यदि केजरीवाल के प्रति निंदात्मक टिप्पणी करते हुए कहा जाय, तो हम कह सकते हैं कि प्रधानमंत्री बनने की उनकी महत्वाकांक्षा ने उन्हें दिल्ली सरकार से बाहर आ जाने के लिए प्रेरित किया। यदि हम उनकी प्रशंसा करते हुए टिप्पणी करें तो कहेंगे कि वे भ्रष्टाचार को जल्द से जल्द मिटा देना चाहते हैं और ऐसा वे लोकसभा में अपनी पार्टी के सदस्यों की संख्या अधिकतक संभव बनाकर ही कर सकते हैं, इसलिए उन्हें दिल्ली की गद्दी को कुर्बान कर दिया और फिर एक बार सड़क पर आ गए। यानी वे जिस तरह सड़क के रास्ते दिल्ली के मुख्यमंत्री बने, उसी तरह वे सड़क के रास्ते ही ज्यादा से ज्यादा संख्या में अपने समर्थकों के साथ संसद जाना चाहते हैं, जहां वे भ्रष्टाचार विरोधी एक मजबूत लोकपाल के गठन के लिए अन्य सांसदों पर दबाव डाल सकें।

लेकिन दिल्ली की लड़ाई आसान थी। वहां उनके सामने शीला दीक्षित थीं, जो राष्ट्रमंडल खेलों में हुए भ्रष्टाचार के कारण काफी अलोकप्रिय हो गई थीं और वह भारतीय जनता पार्टी थी, जिसके पास दिल्ली स्तर पर शुरुआत में कोई ढंग का नेता नहीं था और जिसने विधानसभा चुनावों में लगातार तीन बार हारने की हैट्रिक लगा रखी थी। दिल्ली में मुकाबला मुख्य रूप से दोतरफा हो आ रहा था और इस बार दोनों पक्ष कमजोर हालत में था। इसका लाभ केजरीवाल को मिला। इसके साथ बिजली और पानी के मसले पर दिल्ली वालों को काफी समस्या हो रही थी। बिजली के वितरण के निजीकरण के बाद लोगों को वह मिल तो रही थी ज्यादा घंटे, लेकिन उसकी कीमत कुछ ज्यादा ही बढ़ रही थी। पानी की उपलब्धि के क्षेत्र में तो अराजकता का ही राज था। टैंकर माफिया का बोलबाला था और दिल्ली जल बोर्ड के पानी की कालाबाजारी हो रही थी।

भ्रष्टाचार के साथ साथ सस्ती बिजली और मुफ्त पानी के केजरीवाल के वायदों ने वह संभव बना दिया, जिसे दिल्ली में अबतक असंभव माना जा रहा था। मंडल के आंदोलन के बाद दिल्ली में लाखों की सभा को संबोधित करने वाले विश्वनाथ प्रताप सिंह और लालू यादव उस समय अपने जनता दल को दिल्ली विधानसभा में 4 सीटें दिलवा सके थे और तब उनके तब को मात्र 10 फीसदी ही मत मिले थे। पर केजरीवाल के करिश्मे ने इस बार दिल्ली में गजब ढा दिया। कांग्रेस का सूफड़ा साफ हो गया और सत्ता में आने के लिए आतुर भाजपा भी बहुमत प्राप्त नहीं कर पाई।

लेकिन लोकसभा चुनाव में केजरीवाल के सामने स्थिति कुछ अलग है। भ्रष्टाचार के मसले यहां भी हावी रहेंगे, लेकिन मुफ्त पानी और सस्ती बिजली का वायदा यहां काम नहीं आएगा। हालांकि समझदारी दिखाई हुए यहां भी केजरीवाल से दिल्ली सरकार छोड़ते छोड़ते गैस की कीमतों के निर्धारण करने वाले केन्द्रीय मंत्रियों और मुकेश अंबानी पर मुकदमा कर सस्ती ऊर्जा उपलब्ध कराने के अपने एजेंडे पर काम करने की गुंजायश छोड़ रखी है।

