कांग्रेस ने बिहार में लालू का दामन थाम रखा है। सत्तारूढ़ जद(यू) के कुछ विधायक पार्टी से बाहर होकर विरोधी दलों का चुनाव प्रचार कर रहे हैं। हालांकि नीतीश कुमार ने राजद के कुछ विधायकों को अपनी ओर खींच लिया है और कुछ भाजपा विधायक भी उनके साथ दिखाई दे रहे हैं, पर दल बदल विरोधी कानून के कारण राजद और भाजपा के नीतीश समर्थकों विधायकों द्वारा उनकी सरकार को विधानसभा के अंदर समर्थन दिया जाना संदिग्ध है। विधानसभा में सरकार समर्थक और विरोधियों की स्थिति इस समय स्पष्ट नहीं है।
केन्द्र में सरकार गठन के बाद नीतीश कुमार सरकार के लिए संकट दो कारणों से पैदा होगा। यदि केन्द्र में मोदी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बन जाती है, तो बिहार सरकार में अस्थिरता बढ़ाने वाली ताकतों का मनोबल बढ़ेगा। इसके अलावा बिहार की 40 लोकसभा सीटों के नतीजे यह साबित करेंगे क नीतीश का जनता के ऊपर कितना प्रभाव रह गया है। यदि जनता दल(यू) के उम्मीदवार ठीक संख्या में चुनाव नहीं जीतते, तो इससे नीतीश विरोधियों का मनोबल और भी बढ़ेगा और तब फिर नीतीश को अपनी सरकार बचाने में खास मशक्कत करनी पड़ेगी। केन्द्र में एक विरोधी पार्टी की सरकार और बिहार में कमजोर जनाधार नीतीश की सरकार के पतन की गति को तेज कर देगा।
अभी जो चुनावी परिदृश्य दिखाई पड़ रहा है, उसमें नीतीश की स्थिति कुछ खास अच्छी नहीं है। वहां भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए और लालू के नेतृत्व वाले यूपीए के उम्मीदवारों के बीच अधिकांश सीटों पर मुख्य मुकाबला है। कुछ गिने चुने स्थानों में ही जनता दल(यू) के उम्मीदवार मुख्य मुकाबले में हैं और चुनावी संघर्ष को तिकोना बना रहे हैं। जाहिर है नीतीश के दल के लिए चुनावी नतीजे कोई अच्छी खबर लाने वाले नहीं हैं।
सच तो यह है कि नीतीश कुमार का बिहार में कभी कोई बड़ा जनाधार था ही नहीं। 1994 में मूल जनता दल से अलग होकर उन्होंने समता पार्टी का गठन किया था और 1995 में हुए विधानसभा चुनाव में तब के अविभाजित बिहार की कुल 324 में से मात्र 7 सीटों पर ही उनकी पार्टी के उम्मीदवार जीते थे। खुद नीतीश कुमार मामूली मतों से जीते थे। उस समय भारतीय जनता पार्टी 42 सीटें पाकर दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी। उस चुनाव के बाद नीतीश कुमार ने भाजपा से गठबंधन कर अपने आपको राजनीति में प्रासंगिक बनाए रखा। सच कहा जाय, तो भाजपा ने नीतीश कुमार को राजनीति मंे पुनर्जन्म दिया। उनकी वर्तमान राजनैतिक हैसियत भाजपा की बदौलत है।
भाजपा ने नीतीश कुुमार को जीवन दान बिहार की जाति राजनीति के कारण दिया। भाजपा की छवि एक ओबीसी विरोधी पार्टी की थी। उसने 1990 में केन्द्र सरकार द्वारा ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण दिए जाने का विरोध किया था। उसके कारण उसके अधिकांश ओबीसी नेता पार्टी छोड़ चुके थे और जो रह भी गए थे, उनकी ओबीसी आबादी में कोई अच्छी साख नहीं थी। उसी बीच लालू यादव से गैर यादव ओबीसी का मोह भंग हो रहा था। भाजपा ने नीतीश कुमार को ताकत देकर गैर यादव ओबीसी को लालू से काटने का काम किया। नीतीश को बिहार की जाति राजनीति में अपने इस महत्व का पता था। इसका उन्होंने भरपूर फायदा उठाया और धींगामुश्ती करके भाजपा से ज्यादा से ज्यादा रियायतें लेते रहे। 2000 की विधानसभा चुनाव में उनकी समता पार्टी को मात्र 29 सीटें मिली थीं, जबकि भाजपा को 65 सीटें। इसके बावजूद नीतीश मुख्यमंत्री बन बैठे। 2005 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने सीटों के बंटवारे में भाजपा से ज्यादा सीटंे हासिल कर लीं, जबकि उनके पास अपना कोई जनाधार नहीं था।
