असम अबतक कांग्रेस का गढ़ माना जाता था। पिछले कई सालों से यहां कांग्रेस की प्रदेश सरकार है। लेकिन अब उसका यह गढ़ सुरक्षित नहीं रहा। कुछ दशक पहले यहां के कांग्रेस नेता देवकांत बरुआ कहा करते थे कि जबतक कांग्रेस अली-कुली-बंगाली का समर्थन पा रहा है, तबतक उसका यहां कुछ भी नहीं बिगड़ सकता। अली से उनका मतलब मुसलमानों से था। कुली का अभिप्राय चाय बगानों में काम करने वाले मजदूर और उनके परिवार के लोग थे। इस बार मुसलमानों ने चाय बगानों के मजदूरों के बीच अपनी गहरी पैठ बना ली है और बंगालियों का एक बड़ा हिस्सा उसके साथ हो गया है। मुस्लिम भी यह सोच रहे हैं कि भाजपा को समर्थन दे या नहीं दें, क्योंकि उनमें से कुछ को लगता है कि केन्द्र में जिसकी सरकार बन रही है, उसके साथ मिलकर रहने में ही फायदा है।

असम में कांग्रेस के पास इस समय 7 सीटें हैं। उनके चुनाव प्रबंधक भी यह मान रहे हैं कि इस संख्या को बरकरार रखना असंभव है। भारतीय जनता पार्टी के पास इस समय 4 सीटें हैं। उनकी सीटें बढ़कर 7 तक पहुंच सकती हैं। बोडो पीपुल्स पार्टी कोकराझार सीट पी जीत हासिल कर सकती है, जबकि आॅल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फोरम दो से तीन सीटों पर जीत हासिल कर सकती है। गौरतलब है कि यह फोरम मुसलमानों की पार्टी है। फोरम का कांग्रेस से अच्छा संबंध है।

भाजपा के समर्थकों में तेजी से इजाफा हुआ है। सीपीआई के नेता गियासुद्दीन अहमद, जो असम विधानसभा के एक समय उपाध्यक्ष थे, ने इस संवाददाता को असम के व्यापक दौरे के बाद बताया कि उन्हें यह देखकर बहुत आश्चर्य हुआ कि आरएसएस ने असम में अपना बहुत विस्तार कर लिया है। उन्होंने कहा कि संघ मतदाताओं को धर्म के आधार पर ध्रुवीकृत करने की कोशिश कर रहा है। कांग्रेस के एक चुनाव प्रबंधक ने यह स्वीकार किया कि उनके दो या तीन निवर्तमान सांसद चुनाव हार सकते हैं।

नरेन्द्र मोदी ने अपनी चुनावी सभा में बांग्लादेशियों को वापस भेजने का एलान कर दिया है। इसके कारण माहौल गर्म हो गया है। बांग्लादेशी शरणार्थियों का मुद्दा यहां का एक पुराना मुद्दा है। उन्हें देश से बाहर करने की मांग करते हुए एक लंबा आंदोलन हुआ था, जिसका अंत राजीव गांधी और प्रफुल महन्ता के बीच एक सझौते से हुआ था। श्री मोहंता उसके बाद दो बार यहां के मुख्यमंत्री भी चुने गए।

नरेन्द्र मोदी की सभाओं में भारी भीड़ उमड़ रही है। उसे देखते हुए एक कांग्रेस चुनाव प्रबंधक का कहना है कि यह चुनाव नहीं है, बल्कि एक व्यक्ति के इर्द गिर्द इसे पूरी तरह केन्द्रित कर दिया गया है और यह एक व्यक्ति की मार्केटिंग है।

इस चुनाव में सबसे ज्यादा दुर्गति असम गण परिषद की हो रही है। इसका गठन बांग्लादेशी शरणार्थियों के खिलाफ हुए आंदोलन के बाद हुआ था और प्रफुल महंता इसी का नेतृत्व करते हुए दो बार मुख्यमंत्री बने थे। अब यह पार्टी आंतरिक गुटबाजी से ग्रस्त है और इसका जनाधार भाजपा की ओर चला गया है। हो सकता है इस बार इसको एक सीट भी नहीं मिले। तृणमूल कांग्रेस ने भी यहां से उम्मीदवार खड़े किए हैं, लेकिन उसके उम्मीदवारों की भारी मतों से पराजय होने की उम्मीद है।

पड़ोसी मेघालय की शिलांग लोकसभा सीट कांग्रेस के पास बने रहने की संभावना है, जबकि तुरा की सीट पर पीए संगमा एक बार फिर जीत सकते हैं। इस समय वे विधायक हैं। त्रिपुरा की दोनों सीटंे सीपीएम के पास बरकरार रहने की संभावना है। मणिपुर की एक सीट पर भाजपा को बढ़त मिलती दिखाई पड़ रही है, जबकि दूसरी सीट पर कांग्रेस मजबूत स्थिति में लग रही है। कांग्रेस को इस बात की चिंता सबसे ज्यादा है कि असम में उसकी स्थिति दिनों दिन कमजोर होती जा रही है। (संवाद)