वाम मोर्चा इस समय बहुत बेहतर स्थिति में नहीं है। इसका मुख्य आधार पश्चिम बंगाल है, जहां पिछले लोकसभा चुनाव में इसे मात्र 15 सीटें मिली थीं। फिलहाल इसके पास कुल 24 सीटें हैं और चुनाव के बाद यह संख्या घटकर और भी नीचे आ सकती है। अब यदि भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले मोर्चे को 220 से कम सीटें हासिल होती हैं और यह 272 के आंकड़े से बहुत कम होता है, तब एनडीए के बाहर के क्षेत्रीय दल सरकार के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।

हालांकि यह एक बहुत ही कठिन काम होगा। इसका कारण यह है कि लगभग सभी क्षेत्रीय दलों के नेता अवसरवादी और अतिशय महत्वाकांक्षी हैं। वे सत्ता के लिए कुछ भी कर सकते हैं और कहीं भी जा सकते हैं। यदि उम्मीद की कोई किरण है, तो उसका कारण यही है कि चुनाव प्रचार के दौरान अनेक क्षेत्रीय नेताओं की नरेन्द्र मोदी के साथ जबर्दस्त जुबानी जंग हुई। यदि भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए को 272 के आसपास सीटें मिल जाती हैं, तो भाजपा नेतृत्व के लिए कुछ अन्य क्षेत्रीय दलों को मिलाना आसान हो जाएगा, लेकिन यदि एनडीए की लोकसभा सीटों की संख्या 220 तक सीमित रह जाती है, तो कांग्रेस व अन्य क्षेत्रीय दलों के पास सरकार बनाने का मौका रहेगा। कम सांसद होने के बावजूद वाम मोर्चा की भूमिका भी महत्वपूर्ण होगी।

सवाल उठता है कि यह गठबंधन कैसे बन पाएगा और यह कैसे बरकरार रह पाएगा, क्योंकि इसके लिए कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों के बीच पूर्ण सहमति होनी चाहिए। वाममोर्चा के लिए दो बहुत ही संवेदनशील मुद्दे हैं। एक मुद्दा है कांग्रेस से संबंध बनाना और दूसरा मुद्दा है तृणमूल कांग्रेस से संबंध बनाना। कांग्रेस को लेकर तो सीपीएम ने स्थिति स्पष्ट कर दी है। प्रकाश करात ने कह दिया है कि कांग्रेस के बिना कोई धर्मनिरपेक्ष गठबंधन हो ही नहीं सकता है। इसका मतलब है कि कांग्रेस को उस गठबंधन का हिस्सा होना पड़ेगा, भले ही यह सरकार का हिस्सा न बने।

दूसरा मसला ममता बनर्जी से संबंधित है। वाम मोर्चा इसे पसंद करे या नापसंद, लेकिन यह एक सच्चाई है कि पिछले दिनों चुनाव प्रचार के दौरान ममता बनर्जी सबसे नरेन्द्र मोदी की सबसे बड़ी आलोचक के रूप में उभरी है। यदि वह अपने वर्तमान रुख पर कायम रहती हैं, तो नरेन्द्र मोदी विरोधी मंच तैयार करने में उनकी बड़ी भूमिका हो सकती है। सीपीआई के नेता एबी बर्धन ने केरल में यह बयान देकर कि ममता बनर्जी को भी गैरभाजपा विकल्प में स्वीकार किया जा सकता है, आने वाले समय के लिए रास्ता साफ कर दिया है।

बर्धन को उनके इस साहसपूर्ण बयान के लिए बधाई दी जानी चाहिए, क्योंकि पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के साथ वाम मोर्चे के संघर्ष ने दोनों के बीच सहमति बनने का माहौल बिगाड़ रखा है। नरेन्द्र मोदी अब लगातार आक्रामक होते जा रहे हैं। उनके भाषणों के कारण असम और पश्चिम बंगाल के सीमावर्ती क्षेत्रों में तनाव बढ़ता जा रहा है। वाम मोर्चे और ममता बनर्जी के बीच तनावपूर्ण संबंध होने के बावजूद यह सच्चाई है कि दोनों एक साथ भी दिखाई पड़े हैं। गौरतलब है कि जब यूपीए1 में ममता बनर्जी सत्ता में भागीदारी कर रही थीं, तब उसे वाम मोर्चा का समर्थन प्राप्त था।

वाम मोर्चे के लिए वर्तमान राजनैतिक दृश्य पहले से अलग है। 2004 चुनाव के बाद वाम मोर्चे के पास 61 लोकसभा सीटें थीं। 2009 के चुनाव के बाद यह घटकर 24 हो गईं। 2014 के चुनाव के बाद शायद वाम मोर्चे के पास उतनी सीटें भी नहीं रहे। वैसी स्थिति में वाम मोर्चे के पास अपने हिसाब से राजनीति करने की ताकत नहीं रहेगी और गैर भाजपा सरकार के गठन में वह अपनी शर्तो को नहीं चला सकता है।

लेकिन इसके बावजूद वामपंथी नेताओ के पास अपना व्यक्तित्व है और उसके कारण यह राजनैतिक प्रक्रिया को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। वे ममता बनर्जी ही नहीं, बल्कि अरविंद केजरीवाल को भी विश्वास में ले सकते हैं। अरविंद केजरीवाल और ममता दोनों को लगता है कि इस चुनाव के बाद उनकी पार्टियां राष्ट्रीय पहचान प्राप्त करेंगी। उन दोनों को लगता है कि उनकी पार्टियां वाम मोर्चे से भी ज्यादा सीटें हासिल करेंगी। चुनावी नतीजों के बाद इन तीनों को आपस में तालमेल बैठाना होगा। (संवाद)