वे यह कहते हुए खुश हो रहे हैं कि इस वित्तीय वर्ष की तीसरी तिमाही में अर्थव्यव्स्था की विकास दर 5 दशमलव 2 फीसदी रही है और अंतिम तिमाही में भी विकास की दर यही रहेगी, लेकिन इससे यह तथ्य छुप नहीं जाता कि वर्तमान वित्तीय वर्ष में आर्थिक विकास की दर 4 दशमलव 9 फीसदी ही रहने वाली है। यह तो अनुमानित दर है। वास्तविक दर इससे भी कम हो सकती है। विकास की इस दर पर मुद्रास्फीति की दर का 5 फीसदी से ज्यादा रहना और खाद्य वस्तुओं में महंगाई दर का इससे भी ज्यादा होना हमारे देश के आर्थिक संकट की स्थिति को गंभीर बता रहा है।
वित्त मंत्री खुश हैं कि राजकोषीय घाटे को वह देश के सकल घरेलू उत्पाद के 4 दशमलव 6 फीसदी तक ही सीमित रखने में सफल रहे, लेकिन इसकी कीमत बढी हुई तेल, गैस और अन्य ऊर्जा की कीमतों के रूप में देश को चुकानी पडी है। विकास के अनेक कार्यों को रोकना भी पडा और कुछ कल्याणकारी कार्यों को भी विराम देना पडा। सबसे बडी बात तो यह है कि इस साल की कुछ सब्सिडी को भी अगले साल की सब्सिडी के रूप में दिखने के लिए छोड दिया गया है। यानी सरकारी राजकोष का एक बेहतर रूप दिखाने के लिए आंकडों की बाजीगिरी की भी सहायता ली गई है। लेकिन यह बाजीगिरी विफलता को कुछ समय के लिए ही छिपाती है। सच कुछ समय के बाद सामने आ ही जाता है। पर चिदम्बरम को इसकी चिंता क्यों हों? क्योंकि उन्हें लगता है कि अगला बजट पेश करने के लिए वे संसद में शायद रहें ही नहीं।
यह कोई नियमित बजट नहीं था, इसलिए कराधान के मसलों पर किसी प्रकार के खास निर्णय की उम्मीद नहीं की जा रही थी। प्रत्यक्ष करों में तो उन्होंने कोई छेडछाड नहीं की, लेकिन अप्रत्यक्ष करों को संशोधित जरूर किया। ऐसा करते समय वे अर्थशास्त्री से ज्यादा राजनैतिक नेता होने का अपना कर्तव्य निभा रहे थे। राजनैतिक कारणों से ही सही, उनके द्वारा कुछ वस्तुओं पर उत्पाद करों की कटौती से बाजार को राहत जरूर मिलेगी। सबसे ज्यादा राहत तो मोटर उद्योग को मिलेगी, जो मन्दी का शिकार हो गई है। कुछ अन्य कंज्यूमर सामानों के उद्योग को भी फायदा होगा और इससे इनके उपभोक्ताओं को भी फायदा होगा, लेकिन खाद्य सामग्री जैसी उपभोग की आवश्य्क वस्तुअओं की कीमतों में गिरावट लाने का कोई मंत्र वित्त मंत्री ने अपने अंतरिम बजट प्रावधानों में किया है।
यूपीए सरकार की 10 साल की उपलब्धियों का गाना तो वित्तमंत्री ने बहुत गाया, लेकिन यदि वे पिछ्ले पांच सालों की उपलब्धियों तक ही अपने गाने को सीमित रखते तो देश के आर्थिक हालत की सही तस्वीर वे पेश कर पाते। यह सच है कि 2012 में प्रणब मुखर्जी के राष्ट्रपति बनने के बाद जब उन्हें वित्त मंत्रालय का भार एक बार फिर मिला था, तो उस समय देश की आर्थिक हालत और केन्द्र सरकार की राजकोषीय स्थिति काफी खराब थी और लग रहा था कि देश 1991 से भी खराब दौर में पहुंच सकता है, लेकिन उन्होंने देश की स्थिति को उतना खराब होने नहीं दिया, हालांकि देश के आम लोगों की स्थिति और भी बिगडती गई। सरकार ने अपनी स्थिति ठीक करने के लिए आम आदमी पर ही बोझ डाला और पेट्रोलियम पदार्थों को महंगा करते हुए न केवल देश के लोगों पर सीधा असर डाला, बल्कि भारत का उच्च लागत की अर्थव्यवस्था बनाकर आने वाले समय में भी लोगों की जिन्दगी मुहाल कर देने का इंतजाम कर दिया।
