अब सवाल उठता है कि क्या आंध्र प्रदेश 2014 में भी केन्द्र की सत्ता के गठन में निर्णायक भूमिका निभाएगा? इस सवाल एक जवाब तो है कि विभाजन के बाद अब पहले वाला आंध्र रह ही नहीं गया है। अब दो प्रदेश बन गए हैं, हालांकि यह चुनाव संयुक्त आंध्र के तहत ही हो रहे हैं। लोकसभा के साथ साथ विधानसभा के चुनाव भी हो रहे हैं। लोकसभा की सीटों के लिहाज से देखें, तो तेलंगाना में 17 सीटें हैं और शेष आंध्र प्रदेश में 25।

शेष आंध्र प्रदेश में कांग्रेस का बहुत ही बुरा हाल है। वहां के लोगों ने अलग तेलंगाना राज्य का अंत अंत तक विरोध किया। उनके विरोध के कारण कांग्रेस का ही आंध्र प्रदेश में सफाया हो चुका है। उसके लगभग सभी नेता पार्टी छोड़ चुके हैं। अनेक नेता तो जगनमोहन रेड्डी के साथ हैं, तो अनेक किरण रेड्डी द्वारा गठित की गई एक क्षेत्रीय पार्टी के साथ। उसके कुछ नेता भाजपा में भी शामिल हो चुके हैं। इसलिए शेष आंध्र की 25 सीटों पर कांग्रेस को कोई सीट आती नहीं दिखाई पड़ रही। हो सकता है कि गलती से किसी लोकसभा क्षेत्र को कोई कांग्रेसी उम्मीदवार जीत जाए, लेकिन यदि यह कहा जाय कि शेष आंध्र प्रदेश से कांग्रेस का सफाया हो चुका है, तो गलत नहीं होगा।

कांग्रेस को तेलंगाना से बहुत उम्मीद थी। उसे लग रहा था कि टीआरएस का उसमें विलय हो जाएगा और तेलंगाना के गठन का श्रेय लेती हुई उसकी पार्टी लगभग सारी 17 सीटों को अपने कब्जे में कर लेगी। पर टीआरएस के नेता चंद्रशेखर राव ने अपनी पार्टी का कांग्रेस में विलय से इनकार कर दिया। उसके साथ कांग्रेस का चुनावी गठबंधन भी नहीं हो पाया है। अब तेलंगाना में कांग्रेस और टीआरएस दोनों अलग राज्य के गठन का श्रेय लेतती हुई चुनाव लड़ रही है, लेकिन जनता को पता है कि यह राज्य चंद्रशेखर राव के आंदोलन के कारण हुआ है। इसलिए यहां भी कांग्रेस टीआरएस के पिछड़ती नजर आ रही है। फिर भी शायद कांग्रेस को इस इलाके से कुछ सफलता हाथ लगे।

पर हमें यह याद रखना चाहिए कि 2009 मे कांग्रेस को अविभाजित आंध्र प्रदेश से 33 सीटें हासिल हुई थीं। जाहिर है इस बार उसे यहां से भारी झटका लगने वाला है। इसे एक त्रासदी ही कहा जाएगा कि जिस प्रदेश ने कांग्रेस की सरकार को दो कार्यकाल तक सत्ता में बैठाया, उसी कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार ने प्रदेश का विभाजन कर दिया।

आंध्र प्रदेश में टीडीपी का भाजपा से गठबंधन हो चुका है। टीडीपी के नेता चंद्रबाबू नायडू ’करो या मरो’ की लड़ाई लड़ रहे हैं। वे पिछले 10 साल से सत्ता से बाहर रहे हैं। यदि इस बार भी वे चुनाव हार जाते हैं, तो फिर उनकी राजनीति में फिर से वापसी करना असंभव हो जाएगा। उनकी एक समस्या यह है कि अलग तेलंगाना के मसले पर उनका रवैया बहुत स्पष्ट नहीं रहा है। उन्होंने गठन के समय इसका विरोध तो किया, लेकिन वे पहले समर्थन में भी बयान जारी किया करते थे। इस अस्पष्टता का खामियाजा उनकी पार्टी को शेष आंध्र प्रदेश में भुगतना पड़ेगा। अपनी डुबती नाव को बचाने के लिए उन्होंने बीजेपी का साथ ले लिया है और बेड़ा पार करने के लिए नरेन्द्र मोदी के सहारे आ गए हैं।

जनगमोहन रेड्डी की पार्टी को बढ़त मिलती दिखाई पड़ रही है। उसका एक कारण यह है कि उन्होंने तेलंगाना के गठन का खुलकर विरोध किया था। पूर्व मुख्यमंत्री राजशेखर रेड्डी के बेटे होने का लाभ तो उन्हें पहले से ही मिल रहा था। जेल जाने के कारण उनको जनता की सहानुभूति भी मिल रही है। उन्होंने कह रखा है कि केन्द्र में जिसकी भी सरकार बनती दिखाई देगी, वे उसी का समर्थन करेंगे।

जाहिर है कि अविभाजित आंध्र प्रदेश की 42 सीटों का अनेक दलों में बंटवारा होगा और यह देखना दिलचस्प होगा कि किसको कितनी सीटें मिलती हैं और कौन केन्द्र सरकार के गठन में कैसी भूमिका निभाता है। (संवाद)