कबीर दास ने कहा है, ’’जाके गुरू अंधरा, चेला खरा निरंध। अंधा अंधे ठेल्या, दुन्यु कूप पड़ंत।’’ अन्ना और ममता का जो गठबंधन हुआ है, उसकी नियति कुछ इसी तरह की होने वाली है।

अन्ना अपनी खोई हुई साख फिर से पाना चाह रहे हैं। ऐसा करने के लिए वे ममता बनर्जी की सहायता ले रहे हैं। लेकिन उन्होंने ऐसा करने के लिए बहुत ही गलत व्यक्ति का चुनाव किया है। लेकिन यदि उन्हें ऐसा करने के लिए महाराष्ट्र से बहुत दूर बंगाल में किसी को चुनना पड़ा है, तो इसका कारण यह है कि उनके अपने प्रदेश में या आसपास ऐसा कोई व्यक्ति है ही नहीं, जिसके साथ गठबंधन करके अपनी पुरानी चमक वापस पा सकें।

यह किसी से छिपा हुआ नहीं है कि अन्ना हजारे अपने प्रदेश के हाशिए पर रहने वाले सामाजिक कार्यकत्र्ता रहे हैं। इसका खुलासा तो उसी समय हो गया था, जब दिसंबर, 2011 में मुंबई के आजाद मैदान में उनके अनशन के दौरान अनशन स्थल खाली पड़ा रह गया था।

उसके कुछ महीने पहले ही दिल्ली में उनका अभियान बेहद सफल रहा था। उस समय उनके अभियान को मिली सफलता को देखते हुए टीवी चैनलों पर उनके समर्थकों ने कहना शुरू किया था कि देश राजनैतिक बदलाव के मुहाने पर खड़ा है। वे कह रहे थे कि वर्तमान व्यवस्था जल्द ही अतीत की चीज बन जाएगी। किरण बेदी तब कह रही थीं कि अन्ना ही भारत हैं और भारत ही अन्ना है। चारों तरफ नारा गूंज रहा था, ’’ मैं भी अन्ना, तू भी अन्ना। ये भी अन्ना, वो भी अन्ना।’’

लेकिन मुंबई के आजाद मैदान में लोगों की कमी ने अन्ना के बैलून को पिचका डाला। उसके बाद उन्होंने अपने अभियान में चमक पैदा करने में सफलता नहीं पाई। अरविंद केजरीवाल को दिखाई पड़ गया कि आंदोलन को अब पुरानी गति नहीं मिलने वाली है। तब उन्होंने अन्ना को एक डूबते जहाज के रूप में छोड़ दिया और अपने लिए एक अलग रास्ता ढूंढ़ लिया, जो अन्ना को मंजूर नहीं था। जब अरविंद केजरीवाल व अन्य सहयोगियों ने अन्ना को छोड़ दिया, तो वे अपने लिए नये राजनैतिक सहयोगी तलाशने लगे। उन्हें जनरल वी के सिंह भी मिले, लेकिन वे भाजपा में शामिल हो गए। आरएसएस भी अब अन्ना में पहले की तरह दिलचस्पी नहीं दिखा रहा है।

यदि रालेगन सिदृधी के नैतिकतावादी अन्ना ने अपने सहयोगी के रूप में ममता बनर्जी का चुनाव किया है, तो इसका कारण यह है कि वे ममता को नहीं जानते। सरकार में रहने के बाद उनके कामकाज का क्या रिकार्ड रहा है यह भी अन्ना को नहीं पता है। उनकी एकमात्र उपलब्धि यही रही है कि उन्होंने शेर (सीपीएम) को उसके मांद में ही मात दे डाली। लेकिन वैसे भी तीन दशक से ज्यादा सत्ता में रहने वाले वाम मोर्चे को सत्ता से बाहर होना ही था। वे ममता के कारण नहीं, बल्कि अपनी नाकामियों के कारण सत्ता से बाहर हुए।

ममता बनर्जी विजयी होकर सत्ता में तो आ गईं, लेकिन सत्ता में आकर भी उन्होंने अपनी पूरानी आदत नहीं बदली। जिसके कारण पश्चिम बंगाल की हालत में सुधार नहीं हुआ और वहां का मध्य वर्ग उनसे नाराज हो रहा है। उनकी समझ क्या है, इसका पता इसीसे चलता है कि वह कह रही हैं कि प्रदेश में यौन हिंसा वाम मोर्चे की साजिश के तहत हो रही है। उन्होंने अभी तक लोकायुक्त का भी गठन नहीं किया है। गौरतलब है कि लोकपाल और लोकायुक्त अन्ना हजारे के प्रिय विषय रहे हैं।

जिस तरह से अन्ना को राजनैतिक बदलाव के इस दौर में कोई साथी चाहिए था, उसी तरह ममता बनर्जी को भी किसी न किसी का साथ चाहिए था। उन्होंने राष्ट्रीय राजनीति में अपना पैर फैलाने की कोशिश की, लेकिन पश्चिम बंगाल से बाहर की राजनीति की समझ उन्हें नहीं है, इसलिए वह मार खा गईं। मुलायम सिंह यादव से मिलकर वह प्रणब मुखर्जी को राष्ट्रपति बनने देने से रोकना चाहती थीं, लेकिन उस प्रयास में उनकी अपनी भद्द ही पिट गई, क्योंकि मुलायम सिंह यादव ने उनको धोखा दे दिया। अन्ना के साथ भी यदि उनका कुछ वैसा ही अनुभव हो तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

अन्ना हजारे जिस तरह अरविंद केजरीवाल पर बरस पड़ते हैं, उससे साफ लगता है कि उनकी असली खुन्नस केजरीवाल से है और उनहें यह भी लगता है कि उनकी लोकप्रियता का लाभ उठाकर वे दिल्ली के मुख्यमंत्री बन बैठे। अन्ना को यह भी लग रहा था कि उनकी लोकप्रियता का लाभ उठाकर अरविंद लोकसभा चुनाव में भी बेहतर प्रदर्शन कर सकते हैं। तो बस उन्हें लगा कि किसी अन्य नेता के साथ दिखाई पड़ना चाहिए और उन्होनंे इसके लिए ममता बनर्जी को चुन लिया। लेकिन इस तरह से की गई खुन्नस की राजनीति अन्ना को वह चमक नहीं दिला पाएगी, जिसे वे अगस्त 2011 के अपने अनशन के दौरान पाने मे सफल हुए थे। (संवाद)