केजरीवाल सरकार पहले दिन से ही एक अल्पमत सरकार है, जो कांग्रेस के बाहरी समर्थन से बनी थी। जनता दल (यू) के विधायक शोएब इकबाल और एक निर्दलीय विधायक ने भी इसे समर्थन दे रखा था। इस तरह इसके पक्ष में 38 और विपक्ष में 32 विधायक हुआ करते थे। इसके एक विधायक स्पीकर बन गए। इस तरह विधानसभा के अंदर इसके समर्थक विधायकांे की संख्या 37 हो गई। स्पीकर मतदान के टाई हो जाने पर ही मतदान कर उस टाई की स्थिति को समाप्त कर सकते हैं। अन्यथा आमतौर पर वह किसी प्रस्ताव पर विधानसभा में मतदान नहीं करते।

आम आदमी पार्टी ने अपने एक विधायक विनोद कुमार बिन्नी को पार्टी से निकाल दिया। इस तरह उसने अपने विरोधी विधायकों की संख्या 32 से बढ़ाकर 33 कर दी और उसके समर्थक विधायक विधानसभा में 37 से घटकर 36 रह गए। उनमें से भी एक ओखला के कांग्रेसी विधायक ने घोषणा कर दी कि वह इस सरकार के खिलाफ मतदान करेंगे, भले कांग्रेस उसकी सदस्यता को दल बदल विरोधी कानून के तहत समाप्त करवा दे।

इस तरह विधानसभा में अब केजरीवाल समर्थक विधायकों की संख्या 35 और विरोधी विधायकों की संख्या 34 रह गई है। यह स्थिति सरकार को स्थिर कर रही है और दो बाहर से समर्थन दे रहे दो गैर कांग्रेसी विधायक सरकार को आंखे दिखा रहे हैं। किसी एक विधायक का समर्थन खींचना सरकार के पतन का कारण हो सकता है।

यह सच है कि एक बार विश्वास मत हासिल कर लेने के बाद 6 महीने तक फिर से विश्वास मत हासिल करने की जरूरत सरकार को नहीं पड़ती, लेकिन बजट सत्र के दौरान या कभी भी वित्तीय विधेयक पर सरकार के पराजित होने के मतलब सरकार का पतन होता है। केजरीवाल सरकार के सामने इसी तरह का संकट आ रहा है।

खुद केजरीवाल भी इस संकट से परिचित हैं। इसलिए सरकार रहते हुए वे कुछ ऐसा करना चाहते हैं, जिससे आगामी लोकसभा चुनाव ही नहीं, बल्कि अगले दिल्ली विधानसभा चुनाव में भी उनकी पार्टी को लाभ हो। इसके लिए उन्होने दिल्ली लोकपाल विधेयक को विधानसभा पारित कराने का फैसला किया है। शीला दीक्षित के खिलाफ मुकदमा चलाने की सिफारिश भी उन्होंने राष्ट्रपति से कर डाली है।

दिल्ली लोकपाल विधेयक के बारे में कहा जाता है कि वह राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति के बिना विधानसभा में पेश ही नहीं किया जा सकता। पर केजरीवाल वैसा ही करना चाहते हैं। कांग्रेस ने इस पर अपना खुला विरोध जाहिर कर डाला है। उसने न केवल उस विधेयक के विधानसभा में विरोध करने का फैसला किया है, बल्कि उसने उसे विधानसभा में पेश किए जाने को भी असंभव बना देने का संकल्प किया है। कांग्रेस अध्यक्ष अरविंदर सिंह लवली, जो विधानसभा के एक सदस्य भी हैं, स्पीकर द्वारा उस विधेयक को विधानसभा में पेश करने की इजाजत देने की स्थिति में उनके खिलाफ ही अविश्वास प्रस्ताव लाने की धमकी दे रहे हैं। जाहिर है कांग्रेस के साथ केजरीवाल सरकार का टकराव बहुत तीखा हो गया है।

कांग्रेस के साथ टकराव तो हो रहा है, केजरीवाल इस टकराव को केन्द्र सरकार के साथ भी बढ़ा सकते हैं। दिल्ली लोकपाल पेश और पास नहीं हो पाने के लिए वे केन्द्र सरकार को दोषी ठहराएंगे और इसी मसले को आधार बनाते हुए वे केन्द्र के खिलाफ एक बार फिर आन्दोलनात्मक रवैया अपना सकते हैं। ऐसा करने से भ्रष्टाचार का मसला फिर तूल पकड़ने लगेगा। एक प्रभावी लोकपाल के मुद्दे पर केजरीवाल लोकसभा चुनाव में अपने आपको झोंक सकते हैं। दिल्ली सरकार से हट जाना उनके हित में ही है, क्योंकि तब लोकसभा चुनाव की तैयारियों के लिए उनके पास ज्यादा वक्त होगा और वैसे भी अल्पमत सरकार का मुखिया होने के कारण व दिल्ली प्रदेश सरकार के सीमित अधिकार होने के कारण वे सरकार में कुछ कर नहीं पा रहे हैं। (संवाद)