यह सोचना गलत है कि केजरीवाल जोश में आकर यह काम कर रहे हैं। सच जो यह है कि वे अपना प्रत्येक कदम बहुत ही सोच विचारकर उठाते हैं। पिछले कुछ महीने से वे इस पर सावधानीपूर्वक सोच विचार कर रहे थे। दिल्ली का मुख्यमंत्री बनना और फिर उस पद से इस्तीफा देना लोकसभा चुनाव के मद्दे नजर ही किया गया था। दिल्ली चुनाव की सफलता से केजरीवाल बहुत उत्साहित हो गए थे। उन्हें लग रहा है कि राष्ट्रीय स्तर पर भी राजनीति में एक खालीपन है, जिसे भरा जा सकता है। इसलिए उन्होंने राष्ट्रीय राजनीति में जोर शोर से उतरने का फैसला किया है। यदि लोकसभा त्रिशंकु रहती है, तो वे देश के प्रधानमंत्री पद पर बैठने की संभावना भी तलाश रहे होंगे।

सवाल उठता है कि क्या केजरीवाल राष्ट्रीय स्तर पर दिल्ली को दुहरा सकेंगे? क्या उनके पास उतने संसाधन, उतनी क्षमता और उतने उम्मीदवार हैं, जो उन्हें भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस और क्षेत्रीय पार्टियों को चुनावी चुनौती दे सकें। दिल्ली के मुख्यमंत्री पद से उन्होंने जिस तरह से एकाएक इस्तीफा दिया, उससे पता चलता है कि एक अनुभवहीन व्यक्ति को देश की जमीनी राजनीति से टकराने पर क्या अनुभव होता है।

राष्ट्रीय स्तर पर केजरीवाल क्या कर पाएंगे, इसका अनुमान तो अभी पूरी तरह नहीं लगाया जा सकता है, लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि दिल्ली जैसे एक छोटे राज्य में चुनाव जीतना एक बात है और देश के अन्य भाग में उसी जीत को दुहराना बिल्कुल दूसरी बात।

क्षेत्रीय स्तर पर ममता बनर्जी, मायावती, मुलायम, जयललिता, करुणानिधि, नवीन पटनायक, फारूक अब्दुल्ला और लालू यादव जैसे नेता हैं। उन सबका अपने प्रदेशों की राजनीति पर पकड़ है। वे अपने प्रदेशों में सफल होते हैं, क्योंकि उन्हें उन प्रदेशों में राष्ट्रीय पार्टियों के नेताओं का विकल्प समझा जाता है।

आम आदमी पार्टी एक नई पार्टी है, जिसने उस दिल्ली मंे अपनी जगह बनाई। वहां भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के बीच में ही अब तक टक्कर हुआ करती थी। कोई तीसरी पार्टी मजबूत हालत में कभी रही नहीं। इसलिए केजरीवाल को उन दोनों राष्ट्रीय पार्टियों के खिलाफ असंतोष का लाभ हो गया, लेकिन अन्य अनेक राज्यों में एक मजबूत तीसरी पार्टी पहले से ही है। इसलिए उन राज्यों में दिल्ली जैसी जगह बनाना आसान नहीं होगा। लेकिन दिल्ली की आप की जीत उन क्षेत्रीय नेताओं के लिए एक चेतावनी तो है ही। आप की चुनौतियों का सामना करने के लिए वे शायद अपनी रणनीति भी बदलें।

अरविंद केजरीवाल की उन क्षेत्रीय नेताओं के सामने एक और कमजोरी साफ दिखाई पड़ रही है। जहां उन क्षेत्रीय नेताओं से सफलता पूर्वक अपनी सरकारें बनाई हैं, वहीं दूसरी ओर केजरीवाल ने बीच में ही अपनी सरकार का इस्तीफा करवा दिया। उन्होंने इस्तीफा भी इस तरह से दिया, जिससे उनका सम्मान नहीं बढ़ा। वे एक लोकपाल कानून बनाने की कोशिश कर रहे थे और वैसा करते हुए वे सांवैधनिक प्रावधानों का पालन भी नहीं करना चाह रहे थे। जब वैसा करने में उन्हें सफलता नहीं मिली, तो उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया।

दिल्ली सरकार न चला पाना और चलाते हुए विपक्ष को अपने विश्वास में न ले पाना केजरीवाल के राजनैतिक कैरियर पर एक काला धब्बा है। आखिर जब आप राजनीति में हैं, तो अपने प्रतिस्पर्धियों का भी ख्याल रखना पड़ता है और कानून निर्माण में सबको साथ लेकर चलना ठीक रहता है। पर केजरीवाल अपने लोकपाल कानून के निर्माण के समय किसी की नहीं सुनना चाह रहे थे, जबकि उन्हें पता था कि वे अपनी पार्टी की ताकत के बूते उसे बना नहीं पाएंगे। (संवाद)