हकीकत यह है कि मीडिया सलाहकार/प्रेस सचिव को भारत सरकार में पदस्थ सचिव के बराबर ही वेतन मिलता है, लेकिन उसकी सीमाएं हैं। यह पद विशुद्घ रूप से अनुबंधित है। इस सेवा से जुड़े व्यक्ति का कार्य सिर्फ यही है कि जिस व्यक्ति, राजनीतिज्ञ के लिए वह कार्य कर रहा होता है, उसका महिमामंडन कैसे करे कि जनता में उसकी जय जयकार हो सके। सरकार किस मामले में कौन नीतिगत फै सला ले रही है, क्या नीतियां है, इसकी जानकारी या फाइल सरकने की गति क्या है आदि बातों की जानकारी प्रेस सचिव को नहीं होती। सच्चाई यह है कि वह नीतिगत मामलों में कहीं होता ही नहीं है और वह कुछ कर भी नहीं सकता है। उसकी जरूरत तब होती है जब फैसले ले लिए जाते हैं और भारत सरकार मान्य लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत जनहित वाले अपने कार्यक्रमों को जन-जन तक पहुंचाना चाहती है। तब प्रेस सचिव उस कार्यक्रम को सजा-संवारकर विभिन्न मीडिया-माध्यमों से जनता तक पहुंचाने का उपक्रम करता है। यही उसका मुख्य कार्य होता है। इसके अलावा देश में फैलते जनाक्रोश, आंदोलन जैसी विपरीत परिस्थितियों में जनचेतना को उससे विमुख करने के लिए आवश्यक प्रबंधन जैसे कार्य उसके जिम्मे है। कुछ विशेष परिस्थितियों में जब प्रधानमंत्री किसी योजना पर नीतिगत फैसला कर लें तो उनकी राय पर प्रेस सचिव जनता की प्रतिक्रिया जानने के लिए समाचार एजेंसियों को खबर दे सकते हैं। इस प्रक्रिया में सरकार नीतिगत निर्णय बाद में लेती है, पहले जनता की प्रतिक्रिया देख-सुन लेती है। इस तरह के कार्य के लिए ही प्रधानमंत्री मीडिया सलाहकारों की नियुक्ति करता है। वह पीएमओ का प्रवक्ता होता है। वह मीडिया में आ रही खबरों का अवलोकन करके उसके औचित्य या लाभ-हानि के बारे में प्रधानमंत्री को अवगत कराता है। न कि पीएमओ क्या फैसला ले रहा है इसकी जानकारी रखता है।

इसके अतिरिक्त भारत सरकार का ट्रांजेक्शन ऑफ बिजनेस अधिनियम, जिसमें कार्यालयीन प्रक्रिया के विविध रूप शामिल हैं, में सरकार को विभिन्न मीडिया माध्यमों से जनकल्याणकारी योजनाओं/नीतिगत फैसलों को जन-जन तक पहुंचाने का प्रावधान है, के तहत मीडिया सलाहाकार कार्य करते हैं। यह प्रमाणित तथ्य है कि बिना किसी संशय के मीडिया सलाहकारों की भूमिका सरकार में सीमित है। उसका कार्य है कि वह सरकार का चेहरा सकारात्मक रूप में चमकाता रहे ताकि जनता के मन में प्रधानमंत्री कार्यालय या सरकार की भूमिका एक अच्छे प्रशासक के रूम में बना रहे। नकारात्मक खबरों का प्रभाव जनता पर न पड़े इसके लिए सकरात्मक खबरें कैसे बनती रहें, इसका प्रबंधन ही मीडिया सलाहकार का मुख्य कार्य है। इन बातों से यह प्रमाणित होता है कि सरकारी नीति निर्माण के क्षेत्र में मीडिया सलाहकार की भूमिका नगण्य है। यह एक ऐसी विषय वस्तु है, जहां पर पद की सीमाएं नीति निर्माण के मसले पर जाकर खत्म हो जाती है। इसे आप एक सरकारी कार्य में आलोडऩ की तरह ले सकते हैं। सरकार में फाइलों की गति की जानकारी रखना तो दूर उसकी बाहरी बनावट तक की जानकारी मीडिया सलाहकारों को नहीं होती। सरकारी कार्यों की कार्यपद्घति तो दूर की बात है।

अब हम किताब की विषय वस्तु-प्रस्तावना पर आते हैं, जहां व्यावसायिक हित के मद्देनजर अपनी कुर्सी की सुरक्षा को ध्येय बनाकर कोरे अनुमान और कुतर्कों का घालमेल कर भानुमति का अनुमानित कुनबा रच दिया जाए। यह अवसरवाद का उत्तम उदाहरण है। इसमें झूठ-फ रेब और कोरी कल्पना का बराबर का मिश्रण है।

