कर सकती है। इसके कारण ही कांग्रेस ने नीतीश की जगह लालू को ही गठबंधन के लिए चुना है।

यूपीए गठबंधन और भाजपा के बीच सीधे मुकाबले में नीतीश कुमार का जनता दल(यू) लोकसभा चुनाव में हाशिए पर खिसकता जा रहा है। इसे चुनाव लड़ने के लिए सही उम्मीदवार भी नहीं मिल रहे हैं और इसके अनेक निवर्तमान लोकसभा सांसद या तो भाजपा या राष्ट्रीय जनता दल से टिकट पाने की कोशिश कर रहे हैं। इसका मतलब यह नहीं कि नीतीश कुमार की बिहार की राजनीति में प्रासंगिकता समाप्त हो रही है। सच तो यह है कि जब कभी भी विधानसभा चुनाव होंगे, उसमें नीतीश कुमार एक बड़ी राजनैतिक शक्ति होंगे, पर लोकसभा चुनाव में वे अपनी प्रासंगिकता खोते जा रहे हैं। यहां फिलहाल मोदी लहर के खिलाफ लालू यादव ही खड़े हैं। पर सवाल यह उठता है कि क्या वे मोदी को बिहार में रोक पाएंगे? (संवाद)