पर भारत दिल्ली नहीं है। यहां चुनाव लड़ने के लिए जिस तरह के संगठन की जरूरत होती है, वह केजरीवाल के पास नहीं हैं। उनका चुनाव तो दिल्ली में भी बहुत संगठित नहीं था, लेकिन छोटा क्षेत्र होने के कारण इसका प्रबंधन एक कमजोर संगठन द्वारा भी संभव था। पर लोकसभा चुनाव में ऐसा संभव नहीं है। विधानसभा चुनाव के बाद सरकार में आकर उन्हें पहले अपनी स्थिति दिल्ली में मजबूत करनी चाहिए थी और धीरे धीरे अपने संगठन का फैलाव करना चाहिए था। संगठन के फैलाव के साथ ही चुनाव लड़ने की अपनी तैयारियों को भी उन्हें बढ़ानी चाहिए थी, पर उन्होंने ऐसा करने उचित नहीं समझा और 2014 के लोकसभा चुनाव में ही अपना सबकुछ दाव पर लगा देने का फैसला किया। जाहिर है केजरीवाल अपना पांच अपने पास उपलब्ध चादर से ज्यादा फैलाने की कोशिश कर रहे हैं और इसके कारण वे लोकसभा चुनाव में अपेक्षित सफलता की उम्मीद नहीं कर सकते।

वे लोकसभा चुनाव में ज्यादा सफलता की उम्मीद इसलिए भी नहीं कर सकते, क्योंकि उनके सामने नरेन्द्र मोदी हैं, जो बहुत पहले से ही लोगों के दिलो दिमाग पर छाए हुए हैं। दिल्ली विधानसभा चुनाव के समय केजरीवाल की पार्टी द्वारा करवाए गए सर्वे में ही उनको वोट देने वाले लोगों में से 31 फीसदी ने कहा था कि विधानसभा चुनाव मे तो वे आम आदमी को वोट दे रहे हैं, लेकिन लोकसभा चुनाव में वे नरेन्द्र मोदी को पीएम बनाने के लिए मतदान करेंगे।

केजरीवाल को पता था कि उनके समर्थकों का एक बड़ा वर्ग नरेन्द्र मोदी का भी समर्थक है। इसलिए उन्होंने अपने हमले कांग्रेस और शीला दीक्षित पर ही किए। भाजपा पर भी उन्होंने हमले किए, लेकिन न तो केजरीवाल ने और न ही उनकी पार्टी के किसी अन्य नेता ने नरेन्द्र मोदी के खिलाफ अपना मुह खोला। लेकिन लोकसभा में उन्हें कांग्रेस से ज्यादा भारतीय जनता पार्टी और राहुल गांधी से ज्यादा नरेन्द्र मोदी के खिलाफ बोलना पड़ेगा, क्योंकि नरेन्द्र मोदी इस लोकसभा चुनाव के सबसे बड़े फैक्टर हो गए हैं।

सवाल उठता है कि क्या केजरीवाल नरेन्द्र मोदी को टक्कर दे पाएंगे? उन्होंने मोदी को चुनौती देनी तो शुरू की कर दी है, लेकिन मोदी के पास जो भाषण कौशल है, वह केजरीवाल के पास नहीं है। चुनाव अभियान में भी मोदी केजरीवाल से बहुत आगे निकल गए हैं। उन्होंने अबतक देश के लगभग सभी हिस्सों में अपनी सभाएं कर डाली हैं और उनकी सभाओं के भाषणों को देश के करोड़ो लोगों ने कई कई दफा सुना है। दूसरी ओर केजरीवाल दो महीने तक दिल्ली सरकार बनाने और चलाने में लगे रहे। यदि उन्होंने सरकार बनाने से साफ इनकार कर दिया होता और 8 दिसंबर के तुरंत बाद लोकसभा चुनाव की तैयारी शुरू कर दी होती, तो शायद वह मोदी का सामना करने के लिए कुछ हद तक अपने को तैयार कर सकते थे। लेकिन अब बहुत देर हो चुकी है।

सच तो यह है कि अब केजरीवाल देश के अन्य हिस्सों में मोदी विरोधी मतों में ही सेंध लगाते दिखाई पड़ेंगे। गैर भाजपा दलों के अनेक लोग जहां तहां आम आदमी पार्टी में शामिल हो रहे हैं और इसके कारण भाजपा विरोधी पार्टियों में भ्रम की स्थित पैदा हो रही है। इसका लाभ आखिरकार नरेन्द्र मोदी को ही होगा, क्योंकि जो उनका प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं, उन्होंने अपना मन लगभग बना लिया है। (संवाद)