रामविलास के कथित सेकुलरिज्म पर 2002 में भी सवाल उठाए गए थे। दरअसल गुजरात के दंगों के कुछ समय पहले ही अटल बिहारी वाजपेयी ने उनका मंत्रालय बदल डाला था। वे पहले संचार मंत्री थे और वहां से उन्हें हटाकर कोयला मंत्रालय में भेज दिया गया था। उसके कारण वे नाराज चल रहे थे और उनके इस्तीफे की मुख्य वजह उनकी वह नाराजगी ही थी, लेकिन उन्होंने अपने इस्तीफे को एक वैचारिक रूप दे डाला और अपने आपको सेकुलरिज्म का मसीहा घोषित कर दिया। उनके सेकुलरिज्म का मतलब उनकी मुस्लिम परस्ती से थी। उन्होंने बिहार की राजनीति में मुस्लिम-यादव राजनैतिक समीकरण के खिलाफ दलित-मुस्लिम राजनैतिक समीकरण बनाने की घोषणा कर दी। यानी जिस सेकुलरिज्म के लिए रामविलास अपने आपको महान बता रहे थे, वह एक किस्म की सांप्रदायिकता ही थी, जिसके तहत मुसलमानों की सांप्रदायिक भावना को उभार कर उनका राजनैतिक इस्तेमाल किया जाना था। सेकुलरिज्म की आड़ मे ंइसी तरह की मुस्लिम सांप्रदायिक राजनीति लालू और मुलायम भी कर रहे थे। रामविलास ने भी उन्हीं का रास्ता चुना, लेकिन उसमें उनको सफलता नहीं मिली।
फिर भी अपनी सांप्रदायिक राजनीति को वे सेकुलरिज्म का जामा पहनाते पर, पर अब उसे भी उतार फेंकने की तैयारी कर चुके हैं। यानी अब मुस्लिमपरस्त सांप्रदायिकता को भी रामविलास राम राम करने करने की तैयारी कर चुके हैं, क्योंकि वह राजनीति उन्हें सत्ता के गलियारे में बने रहने में सहायक नहीं साबित हो रही है। रामविलास पासवान सांप्रदायिक नेता होने के पहले एक जातिवादी नेता हैं। वे अपनी जाति की राजनीति कर रहे हैं। अब बिहार में अपनी जाति से बाहर उनका कोई समर्थन आधार रह नहीं गया है। अपनी जाति के मतों के भी वे एकमात्र ठेकेदार नहीं हैं। उसका आधा भी उन्हें नहीं मिलता होगा और एक जाति के आधार पर कोई राजनीति तो कर सकता है, लेकिन चुनाव नहीं जीत सकता। इसलिए वे अपनी जाति के वोटों की सौदेबाजी करके राजनैतिक समीकरण बनाते हैं और उसके द्वारा ही अपनी जीत सुनिश्चित करते रहे हैं। पर पिछले चुनाव में वे हार गए थे। उसके बाद विधानसभा के आम चुनाव में भी उनकी पार्टी की भारी पराजय हुई थी। उनके सारे रिश्तेदार हार गए थे। मात्र तीन विधायक जीते थे। उनमें दो तो मुस्लिम ही थे। अब तक तीनों विधायक भी उनका साथ छोड़ चुके हैं। जाहिर है, बिहार की राजनीति में वे हाशिए से बाहर धकेल दिए गए हैं। और इसके कारण लालू यादव अपने गठबंधन में उन्हें दो या तीन सीटों से ज्यादा देने को तैयार नहीं थे। पर इससे उनका काम नहीं चल सकता, इसलिए उन्होंने भारतीय जनता पार्टी से गठबंधन करने का निर्णय कर लिया है।
रामविलास पासवान एक और कारण से भाजपा की ओर आकर्षित हो रहे हैं। इसका कारण यह है कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व के कारण बिहार की सबसे राजनैतिक शक्ति आज भाजपा ही बन गई है। इसके समर्थन से चुनाव लड़ने का मतलब अपनी जीत को सुनिश्चित समझना है। लालू और कांग्रेस से गठबंधन की रामविलास अपनी और अपने परिवार जनों की जीत के प्रति उतना आश्वस्त नहीं हो सकते, जितना नरेन्द्र मोदी के साथ गठबंधन कर। इसलिए वे नरेन्द्र मोदी की ओर उसी तरह आकर्षित हो रहे हैं, जैसे एक चुंबक की ओर लोहा आकर्षित होता है।
