जिन लोगों ने सीताराम केसरी को कांग्रेस के मुख्यालय से जबर्दस्ती निकालकर बाहर किया था, उनमें मनमोहन सिंह भी एक थे। कांग्रेस मुख्यालय से जबरन बाहर निकाले जाने के बाद भी सीताराम केसरी यह बार बार कहते रहे कि उन्होंने पार्टी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा नहीं दिया है, फिर भी मनमोहन सिंह समेत अनेक कांग्रेसी नेता कहते रहे कि श्री केसरी ने इस्तीफा दे दिया है और उन लोगों ने घोषणा कर दी कि सोनिया गांधी पार्टी अध्यक्ष हैं, जबकि हटाए जाने के कुछ महीने पहले ही सीताराम केसरी शरद पवार को पराजित कर कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए थे।

सोनिया गांधी कांग्रेस की बिगड़ती हालत को संभालने के लिए जबरन अध्यक्ष बन गई थीं, लेकिन अगले साल हुए चुनाव में कांग्रेस की स्थिति और खराब हुई। 2004 में भी कांग्रेस को कोई जीत नहीं मिली थी। विजयी लोकसभा उम्मीदवारों के लिहाज से 2004 में कांग्रेस की स्थिति 1996 और 1998 से भिन्न नहीं थी। लेकिन उस समय कांग्रेस ने यूपीए नाम का मोर्चा बना लिया था और भाजपा को उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के हाथों करारी हार मिली थी। भाजपा की उस हार का फायदा उठाकर कांग्रेस ने वाम मोर्चे के 62 लोकसभा सांसदों के बाहरी समर्थन से केन्द्र में अपनी सरकार बना ली। इसे सोनिया के नेतृत्व में कांग्रेस की जीत बताई गई, लेकिन सचाई यह है कि यदि वामपंथियों और यूपीए में 2004 में शामिल घटक पार्टियों ने देवगौड़ा सरकार के पतन के बाद सीताराम केसरी का समर्थन किया होता, तो उस समय भी कांग्रेस की सरकार बन सकती थी। इसलिए 2004 में कांग्रेस की सरकार उसकी जीत का नतीजा नहीं थी, बल्कि राजनैतिक माहौल में हुए बदलाव जिसके तहत वामपंथी दल कांग्रेस का समर्थन करने को तैयार हो गए थे और 1996 में संयुक्त मोर्चे में शामिल कुछ पार्टियों के यूपीए में शामिल होने का नतीजा थी।

2009 में कांग्रेस की हुई जीत मुख्य रूप से मनमोहन सिंह के कारण हुई थी। अमेरिका के साथ परमाणु करार के मसले पर मनमोहन सिंह ने अपनी सरकार को ही दाव पर लगा दिया था। उस दाव में मनमोहन की जीत हुई थी। वह जीत वामपंथियों के ऊपर दर्ज की गई थी। उसके कारण देश का मध्यवर्ग मनमोहन का दीवाना बन गया था। उस दीवानगी के कारण ही कांग्रेस की जीत हुई थी। उस बीच उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी से उनके समर्थक आधारों का मोह भंग होने का लाभ भी कांग्रेस को मिला था। आंध्र प्रदेश में राजशेखर रेड्डी के करिश्मे ने वहां कांग्रेस को भारी जीत दिलाई थी। इसके कारण कांग्रेस कई चुनावों के बाद 200 का आंकड़ा पार कर सकी थी। उस जीत में सोनिया अथवा राहुल का शायद ही कोई योगदान रहा हो। फिर भी उसे राहुल और सोनिया की जीत के रूप मंे प्रचारित किया गया था।

अब 2014 में कांग्रेस का सूफड़ा साफ हो गया है। वह लोकसभा में मुख्य विपक्षी दल की भूमिका में भी नहीं रह पाएगी। मुख्य विपक्षी दल की मान्यता पाने के लिए कुल लोकसभा सदस्यों के 10 फीसदी संख्या होना जरूरी होता है। यानी उसी दल को मुख्य विपक्षी दल माना जाता है, जो विपक्षी पार्टियों में सबसे ज्यादा संख्या वाली हो और कम से कम उसके पास 55 लोकसभा सांसद हो। 45 लोकसभा सांसदो के साथ राहुल गांधी लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष का रुतबा भी नहीं पा सकते।