देश की आंतरिक आर्थिक हालत खराब होती है तो उसका असर अंतर्राष्ट्रीय बाजार में उसकी हैसियत पर भी पड्ता है। रुपये की गिरती विनिमय दर के रूप में हम अपनी आर्थिक हालात को अंतर्राष्ट्रीय आईने में भी देख चुके हैं। रुपया एक समय कमजोर होकर प्रति डालर 70 रुपया तक पहुंच रहा था। चिदम्बरम की इसके लिए सराहना की जानी चाहिए कि रुपये को सम्भालने में सफल हुए, वैसे इसका ज्यादा श्रेय भारतीय रिजर्व बैंक के नवनियुक्त गवर्नर को रघुराजन को जाता है, पर राजकोषीय नीतियों का भी उसमें योगनाद रहा है। चिदम्बरम ने सोने के आयात पर सीमा शुल्क बढाकर सोने के आयात को कम किया, जिसे विदेश व्यापार के चालू खाते का घाटा कम हुआ। चालू खाते पर बढ रहा घाटा रुपये को कमजोर कर रहा था। राजनैतिक इच्छा शक्ति का परिचय देते हुए चिदमबरम ने सोने के आयात को कम होने के लिए मजबूर कर दिया। और इसका फायदा यकीनन रुपये को हुआ और आज रुपया कमजोर तो है, लेकिन अस्थिर नहीं है। रुपये की स्थिरता हमारे देश की आर्थिक स्थिरता के लिए जरूरी है। चिदम्बरम ने अनेक उत्पाद शुल्कों की दरों को घटाया। एकाधा सीमा शुल्क की दरें भी घटा दीं, लेकिन सोने पर सीमा शुल्क को नहीं घटाकर उन्होंने एक बडा काम किया है। खुद सोनिया गाँधी का उनपर सोने के आयात शुल्क की दर घटाने का दबाव था। इसके लिए सोनिया गाँधी ने वाणिज्य मंत्री आनन्द शर्मा को एक चिट्ठी भी लिखी थी। पर चिदम्बरम ने तो उस समय सोनिया की परवाह की और न ही अंतरिम बजट बनाते समय। जाहिर है, उन्होंने सोनिया की बात को न मानकर रुपये को संकट में डालने का काम नहीं किया। लोकसभा चुनाव सिर पर है। जाहिर है, अपने अंतरिम बजट को तैयार करते हुए चिदमबरम पर भी चुनाव का दबाव रहा होगा। शायद कुछ आयटमों के उत्पाद शुल्कों की दरों को कम करने के पीछे चुनावी दबाव रहे होंगे, लेकिन बजट देखकर ऐसा नहीं लगता कि मतदाताओं को रिझाने के लिए चिदम्बरम ने कहीं भी मर्यादा का उल्लंघन किया है। वे चाहते, तो प्रत्यक्षा आयकरों में भी लोगों को लुभाने वाली छेडछाड कर देते। लेकिन उन्होंने वैसा नहीं किया। कर सुधारों के मसलों पर उन्होंने बिना साफ साफ कहे अपनी विफलता भी स्वीकार कर ली। डायरेक्ट टैक्स कोड और गुड्स एंड सर्विस टैक (सीएसटी) के अमल में न ला पाने की कसक उनके भाषण में दिखाई पडी। कुल मिलाकर चिदम्बरम ने बजट लाने की रस्म अदायगी पूरी कर दी।(संवाद)
यूपीए सरकार का अंतिम बजट
चिदम्बरम की खुशफहमी है चार दिनों की चांदनी
उपेन्द्र प्रसाद - 2014-02-18 12:45
केन्द्रीय वित्तमंत्री पी चिदम्बरम ने आगामी वित्तीय वर्ष के पहले चार महीनों का लेखानुदान पेश करते हुए देश की अर्थव्यवस्था और खासकर केन्द्र सरकार की राजकोषीय स्थिति पर जो खुशफहमी भरी बातें कीं, उससे न तो देश की अर्थव्यव्स्था का संकट कम होता है और न उससे केन्द्र सरकार के राजकोष की खस्ता हालत अच्छी होती है।