किताब में वर्णित यह तथ्य कि सत्ताधारी पार्टी अध्यक्ष प्रधानमंत्री से बड़ा प्रधानमंत्री थी, एकदम झूठा और बेतुका है जिसमें दोष मढऩे की कला की बू आती है। यह सरकारी कार्यप्रणाली पर सवाल उठाने के साथ ही पीएमओ की गरिमा को गिराने का उपक्रम है। क्योंकि लेखक को पता है कि इस देश की जनता को मूर्ख बनाया जा सकता है, इसलिए उसने सरकार को संकट में डालने वाला कार्य किया है, किताब में वर्णित बहुत सारी बातें आधारहीन हैं, क्योंकि उन बातों से लेखक का कभी आमना-सामना भी नहीं हुआ है। लेखक के बारे में कहा जा सकता है कि ज्ञान की तरह ही अज्ञानता की भी सीमएं नहीं होतीं। शायद संजय बारू को अपनी कुर्सी और सरकारी कार्यपद्घति के बीच कोई ठोस मसाला नहीं मिल पाया। भारतीय संविधान के तहत बतौर मुख्य कार्यकारी प्रधानमंत्री सरकार का प्रमुख होता है। ऐसे में जिस पार्टी के मार्फत देश के सबसे ऊंचे पद पर विराजमान होता है, उसकी नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि वह अपनी पार्टी के घोषणापत्र को शत-प्रतिशत लागू करने वाली योजनाएं चलाए। उसे पार्टी प्रमुख के निरंतर संपर्क में रहना पड़ता है, उसे गठबंधन में शामिल दलों की भावनाओं के अनुरूप भी निर्णय करने पड़ते हैं। ऐसा बहुत कम देखा गया है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सत्ताधारी पार्टी अध्यक्ष के आगे-पीछे घूम रहे हों। हमारी सरकार की कार्यपद्घति ही ऐसी है कि पीएम पर सत्ताधारी गठबंधन दलों की घोषणाओं पर भी अमल करने की महती जिम्मेदारी आ जाती है।

हकीकत तो यह है कि संजय बारू इस मामले में सौभाग्यशाली रहे या यों कहें कि उनके सितारे बुलंद थे। क्योंकि उनके चार वर्ष के कार्यकाल में भारत सरकार ने सभी मोर्चों पर अच्छा किया था परंतु मीडिया में उसकी चर्चा नाममात्र की भी नहीं हो सकी। संजय बारू तो सरकारी मीडिया तक को संयोजित करने में नाकाम रहे थे। प्राइवेट मीडिया मैनेजमेंट तो बहुत दूर की बात है, आलम यह रहा कि कुकुरमुत्तों की तरह उग आए निजी टीवी चैनलों पर नकारात्मक खबरों से सरकार की मिट्टïी पलीद होती रही और पीएमओ में बैठे मीडिया सचिव पद को संभाले संजय बारू को पता भी नहीं चला कि देश में क्या चल रहा है। देश की जनता की राय सरकार और उसकी नीतियों को लेकर प्रतिकूल होता चला गया, समाज में सरकार के प्रति गुस्सा पनपता गया लेकिन मीडिया सलाहकार को इसे दूर करने की जुगत नहीं सूझी लेकिन जिन सरकारी फाइलों से सचिव स्तरीय अधिकारी से नीचे किसी को कुछ पता नहीं चलता उसकी जानकारी बारू को हो जाती थी। यही मनगढं़त कहानी का दूसरा पहलू है। कोरी कल्पना के घोड़े दौड़ाए गए हैं इस किताब में। कुल मिलाकर बारू अपनी कुर्सी की उपादेयता साबित करने में भी नाकाम साबित हुए। इससे यह प्रमाणित होता है कि बारू पीएमओ में अपने विशेषाधिकार का दिखावा और अवसरवादिता का नमूना भर बनकर रह गए। उन्होंने पीएमओ में सिवाय धनलाभ अर्जन के लिए नौकरी की है, टाइम पास किया है। देशहित में कुछ ऐसा किया हो, रिकार्ड में नहीं दिखता। किताब में बारू ने प्रधान पादरी होने का जो रेखाचित्र खींचा है, वह शत-प्रतिशत असत्य है।

बतौर मीडिया सलाहकार मैं भी ऐसे पद पर कार्य कर चुका हूं। मेरा आकलन है कि विद्वान व्यक्ति मीडिया सलाहकार पद के लिए कतई उपयुक्त नहीं होता। जो व्यक्ति सरकारी मीडिया जैसे पीआईबी, ऑल इंडिया रेडियो, दूरदर्शन, डीएवीपी, बाहरी विज्ञापन विभाग का ढंग से संयोजन नहीं कर सकता वह, सरकारी तंत्र को जोडऩे में कैसे कामायाब हो जाएगा। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि संजय बारू अवसरवादी हैं और उन्होंने पद पर रहते हुए सरकार को ही संकट में डालने का कार्य किया है।

बतौर प्रवक्ता मैं भी विभिन्न मंत्रालयों में यहां तक कि शुरूआती दिनों में प्रधानमंत्री कार्यालय में भी रह चुका हूं। मैं यह दावे के साथ कहता हूं कि सरकारी प्रवक्ता को तो सरकारी नीतियों की जानकारी हो ही नहीं पाती, निजी सलाहकार को फाइल मूवमेंट की जानकारी कैसे हो गई? उनकी किताब स्वनिर्मित दावों और कोरी कल्पनाओं का संग्रह है, उसमें वर्णित तथ्य हकीकत से कोसों दूर हैं। सरकार की कार्यप्रणाली और नियमों की जानकारी नहीं होने की बात किताब पढ़कर स्वमेव लग जाता है। जानबूझकर, शरारतपूर्ण और लक्षित करके लिखी गई किताब को नकारने और भत्र्सना करने के सिवाय मेरे पास कोर्ई शब्द नहीं है।
लेखक विधि व न्याय एवं रेल मंत्रालय में प्रवक्ता रह चुके हैं।

अंग्रेजी से अनुवाद: शशिकान्त सुशांत