जाहिर है, कांग्रेस को ऐसी हार मिली है, जिसका अनुमान वह खुद क्या, उसके विरोधी भी नहीं लगा सकते। अपने चुनाव प्रचार के दौरान नरेन्द्र मोदी लगातार लोगो से कांग्रेस मुक्त भारत के निर्माण की बात कर रहे थे। लेकिन उन्होंने भी शायद यह अनुमान नहीं लगाया होगा कि देश की सबसे बड़ी पार्टी को लोकसभा में मुख्य विपक्षी दल की मान्यता पाने लायक भी सीटें नहीं मिलेंगी।

कांग्रेस की इस दुर्गति के लिए मां बेटे ही जिम्मेदार हैं। भ्रष्टाचार के मामले एक के बाद एक आने के बाद दोनों ने उससे उत्पन्न चुनौती का सामना करने की कोई गंभीर कोशिश ही नहीं की। उन्होंने भ्रष्टाचार को एक समस्या के रूप में देखा ही नहीं। राष्ट्रमंडल खेलों में हुए भ्रष्टाचार से देश की नाक विदेशों मंे भी कटी, लेकिन भ्रष्टाचार में लिप्त नेताओं के पक्ष में राहुल और सोनिया खड़े दिखाई पड़े। केन्द्र सरकार द्वार गठित शुंगलू कमिटी ने कुछ दोषियों की पहचान भी की थी, लेकिन उन पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। भ्रष्टाचार के खिलाफ हुए आंदोलन का सामना सही तरह से करने में भी मां बेटे विफल रहे। राहुल ने तो उस मसले पर अपना मुह ही नहीं खोला। लोकसभा में एक बार जो कुछ कहा वह भी लोगांे को चुभने वाला था। दिल्ली विधानसभा चुनाव में मिली करारी हार के बाद भी कांग्रेस की नींद नहीं खुली। उसने आनन फानन में लोकपाल विधेयक को पारित करवा दिया लेकिन भ्रष्टाचार में शामिल नेताआंे के प्रति उसका रवैया पहले जैसा ही रहा। भ्रष्ट सांसदों और विधायकों की रक्षा के लिए उसने एक अघ्यादेश भी तैयार किया, लेकिन काफी आलोचना के बाद राहुल गांधी द्वारा किए गए एक नाटक के बाद उसे वापस किया गया। आदर्श घोटाले में शािमल कांग्रेसियों को बचाने की भी कांग्रेस ने काफी कोशिश की और कोयला घोटाला सामने आने के बाद तो उसने वह सब किया, जो पहले कभी शायद हुआ ही नहीं था।

जाहिर है कंाग्रेस ने एक से बढ़कर एक गलतियां की। उसने मुस्लिम हितों के नाम पर ओबीसी के कोटे को हिंदू ओबीसी और गैर हिन्दु ओबीसी में बांट डाला, हालांकि उस निर्णय को अदालत ने खारिज कर दिया। वैसा करते समय कांग्रेस नेताओं ने यह नहीं सोचा कि एक छोटे वर्ग को खुश करने के लिए वह उससे 4 गुने बड़े वर्ग को नाराज कर रहे हैं। उसने ओबीसी कोटे में जाटों को भी चुनाव के ठीक पहले डाल दिया। इसके कारण भी उसे नुकसान पहुंचा।

यानी कांग्रेस ने वह सब किया, जिनसे उसको नुकसान हो सकता था। ओबीसी कोटें में छेड़छाड़ कर उसने भाजपा की जीत का रास्ता प्रशस्त कर दिया। सवाल उठता है कि क्या कांग्रेस के अच्छे दिन फिरेंगे या यह धीरे धीरे जनता दल की तरह समाप्त हो जाएगी? सोनिया और राहुल का नेतृत्व जिस तरह का है, उसे देखकर तो यही कहा जा सकता हैं कि कांग्रेस के अच्छे दिन शायद ही आ सकें। लगता है कि सीताराम केसरी का श्राप कांग्रेस को लग गया है, जिन्हें अक्षम बताकर पार्टी अध्यक्ष से जबरन बाहर निकाल दिया गया था। (संवाद)