पर उनके द्वारा इस तरह आकर्षित होने से उनके राजनैतिक चरित्र का दोमुहापन खुलकर सामने आ जाता है। कल तक मोदी को हत्यारा कहने वाले रामविलास पासवान अब अपनी गर्दन उनके ही हाथ में देने को तैयार हैं, क्योंकि वे सत्ता में या कम से कम सांसद जरूर बने रहना चाहते हैं। उन्हें सिर्फ अपनी फिक्र ही नहीं है, बल्कि अपने परिवार के अन्य सदस्यों की एक फौज भी उनके साथ है, जिसके लिए रसद का इंतजाम वे मोदीजी की दुकान पर जाकर ही कर सकते हैं। और ऐसा करने में उन्हें कोई गुरेज नहीं है। वे कहते हैं कि सेकुलरिज्म के कारण उन्होंने अपनी पार्टी समाप्त कर दी। वे अभी भी अपने को सेकुलर कह रहे हैं, बस अपनी पार्टी (जिसकी तुलना उन्होंने माॅं से की) को बचाने के लिए वे मोदी की शरण मे जा रहे हैं। यानी अपनी सेकुलर मां को बचाने के लिए उन्हें नरेन्द्र मोदी का ही आसरा रह गया है और वह भी उस नरेन्द्र मोदी का, जिन्हें वह कम्युनल और हत्यारा कहते आ रहे थे। रामविलास का सेकुलरिज्म अब कम्युनलिज्म के दरवाजे पर खड़ा होकर जिंदा रहने के लिए उसके सहारे की भीख मांग रहा है। यह हमारे देश की राजनीति की एक बड़ी त्रासदी है।
रामविलास पासवान द्वारा मोदी के सामने याचनाभाव से जाना सिर्फ उनके आत्मकेन्द्रित राजनीति का पर्दाफाश नहीं करता, बल्कि उनकी तरह के अन्य नेताओं के पाखंड का भी पर्दाफाश करता है। रामविलास सेकुलरिज्म के अकेले ठेकेदार नहीं है। उनके जैसे और भी अनेक लोग हैं, जो अपने आपको सेकुलर मानते हैं, लेकिन उनका सेकुलरिज्म भी मुस्लिमपरस्ती की सांप्रदायिकता ही है। वे मुसलमानों को सेकुलर वोट मानते हैं। मुसलमान उनके लिए सेकुलर वोट बैंक हैं। मुद्रास्फीति और रुपये के अवमूल्यन के इस दौर में जब इस बैंक के वोट से काम न चलता हो तो फिर नरेन्द्र मोदी के वोट बैंक पर नजर डालना रामविलास पासवान जैसे नेताओं की फितरत हो जाती है।
सच कहा जाय, तो रामविलास के इस निर्णय ने मुस्लिम सांप्रदायिकता और अपनी जाति के जातिवादी राजनीति के समीकरण बनाने वालों की पोल खोल दी है। मायावती कहती हैं कि वे नरेन्द्र मोदी का पीएम नहीं बनने देंगी, लेकिन 2002 के गुजरात दंगे के बाद हुए वहां के विधानसभा चुनाव में वे मोदी को वहां का सीएम बनाने के लिए प्रचार कर रही थीं। नीतीश कुमार भी मोदी के खिलाफ हैं, लेकिन एक समय वे भी गुजरात में जाकर मोदी की महानता के गुणगान कर चुके हैं। मुलायम सिंह यादव और लालू यादव यदि मायवती, रामविलास पासवान और नीतीश की तरह दोनों राग अलापने से वंचित रहे हैं, तो इसका कारण यही है कि अभी भी उन्हें अपने मुस्लिम वोट बैंक में अपनी जीत का भरोसा दिखाई दे रहा है। रामविलास की तरह अपने स्वार्थ की खातिर वे कभी भी अपने सुर बदल सकते हैं। आज की राजनीति का संदेश यही है।(संवाद)
नरेन्द्र मोदी की शरण में रामविलास
मुस्लिमपरस्त सेकुलरिज्म की भी एक सीमा है
उपेन्द्र प्रसाद - 2014-02-27 14:09
रामविलास पासवान द्वारा नरेन्द्र मोदी की शरण में जाने की तैयारी भारतीय राजनीति के पतन की एक और कहानी कहती है। मोदी को गुजरात के मुख्यमंत्री पद से बर्खास्त करने की मांग करते हुए पासवान ने 2002 में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन छोड़ दिया था। उस समय वे केन्द्र सरकार में मंत्री भी थे। उन्होंने मंत्री का पद भी छोड़ दिया था। उसके बाद वे लगातार नरेन्द्र मोदी की आलोचना करते रहे। यही नहीं यदि नीतीश कुमार जैसा कोई अन्य नेता मोदी की आलोचना में उतरता, तो रामविलास उसे अपने त्याग की याद दिलाते और कहते कि त्याग उन्होंने किया है, लिहाजा असली सेकुलर वही हैं।