झारखंड का गठन 2000 में बिहार के विभाजन से हुआ था। गठन के बाद हुए किसी भी विधानसभा चुनाव में किसी भी पार्टी अथवा चुनावपूर्व मोर्चे को कभी भी बहुमत हासिल नहीं हुआ। इसका कारण यहां स्थानीय दलों की बहुलता है। भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के अलावा झारखंड मुक्ति मोर्चा, झारखंड विकास मोर्चा, झारखंड विकास दल आॅल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन (आजसू) तथा कुछ अन्य छोटे क्षेत्रीय दलों का यहां अस्तित्व है। इनके अलावा बिहार में अपनी मूल ताकत रखने वाले राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल (यूनाइटेड) की भी यहां स्थिति है। इस बार तो पड़ोसी राज्य पश्चिम बंगाल की तृणमूल कांग्रेस ने भी अपने उम्मीदवार खड़े कर दिए हैं।

जहिर है छोटी बड़ी करीब एक दर्जन पार्टियां यहां चुनाव मैदान में हैं। झारखंड मुक्ति मोर्चा, राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस ने आपस में मोर्चेबंदी कर रखी है, जबकि भारतीय जनता पार्टी अकेली सभी सीटों पर चुनाव लड़ रही है। पार्टियों की अधिकता के कारण सभी सीटों पर बहुकोणीय संघर्ष की स्थिति बन रही है। कहीं 4 गंभीर प्रत्याशी चुनाव जीतने के गंभीर प्रयास कर रहे हैं, ते कहीं 5 प्रत्याशी जीत के लिए हर संभव कोशिश कर रहे हैं।

ऐसी स्थिति में यदि किसी उम्मीदवार ने कुल पड़े मतों का 25 फीसदी भी हासिल कर लिया, तो वह अपनी जीत पक्की मान सकता है। यह परिस्थिति भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवारों के अनुकूल होनी चाहिए थी, क्योंकि प्रदेश में नरेन्द्र मोदी की हवा चल रही है। लेकिन उसका लाभ भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवारों को होता दिखाई नहीं पड़ रहा है। इसका कारण है टिकट बंटवारे के समय जातीय गणित को ध्यान में नहीं रखना।

झारखंड एक पिछडा प्रदेश है, जहां कि 90 फीसदी आबादी अनुसूचित जातियों, जन जातियों व अन्य पिछड़े वर्गों की है। अनुसूचित वर्गो को तो अपनी आबादी के अनुपात में आरक्षण मिला हुआ है, लेकिन अन्य पिछड़े वर्गो को सामान्य सीटों से ही लड़ने का मौका मिलता है। उनकी आबादी करीब 58 फीसदी है। उनमें मुस्लिम ओबीसी भी शामिल हैं।हिंदू ओबीसी आबादी प्रदेश की कुल आबादी की आधी है, लेकिन भारतीय जनता पार्टी ने मात्र दो ओबीसी उम्मीदवारों को ही टिकट दिया है और वे दोनों ओबीसी उम्मीदवार एक ही जाति के हैं। जाहिर है ओबीसी की अन्य जातियां भाजपा से नाराज हो गई हैं।

भाजपा नरेन्द्र मोदी की ओबीसी पृष्ठभूमि का लाभी चुनाव में उठाना चाह रही है। उसे लगता है कि प्रधानमंत्री की ओबीसी पृष्ठभूमि को देखते हुए पार्टी उनके अधिकांश मतों को अपनी ओर खींच सकती है, लेकिन प्रत्याशी के चयन में उसका ख्याल नहीं रखने के कारण ओबीसी मतों को अपनी ओर खींचने में पार्टी आंशिक रूप से ही सफल होती दिखाई दे रही है।

मंडल आंदोलन के द्वारा प्रदेश की खेतिहर जातियों का सशक्तिकरण हो चुका है। पर इससे गैर खेतिहर ओबीसी जातियों में एक तरह का आक्रोश है कि वे पिछड़े के पिछड़े रह गए हैं। ऐसी जातियों ने अपने आपको वैश्य पहचान देकर अपनी एक अलग राजनैतिक पहचान बनाई है। उनमें व्यापार करने वाली जातियां ही नहीं, बल्कि काश्तकार जातियां भी शामिल हैं। उनकी सम्मिलित आबादी प्रदेश की कुल आबादी की 35 फीसदी होगी। लेकिन इन वैश्य ओबीसी जातियों को भाजपा ने एक भी टिकट नहीं दिया। संयोग से भाजपा के प्रधानमंत्री उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी इन्हीं वैश्य ओबीसी जातियों में से ही आते हैं।

इस चुनाव में दो आदिवासी नेता आपस में वर्चस्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। यह चुनाव तय करेगा कि उन दोनों में कौन झारखंड की भावी राजनीति के नेता होते हैं। उनमें से एक हैं शीबू सोरेन तो दूसरे नेता हैं बाबूलाल मरांडी। दोनों प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। इस समय श्री सोरेन के बेटे हेमंत सोरेन प्रदेश के मुंख्यमंत्री हैं। श्री मरांडी ने शीबू सोरेन के क्षेत्र दुमका से नामांकन किया है और यह क्षेत्र दो आदिवासी नेताओं के राजनैतिक युद्ध का गवाह बन रहा है। यदि श्री मरांडी श्री सोरेन को पराजित कर देते हैं, तो फिर वे अपने आपको झारखंड के सबसे ताकतवर राजनैतिक नेता को रूप में स्थापित कर देंगे।

इस चुनाव की एक खास विशेषता तृणमूल कांग्रेस का इसमें प्रवेश हैं। शीबू सोरेन के भाई भी तृणमूल के एक उम्मीदवारों में से एक हैं। पलामू के सांसद कामेश्वर बैठा भी इस बार तृणमूल कांग्रेस के उम्मीदवार के रूप में ताल ठोंक रहे हैं। कुछ विधायकों ने पाला बदलकर तृणमूल का दामन थाम लिया है और वे अब लोकसभा के प्रत्याशी हैं।

दलों की अधिकता के कारण चुनावी स्थिति अस्पष्ट है। हारजीत का अंतर बहुत की कम मतों से होने जा रहा है और जीतने वाले उम्मीदवारों को भी बहुत ज्यादा मत लाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। यही कारण है कि फिलहाल परिणामों के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। पर इतना जरूर कहा जा सकता है कि भारतीय जनता पार्टी ने सामाजिक समीकरणों की उपेक्षा करके झारखंड में अन्य पार्टियों का सूफड़ा साफ करने का अवसर खो दिया है। (संवाद)