इन अध्यादेशों को जारी करने के लिए उनके पास मंत्रिपरिषद की कोर्इ सलाह नहीं आर्इ थी, लेकिन कुछ केन्द्रीय मंत्रियों ने औपचारिक रूप से मंत्रिमंडल की सलाह राष्ट्रपति को देने के पहले उनसे निजी तौर पर बातचीत की और यह जानने की कोशिश की कि राष्ट्रपति उन अध्यादेशों के बारे में क्या राय रखते हैं। प्रणब मुखर्जी ने अपनी राय उन अध्यादेशों के खिलाफ रखी और केनिद्रय मंत्रिपरिषद ने औपचारिक रूप से उसे राष्ट्रपति के सामने पेश ही नहीं किया।
कानून बनाने की एक प्रकि्रया तय है। विधेयक को संसद मे पेश किया जाता है और बहस या बिना बहस के उसे दोनों सदनों से पारित करवाकर राष्ट्रपति की अनुमति के लिए भेजा जाता है। राष्ट्रपति की अनुमति मिलने के बाद वह विधेयक कानून बन जाता है। पर यदि संसद का सत्र नहीं चल रहा हो और किसी कानून का निर्माण जल्द से जल्द होना अनिवार्य हो, तो उसके लिए अध्यादेश का रास्ता अपनाने की संवैधानिक व्यवस्था है। इसके तहत केन्द्रीय मंत्रिमंडल अध्यादेश का मजमून तैयार कर उसे पहले स्वीकृत करता है और फिर उसे राष्ट्रपति की अनुमति के लिए भेज दिया जाता है। राष्ट्रपति की अनुमति मिलने के साथ ही वह कानून बन जाता है। वह अध्यादेश स्थार्इ नहीं होता है। संसद का सत्र शुरू होने के 4 सप्ताह के अंदर यदि उसे वहां पारित नहीं कराया गया, तो वह निष्प्रभावी हो जाता है। यानी अध्यादेश को स्थार्इ रूप से कानून बनने के लिए आखिरकार संसद का अनुमोदन लेना ही होता है।
पर ताजा मामला विचित्र है। केन्द्र सरकार के पास भ्रष्टाचार से संबंधित उन चारों विधेयकों को संसद से पास कराने के लिए भरपूर समय था। वे चारों विधेयक बहुत दिनो से संसद की सहमति का इंतजार कर रहे थे। लेकिन केन्द्र सरकार उन्हें संसद से पास करवाने में दिलचस्पी नहीं दिखाया करती थी। संसद का सत्र शुरू होने के पहले संसद के सामने उपसिथत होने वाले विधेयकों की सूची में उन्हें भी शामिल कर दिया जाता था, लेकिन वह बस रस्म अदायगी ही होती थी।
वर्तमान लोकसभा के अंतिम सत्र में भी इन चारों विधेयकों को सूचीबदध किया गया था। पर सरकार ने उन्हें पारित कराने में दिलचस्पी नहीं दिखार्इ। यदि वह चाहती, तो इन्हें पारित करने के लिए संसद के सत्र को एक या दो दिनों तक के लिए बढ़ाया भी जा सकता था, लेकिन सरकार ने वैसा नहीं किया। पर जब सत्र समा़़प्त हो गया, तो अध्यादेश के रास्ते उन विधेयकों को कानून बनाने का ध्यान उसे आया।
कहते हैं कि कांग्रेस उपाध्यक्ष उन चारों विधेयकों को अध्यादेश द्वारा कानून बनाने के लिए सबसे ज्यादा दिलचस्पी दिखा रहे थे। वे सभी विधेयक काफी महत्वपूर्ण विधेयक हैं। वैसे विधेयकों पर लंबी चर्चा के बाद ही संसद से पारित कराये जाने का रिवाज रहा है। पर राहुल गांधी चाहते थे कि उन्हें जल्द से जल्द पारित कराया जाय, ताकि उनकी पार्टी चुनावों में उन कानूनो के निर्माण का श्रेय ले सके और कह सके कि वह भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए वास्तव में बहुत ही कृतसंकल्प है। पर कांग्रेस और सरकार के अंदर से उसका विरोध हो रहा था। यूपीए के अन्य घटक दल भी उसका विरोध कर रहे थे। पर राहुल गांधी को खुश करने के लिए उन विरोधों को भी नजरअंदाज करने का फैसला सरकार ने कर लिया था।
पर अध्यादेश तो तभी जारी होगा, जब राष्ट्रपति उसे जारी करेंगे। यह उनके दस्तखत और उनके कार्यालय से जारी अधिसूचना से ही जारी होता है। इसमें तकनीकी पेंच यह था कि जो सरकार इन अध्यादेशों को लाने को कह रही है, अब संसद के अगले सत्र में इन्हें पेश करने को असितत्व में रह पाएगी या नहीं, यही अनिशिचित था, क्योंकि संसद का अगला सत्र अब लोकसभा चुनाव के बाद ही आहुत किया जाएगा। इसलिए अपनी कार्यावधि के अंतिम छोर पर खड़ी सरकार के लिए इस तरह का अध्यादेश लाना अमर्यादित काम था। और वैसी कोर्इ इमरजेंसी भी नहीं है कि यदि इन अध्यादेशों को लागू नहीं किया जाय, तो कोर्इ बड़ा अनर्थ देश के सामने खड़ा हो जाएगा। जाहिर है केन्द्र सरकार का अध्यादेश लाने का यह फैसला अमर्यादित था। और राष्ट्रपति ने अपनी असहमति देकर अध्यादेश की मर्यादा की रक्षा ही की है। यह अध्यादेश ही नहीं, बलिक प्रणब मुखर्जी द्वारा राष्ट्रपति पद की मर्यादा की भी रक्षा थी। (संवाद)
अध्यादेश और राष्ट्रपति: मुखर्जी ने पद की गरिमा की रक्षा की
नन्तू बनर्जी - 2014-03-08 15:44
केन्द्र सरकार भ्रष्टाचार विरोधी 4 विधेयकों को कानून बनाने के लिए अध्यादेश का रास्ता अखितयार करने की कोशिश कर रही थी। लेकिन उसकी यह कोशिश विफल हो गर्इ। इसका कारण यह है कि राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने उन अध्यादेशों को जारी करने से इनकार कर दिया। आमतौर पर राष्ट्रपति ऐसे मामलों में केन्द्रीय मंत्रिपरिषद की सलाह के अनुसार काम करते हैं।