इस समय यूपीए की हालत बहुत ही खराब है। उसके खिलाफ लोगों में रोष है। उसकी छवि भी बहुत खराब हो गई है। उनमें भी कांग्रेस की हालत सबसे ज्यादा खराब है। एक के बाद एक भ्रष्टाचार के मामले सामने आए। उन मामलों ने उसकी छवि ऐसी खराब कर दी है कि उसे ठीक करना संभव ही नही रह गया है। दूसरी तरफ एनडीए की हालत भी बहुत अच्छी नहीं है। भाजपा के अनेक एनडीए सहयोगी उसका साथ छोड़ चुके हैं। नये साथी इस समय उसे मिलते भी नहीं दिख रहे हैं। यही कारण है कि इस समय कुछ गैेर भाजपा गैर कांग्रेस नेताओं को एक तीसरे मोर्चे की संभावना उज्ज्वल दिखाई दे रही है। लेकिन इस तरह की मोर्चेबंदी नीतियों के आधार पर होनी चाहिए और नेतृत्व को लेकर भी सबके बीच मत समानता होनी चाहिए। समस्या इन्हीं दोनों बिंदुओं पर है।

तीसरे मोर्चे की चर्चा शुरू होने के पीछे एक कारण दिल्ली में मिली आम आदमी पार्टी को सफलता है। इस सफलता ने साबित किया है कि ऐसे लोगों की संख्या बहुत है, जिन्हें न तो कांग्रेस पसंद है और न ही भाजपा। यदि कोई तीसरा विकल्प मिले, तो वे उसे अपनाने को तैयार हैं। क्षेत्रीय पार्टियां इस बात को लेकर उत्साहित हैं। उत्साहित तो आम आदमी पार्टी भी है, जिसने दिल्ली की सफलता से जोश पाकर देश के 320 लोकसभा क्षेत्रों से अपने उम्मीदवार उतारने का फैसला किया है। कांग्रेस और भाजपा दोनो आम आदमी पार्टी को लेकर नर्वस हैं।
इस समय अनेक क्षेत्रीय पार्टियों चुनाव के पहले न तो कांग्रेस के साथ दिखना चाहते हैं और न ही भारतीय जनता पार्टी के साथ। इसका कारण यह है कि कांग्रेस की छवि बहुत खराब हो चुकी है और जनता में उसकी लोकप्रियता का ग्राफ बहुत नीचे गिर चुका है। क्षेत्रीय पार्टियों को लगता हे कि कांग्रेस के साथ जाकर वे अपनी चुनावी जीत की संभावना को कमजोर करेंगे। इसलिए वे कांगेस के साथ नहीं जाना चाहते। दूसरी तरफ मुस्लिम वोटों को खोने के खतरे के कारण वे भाजपा के साथ भी नहीं जाना चाहते। इसलिए उन्हें लगता हे कि वे तीसरे मोर्चे की नाम पर बेहतर प्रदर्शन कर सकते हैं।

तीसरे मोर्चे के गठन में अनेक समस्याएं हैं और सबसे बड़ी समस्या है नेता पर सहमति। क्षेत्रीय पार्टियों के सभी क्षेत्रीय नेता देश के प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा रखते हैं। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव अपनी सभी सभाओं में प्रधानमंत्री बनने की अपने महत्वाकांक्षा का इजहार करते हैं। नीतीश कुमार के प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा किसी से छिपी हुई नहीं है। तमिलनाडु की जयललिता भी कुछ वैसा ही संकेत दे रही है। देवेगौडा तो एक बार प्रधानमंत्री रह भी चुके हैं।

दूसरी समस्या यह है कि तीसरे मोर्चे के गठन की बात करने वाले कुछ क्षेत्रीय दल यूपीए सरकार के साथ रहे हैं। नीतीश की पार्टी भले घोषित रूप से यूपीए के साथ नहीं रही हो, लेकिन वे यूपीए सरकार की स्थिरता को सुनिश्चित करने का काम करते रहे हैं। मुलायम सिंह यादव तो अभी तक यूपीए सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे हैं। यही हाल देवेगौड़ा की पार्टी का भी है। यूपीए का साथ देने के बावजूद तीसरे मोर्चे की चर्चा करने की उनकी मंशा पर संदेह जरूर पैदा होता है।

तीसरी समस्या है कि सभी गैर यूपीए औीर गैर एनडीए दल एक साथ नहीं आ सकते। पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी और वाम दल एक साथ नहीं बैठ सकते। उसी तरह तमिलनाडु की डीएमके और एआईडीएमके एक साथ नहीं आ सकतीं और उत्तर प्रदेश की सपा और बसपा का एक साथ होने का सवाल ही पैदा नहीं होता। जाहिर है गैर कांग्रेस और गैर भाजपा के नाम पर तीसरे मोर्चे के लिए सभी अन्य पार्टियों का एक साथ होना आसान नहीं है। (संवाद)