भाजपा के समर्थन से मुख्यमंत्री बनने के बाद नीतीश ने बिहार की जाति राजनीति पर अपनी पकड़ बढ़ाने के लिए अनुसूचित जातियों को दलित और महादलित में बांट दिया। मुसलमानों को भी अगड़े और ओबीसी मुसलमान में बांटा और पिछड़े वर्गाे में ओबीसी और अति ओबीसी की दरार को चैड़ा करने का काम किया। अपनी इस राजनीति के द्वारा नीतीश महादलितों ओबीसी मुसलमानों और अत्यंत पिछड़े वर्गो का राजनीति समीकरण तैयार करने लगे।
इसी राजनीति समीकरण की सफलता की उम्मीद में नीतीश ने भाजपा से अपने आपको नरेन्द्र मोदी का विरोध करते हुए अलग कर लिया। नीतीश मुद्दा तो मुसलमानों का उठा रहे थे, लेकिन मोदी का विरोध करने का उनका असली कारण नरेन्द्र मोदी का ओबीसी होना था। ओबीसी होने का फायदा उठाकर ही नीतीश भाजपा नेताओं पर भारी पड़ रहे थे, क्योंकि भाजपा नेताओं को लगता था कि यदि ओबीसी को लालू से दूर रखना है तो नीतीश का साथ जरूरी है। पर नरेन्द्र मोदी के हाथ में भाजपा की कमान जाने के बाद भाजपा नेताओं को नीतीश की जरूरत ही नहीं, क्योंकि नरेन्द्र मोदी के नाम पर भी वे ओबीसी मतों को अपनी ओर खींच सकते हैं।
बिहार में यही हो भी रहा है। ओबीसी मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग भाजपा के साथ आ खड़ा हुआ और यह उस अन्य दलों पर चुनावी बढ़त दिला रहा है। यादव और मुस्लिम मतदाता लालू के साथ खड़े दिखाई दे रहे है। नीतीश कुमार का जाति समीकरण बुरी तरह से ध्वस्त हो चुका है। इसके कारण बिहार के चुनावी नतीजे उनके लिए बेहद खराब साबित होने वाले हैं।
चुनाव के बाद नीतीश को अपनी सरकार का बहुमत साबित करना आसान नहीं होगा। उनकी सरकार गिरने की स्थिति में भारतीय जनता पार्टी उनके दल में विभाजन की कोशिश कर सकती है। दल बदल विरोधी कानून के तहत दो तिहाई विधायकों की सहायता से ही पार्टी विभाजित हो सकती है। जाहिर है कि दल बदल कराना आसान काम नहीं है। कोई सरकार न बन पाने की स्थिति में बिहार विधानसभा चुनाव की बात भी उठ सकती है, लेकिन भाजपा के अधिकांश विधायक विधानसभा चुनाव में समय से पहले जाना पसंद नहीं करेंगे।
एक तीसरी स्थिति यह भी हो सकती है कि नीतीश कुमार एक बार फिर भाजपा की शरण में आ जाएं। भाजपा के अंदर उनके बहुत सारे दोस्त हैं, जो इस काम में उनकी मदद कर सकते हैं। यदि लालू के दल के विजयी उम्मीदवारों की संख्या बहुत ज्यादा होती है, तब लालू को सत्ता से बाहर रखने के लिए फिर भाजपा और जद(यू) को एक करने की कवायद शुरू हो सकती है। इसलिए इस तीसरे विकल्प की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता। क्या होगा, यह कहना तो मुश्किल है, लेकिन बिहार की राजनीति में लोकसभा चुनाव के बाद दिलचस्प नजारे देखने की उम्मीद की जा सकती है। (संवाद)
भारत: लोकसभा चुनाव और बिहार सरकार
नीतीश सरकार का भविष्य अधर में
उपेन्द्र प्रसाद - 2014-04-15 11:47
लोकसभा का चुनाव तो केन्द्र की सरकार के गठन के लिए होता है, पर इसके नतीजे बिहार की राज्य सरकार के भविष्य को भी निर्धारित करेंगे। बिहार की नीतीश सरकार भाजपा से अलग होने के बाद अल्पमत में है। इसने अपना बहुमत कांग्रेस के चार विधायकों और कुछ निर्दलीय विधायकों की सहायता से साबित किया था।